वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1516
From जैनकोष
तनावात्मेति यो भाव: स स्याद्बीजं भवस्थिते:।
बहिर्वीताविक्षेपस्तत्त्यक्त्वांतर्विशेत्तत:।।1516।।
आचार्य देव कहते हैं कि यह मैं आत्मा हूँ― ऐसा इस शरीर को मानना संसारबंधन का बीज है। संसार में हम रुलते रहें, ऐसे-ऐसे देह पाते रहें इसका उपाय है इस शरीर को मान लें कि यह मैं हूँ। संसार में जन्म-मरण धारण करने का यह बहुत ही सुगम उपाय है। और यदि संसार के दु:खों से छूटना है, देह मिलते रहने की परंपरा को मिटाना है तो उसका मूल उपाय है कि संकटों का मूल आधार जो देह है उससे निवृत्ति हो। यह श्रद्धा पहिले करनी होगी कि देह से भी निराला ज्ञानानंदमात्र मैं आत्मा हूँ, जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श इत्यादि नहीं है किंतु केवल एक ज्ञानस्वरूप। जरा अपने आपको इस दृष्टि से देखें तो कुछ समय तक कि यह मैं केवल ज्ञानप्रकाश स्वरूप हूँ।ज्ञान ज्ञान, केवल जानन, केवल प्रकाश, जहाँ रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं, जहाँकोई मूर्ति नहीं, जो ढेला पत्थर की तरह नहीं, जहाँकोई आकार नहीं, केवल ज्ञानप्रकाश मात्र यह मैं आत्मा हूँ, ऐसा ज्ञानमय अपने स्वरूप को निहारें, देह की भी सुध छोड़ दें, देह की भी सुध छोड़ने से यह आत्मा ज्ञान का स्वरूप पायगा और ऐसे आनंद का अनुभव करेगा कि जिस आनंद से तृप्त होकर फिर संसार के विषयों के साधनों की ओर दृष्टि न जायगी। वही सत्य मार्गहै और वही आनंद का सच्चा रास्ता है। इन इंद्रिय के साधनों की भी दृष्टि त्यागकर अपने अंतरंग में प्रवेश किया जाय ऐसा आचार्यदेव का उपदेश है। देखिये― धर्मपालन के लिए हम यात्राएँ भी करते हैं लेकिन कभी-कभी यह स्मरण भी तो करें कि इन तपस्वीजनों ने क्या कार्य किया था जिस मार्ग से चलकर सदा के लिए संकटों से छूट गए। हम परमात्मदेव की क्यों पूजा करते हैं? इसलिए करते कि जो हमें इष्ट है केवल परमात्मदेव को प्राप्त कर लें। इस कारण हम वहाँ अपनी दृष्टि लगाते हैं। उन्होंने क्या किया? सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इन आराधनाओं को करके, अपने आपको एक चिन्मात्र अनुभव करके अष्ट कर्मों को उन्होंने नष्ट किया और शरीर से रहित हुए। अब जैसा यह आत्मा केवल अपने आप है वह स्थिति उनकी हो गई। आवरण दूर होने से ज्ञान का प्रकाश इतना फैल गया कि लोक को ही नहीं अलोक को भी जान रहे हैं। जो भी सत् पदार्थ हैं, उन सबको वे जानते हैं, निर्मलता इतनी बढ़ीचढ़ी है कि कोई वहाँ दोष नहीं रहा, जन्म मरण और रागद्वेष किसी भी प्रकार के दोष अब परमात्मा में नहीं रहे। वह तो निर्दोष हैं और गुणों से परिपूर्ण हैं इस कारण हम उन पुरुषों का स्मरण करते हैं। मेरा भी वैसा ही स्वरूप है। जो भगवान में स्वभाव है वही स्वभाव मुझमें है, केवल अंतर यह पड़गया कि वे वीतराग हैं और यहाँ राग का फैलाव है। लेकिन जो अनंत चतुष्टय उनमें प्रकट है, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतआनंद वे सब मुझमें भी हैं। मुझमें प्रकट नहीं हुए। क्यों प्रकट नहीं हुए? कि हम परद्रव्यों की आशा कर करके भिखारी बन रहे हैं। दूसरे जीवों से अपने बारे में कुछ चाहना यह भी एक भीख मांगना है। बाह्य वस्तुओं से अपने आपको सुखी मानना यह भी वस्तु से सुख की भीख मांगना है। अरे है तो स्वयं सुखमय और मान रहा है कि परवस्तुवों से मुझे सुख हो रहा हे। जैसे कुत्ता जिस हड्डी को चबाता है उससे खून नहीं आता, खून तो उसके ही मसूड़ों का है, पर वह मान रहा है कि मुझे हड्डी से स्वाद आ रहा है। वह उस हड्डी को लिए फिरता है। कोई दूसरा कुत्ता छुड़ाने आ जाय तो वह उससे लड़ता है। यही बात अज्ञानी जीवों की है। ये विषय सुखों के साधन जो बाह्यपदार्थ रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले पुद्गल हैं उन पुद्गलों को भोग भोगकर यह जीव मानता है कि इनसे सुख मिला, पर यह खबर नहीं है कि आनंदगुण मेरा स्वरूप है जो विकृत था, ढका हुआ था वह स्वरूप मुझमें है। जो अब प्रकट हो रहा है तो उसके ही आनंदगुण का परिणमन इस समय सुख रूप में चल रहा है। इतना ज्ञान नहीं है, अत: बाह्य पदार्थों के संचय में विकल्प मचाते रहते हैं और अपने को कष्टों में डालते रहते हैं।
एक घर में चार पाँच भाई थे। गरीबी आई, खाने को भी न रहा तो उन्होंने सोचा कि चलो मौसी जी के यहाँ चलें, 10-15 दिन वहाँ गुजारा करेंगे। पहुँच गए मौसी के यहाँ । वह मौसी भी बड़ी सयानी थी। देखते ही समझ लिया कि ये तो 10-15 दिन तक अब यहाँ ही रहेंगे। मौसी ने कहा कि तुम लोग क्या खावोगे? उन्होंने कहा कि जो कुछ घर में हो सो खावेंगे। मौसी ने दो चार मिठाइयों का नाम लिया। मौसी ने कहा अच्छा जावो तुम लोग कपड़े उतार कर रख दो, तालाब में स्नान कर आवो, मंदिर में पूजन कर आवो, तब तक हम खाना तैयार करती हैं। वे तो चलेगएकपड़े उतारकर तालाब में स्नान करने, 1 घंटा वहाँ लगाया, स्नान करके मंदिर में पहुँचे, 1।। घंटा वहाँ लगाया। इस 2।। घंटे के अंदर मौसी ने क्या कियाकि उनके कपड़े वगैरह एक महाजन के यहाँ गिरवी रख दिया 50) में और आटा, घी, शक्कर वगैरह खरीदकर तुरंत मिठाई बना ली। जब वे मंदिर से आकर भोजन करने बैठे तो कहते जाते हैं, वाह मौसी ने कितना सुंदर भोजन बनाया। तो मौसी कहे― खाते जावो बेटा, यह तुम्हारा ही तो माल है। वे समझें नहीं, वे तो जानते कि खिलाने वाला ऐसा कहता ही है। जब खूब खा चुके और बाद में कपड़े पहिनने गए तो कपड़े मिले नहीं। तो मौसी बोली जब तुम लोग खा रहे थे तो मैं कहती थी कि खाते रहो यह तुम्हारा ही तो माल है। इसका मतलब क्या?.......तुम्हारे कपड़े मैंने महाजन के यहाँ 50) में गिरवी रखा, उससे घी, आटा, शक्कर वगैरह सब सामान लायी तब भोजन बनाया। तो जैसे वे भाई खा तो अपना रहे थे, पर मान रहे थे कि हम मौसी का खा रहे हैं ऐसे ही ये संसारी प्राणी भोग तो रहे हैं अपने ही आनंदगुण का परिणमन पर विषयसाधनों में अपना आनंद मानते हैं। कोई कष्ट की बात पड़े तोविकल्प मचाते और दु:खी होते रहते हैं। इन कष्टों से छूटना हो तो भेदविज्ञान का सहारा लेना पड़ेगा। कोई किसी का मुलाहजा करने वाला नहीं, कोई किसी का बिगाड़करने वाला नहीं। सभी पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में हैं, अपने-अपने भावों में हैं। कोई किसी का सुधारक है, न बिगाड़क है, यह ध्यान में रखकर कुछ इस ओरआयें कि हम अपने को अधिक से अधिक अकेला विचार करें।मैं अकेला ही हूँ। इसमें एकत्व भावना बहुत विशिष्ट भावना है और इसका मर्म बहुत अधिक से अधिक गहरे तक पावोगे। इस संसार में मैं अकेला ही हूँ। कर्मबंधन करता हूँ, वहाँ भी अकेला कर्मफल भोगता हूँ, वहाँ भी अकेला संसार से छूटूँगा तो वहाँ भी अकेला ही छूटूँगा, और इस अवस्था में भी जो रागादिक मच रहे हैं, इस स्थिति में भी यदि स्वरूपदृष्टि करें तो मैं एक अकेला केवल चैतन्यस्वरूप से परिपूर्ण परमब्रह्मतत्त्व हूँ। उस एकाकी को तो विचारें। उस एकत्वस्वरस को अपने उपयोग में लें, किन्हीं भी परपदार्थों से हमारा गुजारा नहीं चलने का है। हमारा पूरा पड़ेगा तो अपने आपके दर्शन से पड़ेगा।
अपने आपमें जो परमात्मतत्त्व बसा हुआ है उसकी ओरदृष्टि तो करिये। यह परमात्मतत्त्व अनादि से ही इस बात के लिए तैयार है कि यह जीव जरा सा तो मेरी ओर उपयोग लगाये, फिर मैं इसे समस्त संकटों से छुटाकर उत्तम सुख में पहुँचा दूँ।लेकिन इस उपयोग का अपने अंदर बसे हुए इस सहजज्ञानस्वरूप कारण समयसार इस अंतस्तत्त्व परमात्मा की ओर दृष्टिही नहीं होती तब, फिर बतलावो कष्टों से हम कैसे छूट सकते हैं? जरा अपनी ओर दृष्टिपात तो करियेगा आत्मा की रक्षा हो जायगी। विषयों में, कषायों में आत्मा का घात हो रहा है। क्रोध करके क्या हम किसी दूसरे का बिगाड़करते हैं? हम तो अपने ही आत्मा का बिगाड़करते हैं। हम अपने ही आत्मा के गुणों को जला डालते हैं। किसी भी प्रसंग में अहंकार करके, दूसरे को तुच्छ समझकर अपने आपको बड़ा साबित करके हम क्या कुछ किसी का बिगाड़ कर रहे हैं? हम अपने आपका बिगाड़कर रहे हैं। कर्मों का बंध बाँध रहे हैं। मायाचार करके, छल कपट करके क्या हम किसी दूसरे का बिगाड़ कर रहे हैं? मैं तो अपना ही बिगाड़ कर रहा हूँ। जिस आत्मा में मायाचार रहता है वह शल्य है और मायावी पुरुष के सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता। लोभ करते हैं, अपने घर वालों पर तो सब कुछ खर्च कर देते हैं और परजीवों के लिए तो जरा भी उदारता नहीं बर्तते हैं, यही है लोभ की वृत्ति। कोई अपने घर में हजारों का खर्च करता हो और यह डींग मारे कि मेरे अंदर लोभ नहीं है तो यह उसकी डींग सच्ची नहीं है। अपने पुत्र, स्त्री आदिक परिजनों पर सर्वस्व समर्पित करें और दूसरे जीवों के प्रति उदारता का भाव न जगे तो यह लोभ ही है। इन लोभ आदिक कषायों में बसकर, विषयसंस्कारों में बसकर हम आपका कोई भी पूरा नहीं पड़ने का। हम अपनी ओरआयें, जगत के सब जीवों को अपने समान देखें, यह सब चैतन्यरस से परिपूर्ण ज्ञानानंदस्वभाववान है। एक दोषवश कोई कीड़ा हुआ, पशु हुआ, पक्षी हुआ, यह भेद वास्तविक नहीं है।
वस्तु तो एक चैतन्यमात्र है। यह आत्मतत्त्व उसकी ओरदृष्टिपात करें, उसका पूजन करें। बाहर में भी तीर्थों में हम आप जिनकी पूजा करते हैं उन महापुरुषों में भी हम यह देखते हैं कि केवल एक चैतन्यरस का विकास है और परमात्मा किसका नाम है? जहाँपूरा ज्ञान है, पूरा आनंद है उसका नाम है परमात्मा। और परमात्मा का क्या स्वरूप है इसके विवरण को छोड़ो, संक्षेप में यह निर्णय रखें कि जिस आत्मा में ज्ञान तो परिपूर्ण है और आनंद भी परिपूर्ण है, दोष उपाधि कुछ भी नहीं रहती है, केवल आत्मा ही आत्मा है, ज्ञानपुंज है उसका नाम परमात्मा है। ऐसा मैं हो सकता हूँ। इस कारण मैं परमात्मा को पूजता हूँ। अपने अंतरंग में ऐसा अवलोकन हो तो हम धर्म के निकट बहुत कुछ पहुँचते हैं। और जीवन में इस बात का अधिक यत्न करें कि कषायें न करें। ये कषायें मेरी बैरी हैं, इन कषायों से आत्मा का घात है। कषायों पर विजय पाना यही सच्ची विजय है।
एक राजा था तो उसने सब राजावों को जीतकर वह सर्वजीत कहलाने लगा। सब राजा लोग उसे सर्वजीत कहें। तो वह राजपुत्र बोला कि माँ सभी राजा मुझे सर्वजीत कहते हैं पर तू सर्वजीत नहीं कहती है तो माँ कहती हे कि बेटा ! अभी तू सर्वजीत नहीं हुआ।......अरे तो और कौनसा राजा जीतने को रह गया? जो रह गया हो उसे बतावो, मैं उसे अभी जीत लूँगा। तो वह माँबोली, बेटा तुमने राजावों को तो जीत लिया है, पर अपने आपमें अहंकार को तूने नहीं जीता।जो तुझमें यह भाव लगा है कि मैंने सब राजावों को जीत लिया है ऐसे अहंकार को अभी तूने नहीं जीता है। जब इस अहंकार को जीत लेगा तब मैं समझूँगी कि अब तू सर्वजीत कहा जाने योग्य है और तभी मैं सर्वजीत कहूँगी। तो आप निर्णय रखें कि मैं अपनी कषायों पर विजय कर लूँ तो में सच्चा विजयी हूँ और मैं कषायों के वश होकर अपने आपकी सुध खोकर मैं कुछ अपने को बड़ा मानता रहूँ तो वह तो हमारी एक कल्पनाभर है। उससे कहीं मैं विशिष्ट तो न हो जाऊँगा। तो हमें यह चाहिए कि हम भेदविज्ञान का प्रयोग करें, सबसे निराला ज्ञानानंदमात्र अपने आत्मा के निकट बसने का यत्न करें, यही बात सर्वत्र सीखें। यात्रा में, स्वाध्याय में, अनेक प्रसंगों में इस बात का चिंतन करें कि मैं सबसे निराला केवल ज्ञानानंदमात्र हूँ। यह भावना हमारे सभी दोषों को बाहर निकाल कर फेंक देगी, इन कर्म शत्रुवों को उखाड़ देगी, इन विकल्पजालों को, कष्ट समूहों को नष्ट कर देगी। हम ज्ञानभावना की ओरबढ़ें और अपने को ज्ञानानंदस्वरूपमात्र मानें और बाह्यवस्तुवों में ममता न रखें। राग होता है। सम्हाल करते हैं ठीक है फिर भी इस निश्चय से अलग न हों कि मेरा बाहर में कुछ नहीं है। मेरा मात्र मैं ही हूँ। यों ज्ञानानंदमात्र अपने आपका अनुभव करूँ, इससे ही जीवन की सफलता है।