वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1321
From जैनकोष
किं च कैश्चिच्च धर्मस्य चत्वार: स्वामिन: स्मृता:।
सद्दृष्टयाद्यप्रमत्तांता यथायोग्येन हेतुना।।1321।।
ध्यानी पुरुष तीन तरह के बताये गए हैं उत्तम, मध्यम और जघन्य। तो जैसे विशुद्ध ध्यान होता है, अपने आत्मस्वरूप की ओर दृष्टि जगे वहाँ ही वे बलवान ध्यानी होते हैं और फल भी उन्हें उत्कृष्ट ध्यान का मिलता है। बस करने योग्य काम यही है कि अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पहिचानें और ऐसे ही शुद्ध स्वरूप के निरखते रहने में अपना उपयोग लगायें। बीच-बीच में यह उपयोग टूटता है, अन्य प्रकार के परिणाम होते हैं। फिर भी तत्त्वज्ञान में अपना चित्त बसाये रहें, अपने आपको सबसे निराला समझते रहें, तो किसी प्रकार के भी संकट नहीं आ सकते। एतदर्थ कर्तव्य है कि हम अपने आपको अमूर्त ज्ञानस्वरूप मात्र ही मानते रहें, चाहे बाहर में कुछ भी स्थिति हो, तत्त्वज्ञान से जिन्हें प्रेम है उनको मुक्ति की अवश्य प्राप्ति होती है।