वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1543
From जैनकोष
रागादिमल विश्लेषाद्यस्य चित्तं सुर्निमलम्।
सम्यक् स्वं स हि जानाति नान्य: केनापि हेतुना।।1543।।
आत्मा ज्ञानस्वरूप है। आत्मा कहते ही उसे हैं जो निरंतर जानता रहे। अतति सततं गच्छति इति आत्मा। जो निरंतर जाने उसे आत्मा कहते हैं। इसके जानने का काम निरंतर है। सोई अवस्था हो, जगी अवस्था हो, कषाय सहित हो, कषाय रहित हो, सभी स्थितियों में आत्मा जानता ही रहता है। कितना जानता, कैसा जानता यह एक विशेष बात है, पर जानने का काम कभी भी नहीं छूटता, क्योंकि जितना अनुभवन है, जितनी वेदनाहै वह सब जानने के आधार पर है। सो जानता तो है ही निरंतर कुछ न कुछ, पर जो जीव स्व को जानता है, निज अंतस्तत्त्व को जानता है वह तो संसार के संकटों से छूट जाता है और जो स्व को नहीं जानता, परपदार्थों में दृष्टि देकर कितना ही जाने, वह संसार के संकटों से छूट नहीं पाता। स्व के जानने का अद्भुत प्रताप है, सर्व क्लेश दूर होते हैं और जो यथार्थ बात है वैसा ज्ञाता दृष्टा रहने से संकटों से छूट जाता है। तो अपने आपको भली प्रकार कौन पुरुष जान सकता है? उसका वर्णन इस श्लोक में है। जिस मनुष्य का चित्त रागादिक मल के अभाव से निर्मल हुआ है वही पुरुष भली प्रकार अपने को जानता है और किसी कारण से अपने को भली प्रकार नहीं जानता। ज्ञान अमूर्त है और ज्ञान के द्वारा जिसे जान लेना चाहिए वह अमूर्त है। तो इस ज्ञान को अपने आपके ज्ञान करने के लिए कोई बाधा न आनी चाहिए। मगर बाधा है। वह बाधा क्या है? रागादिक दोष। तो रागादिक दोषों का जहाँ अभाव हो गया उसका चित्त निर्मल हुआ। वही पुरुष अपने आपको जान सकता है। आवरण बीच में से समाप्त हो गया। जैसे समुद्र भी है या उसके ऊपर एक पतली चादर ही बैठी हो तो समुद्र का लाभ नहीं लिया जा सकता। ऐसे ही ज्ञान के और ज्ञान के स्वयं विषय के बीच रागादिक मल का पर्दा पड़ा है। इस तरह स्व का बोध भली प्रकार नहीं होता क्योंकि उपयोग रागवश बाहर की ओर रम गया या ये रागादिक दोष ये आवरण जिस मुनि के समाप्त हुए हैं वह अपने को भली प्रकार जानता है।