वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1525
From जैनकोष
यदबोधे मया सुप्तं योद्बोधे पुनरुत्थितम्।
तद्रूपं मम प्रत्यक्षं स्वसंवेद्यमहं किल।।1525।।
जिसका ज्ञान नहीं हुआ तो में सोया हुआ हूँ और जिसका ज्ञान होने पर मैं जग गया हूँ उस स्वरूपमय सुसम्वेद्य मैं आत्मतत्त्व हूँ। में चैतन्यमात्र हूँ इसकी सुध न हो तब मैं सोया हुआ हूँ। मैं अपने को नहीं पहिचान रहा हूँ यही सोना कहलाता है। शांति के लिए मुझे क्या करना चाहिए, वह सब प्रकाश मेरे में नहीं रहता। वह प्राणी जागा हुआ है जिसे अपने चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व की सुध है। मैं आत्मा अपने आपके ज्ञानद्वारा प्रत्यक्ष हूँ। अपने आपके स्वरूप का दर्शन अपने आपको कठिन नहीं है। केवल आवश्यकता इस बात की है कि यथार्थ पदार्थ के स्वरूप की समझ हो और समझ के होने पर समस्त परद्रव्यों से उपेक्षाभाव आये, अपने आपके आत्मा का दर्शन बहुत सुगम है, उसे कठिन न समझिये। जिस पुरुष को आत्मदर्शन हो गया उसने एक तिरने का तीर्थ पा लिया। आत्मा तिर सकता है तो अपने आपके इस विशुद्ध चैतन्यस्वभाव के अवलंबन से तिर सकता है। इसको तिराने न कोई बाह्य में क्षेत्र है न कोई आत्मा है, न बाह्य में कोई अन्य पदार्थ है। हम बाहर में जो अवलंबन लेने की सोचते हैं तो बाहर में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो जिसका आलंबन लेकर हम जब चाहे अपने आपका दर्शन कर सकें। यह आत्मा अष्टकर्मों के बंधन में इतना विकट जकड़ा है कि इसको किसी भव में चैन नहीं मिलती है। और विषयकषाय ऐसी तीव्रता से जगते हैं कि यह अपने वश नहीं रहता। ऐसा हाल इस जीव का हो क्यों रहा है? तत्त्व तो यों है कि जब कोई पदार्थ किसी का कुछ है ही नहीं, वास्तव में संबंध है ही नहीं फिर क्यों किसी पदार्थ में इतनी अनुरक्ति जग रही है? जो अपने को मिला, जो अपना बंधु माना हो, जिससे अभिप्राय मिला वह तो अपना और बाकी दुनिया के अपने नहीं है ऐसा जो द्वैतभाव हो गया है, चित्त में ऐसी दुविधा की बात जो बस गई है यह दुविधा की बात इस जीव को दु:ख देने वाली है। जैसे स्वप्न में जो कुछ दिखता है वह बड़ा परिचित मालूम होता है लेकिन परिचय वहाँ कुछ नहीं है, केवल कल्पना ही कल्पनाहै। जग जाने पर सब स्पष्ट मालूम हो जाता है कि वह सब झूठ था। ऐसे ही अज्ञान दशा में इस जीव को ऐसा लगता हे कि मेरा बड़ा परिचय है, मैं लोक में कुछ हूँ, लोग मुझे जानते हैं, मैं लोगों को जानता हूँ लेकिन ये सब बातें स्वप्नवत् हैं, असार हैं, असत्य हैं। ज्ञान होने पर सत्यज्ञान होता है कि वह सब अज्ञानदशा थी। वास्तविकता तो यह है कि मेरा जो चैतन्यस्वरूप है, मेरा जो शुद्ध आत्मतत्त्व है, यह मैं आत्मा अपने आपके द्वारा सम्वेदन के योग्य हूँऔर यह स्वयं ज्ञानानंदमय है। किसी समय ऐसी हिम्मत बन तो पाये कि सब परद्रव्यों की उपेक्षा करके, चित्त को अत्यंत शांत करके अपने आपमें विराजमान इस चैतन्यस्वरूप के दर्शन करके जरा अपने आपका अनुभव कर तो लें सब झंझट मिट जाते हैं। देखिये यह निर्णय अकाट्य होना चाहिए कि मेरा भला मेरे शुद्ध आत्मस्वरूप के दर्शन में होगा। अब न बन सका, न सही। बनेगा, कभी बनेगा, पर निर्णय तो यही रहना चाहिए कि मेरा भला मेरे विशुद्ध स्वरूप के दर्शन से, अनुभव से होगा, इन समागमों से न होगा। तो जिस चैतन्यस्वरूप के न जानने पर मैं विकारी हूँ, बेहोश हूँ, सोया हुआ हूँ, न कुछ हूँ और जिस चैतन्यस्वरूप के दर्शन होने पर मैं सफल हूँ, सही हूँ, स्वस्त हूँ, झंझटों से मुक्त औरआनंदस्वरूपी हूँ। वह मैं चैतन्यस्वरूपी हूँ और वह मेरे द्वारा ही सम्वेदन के योग्य है। भला अपनी जेब में कोई चीज रखी हो तो उसे बड़ी सुभव्यता से जेब से झट निकाल कर उसके दर्शन कर लेते हैं, देख लेते हैं, यह है चीज। और जो खुद ही है उसको अगर हम ज्ञाननेत्र से अंत: देखें तो उससे भी स्पष्ट मेरा आत्मा दिख जाय, अनुभव में आ जाय इसमें कौनसे संदेह की बात है, इस प्रकार विचार करें में सबसे निराला, विशुद्ध चैतन्यज्योतिमात्र हूँ।