वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1533
From जैनकोष
यज्जन्मगहने खिन्नं प्राङ्मया दु:खसंकुले।
तदात्मेतरयोर्नुनमभेदेनावधारणात्।।1533।।
ज्ञानी पुरुष ऐसा विचार करता है कि मैं दु:ख से भरे हुए इस संसाररूपी भयंकर वन में जो खेदखिन्न हो सो आत्मा अनात्मा का खेद न होने के कारण दु:खी होता हूँ। अब तक भी जितने क्लेश भोगे जा रहे हैं तो स्व और पर का भेदविज्ञान न होने से मांगे जा रहे हैं। दु:ख और कोई चीज नहीं है। बस वस्तुस्वरूप के विपरीत चलते हैं और उन कल्पनाओं में यह जीव चाहता हैकि मैं परद्रव्य का अमुक प्रकार से कुछ परिणमन दूँ, पर वह परद्रव्य उसकी इच्छानुकूल परिणमन नहीं करता है। वह तो उसमें जैसा स्वभाव हुआ वैसा परिणमन करता है। इच्छानुकूल परिणमन न होने से यह जीव क्लेश मानता है। हाय ! ऐसा क्यों न हुआ, इतना ही मात्र दु:ख का मर्म है।