वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1517
From जैनकोष
अक्षद्वारैस्ततश्च्युत्वा निमग्नो गोचरेष्वहम्।
तानासाद्याहमित्येतन्न हि सम्यगवेदिषम्।।1517।।
ज्ञानी पुरुष ऐसा चिंतन करते हैं कि इंद्रियों के द्वार से अपने स्वरूप से च्युत होकर विषयों में मग्न हो जाऊँऔर उन विषयों को पाकर यह मैं अहं रूप से जानूँ, इस प्रकार आत्मस्वरूप को भली प्रकार से देख नहीं सकता। ज्ञानी पुरुष ज्ञान होने पर यह चिंतन कर रहा है। यह चिंतन धर्मध्यान से संबंधित है। अब तक अनादि से लेकर अनंतकाल इंद्रिय द्वारों से जानना और आनंद मानना, यह एक भूल भरा काम किया। ज्ञान आत्मा का स्वरूप है, उसे हम इंद्रियों से ही जानें तब ज्ञान बने ऐसी बात नहीं है। ज्ञान से भी ज्ञान हो सकता है। इंद्रिय काआलंबन न लें और जानें तो यह नहीं काम बन सकता है, किंतु ये असंज्ञी पंचेंद्रिय तक नहीं बन सकते, एकेंद्रिय जीव चाहते कि मैं इंद्रियों से आनंद न मानूँ, अपने ही ज्ञान से अपने ही स्वरूप से ज्ञान और आनंद करूँ, यह बात एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय में भी नहीं हो सकती, क्योंकि संस्कार लगा है जिससे अपने उपयोग को मोड़ नहीं सकते। संज्ञी पंचेंद्रिय में ही सामर्थ्य है कि वे अपने उपयोग की धारा को मोड़ सकते हैं। संज्ञी पंचेंद्रिय में भी अरबों खरबों में से कोई बिरला ही सम्यग्दृष्टि है वह मोड़सकता है। अनादि से लेकर अब तक मैंने इंद्रियद्वारों से ही जाना, इंद्रियद्वारों से ही आनंद माना और विषयों को प्राप्त करके मैं अहंपद से जान गया, ऐसा नहीं हुआ। पर को जानाकि यह मैं हूँ, क्योंकि इंद्रिय द्वार से निरखते, अपने अंतरंग में नहीं देखते किंतु निकट पर को जानते हैं। जब इंद्रियाँ खुद को भी नहीं जान सकती तो अंतरंग को क्या जानें? आँखों से आँखों को भी नहीं देख सकते। आँखों में कीचड़ लगा हो तो हम आँखों को भी नहीं देख पाते हैं। दर्पण सामने लगाकर निरख लेते हैं। क्योंकि वह दर्पण पर हो गया नेत्र नहीं है,छाया है, उसे देखकर ही जान पाते हैं कि यह ऐब लगा है, पर नेत्रइंद्रिय स्वयं को नहीं जान पाती। ऐसे ही कर्णइंद्रिय भी बाहर में सबको जानती है। नासिका भी बाहर की गंध को जानती है, जिह्वा खुद अपना स्वाद नहीं जानती। स्पर्शन इंद्रिय भी ऐसी ही है। कभी बुखार चढ़ा हो तो बिना एक हाथ से दूसरे हाथ को पकड़कर देखे हुए बुखार जाना नहीं जा सकता है। जब एक हाथ से दूसरे हाथ को छूते हैं तबसमझ पाते हैं कि इसमें इतनी गर्मी हैं, तो स्पर्शन इंद्रिय भी स्वतंत्र अपने आपको नहीं जानती है। जब इंद्रिय में खुद को भी जानने की सामर्थ्य नहीं है तो जो अमूर्त आत्मा है उसे जानने में क्या समर्थ होगी? तो इंद्रिय के द्वारों से मैं अपने ज्ञान से च्युत हो गया और अब तक डोलता रहा। अपने आपकी समझ बने तो, जब एक ज्ञानप्रकाशमात्र स्वयं का स्वरूप उपयोग में रहता है तो वहाँ न बिगाड़है, न कष्ट है और एक विशुद्ध शांति का अनुभव है। वह चीज मैंने अब तक नहीं प्राप्त की थी, ऐसा ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है।