वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1544
From जैनकोष
निर्विकल्पं मनस्तत्त्वं न विकल्पैरभिद्रुतम्।
निर्विकल्पमत: कार्य सम्यक्तत्त्वस्य सिद्धये।।1544।।
जो निर्विकल्प मन है वह तत्त्व है। यहाँ मन शब्द का अर्थ ज्ञान से लेना चाहिए। विकल्परहित, महाझंझटोंरहित जो ज्ञान का परिणमन है, जो ज्ञान है, जो ज्योति है। वही तत्त्व है और विकल्पों से उत्सर्ग किया गया, घात किया गया जो मन है, विचार है, ज्ञान है वह तत्त्व नहीं है इस कारण तत्त्व की सिद्धि के लिए भली प्रकार अपने चित्त को निर्विकल्प करना चाहिए। बाह्य पदार्थों से उपयोग को हटायें और अपनी ओर उपयोग को ले जायें तो बाह्य का आक्रमण न रहने से इसे सुविधा है, अपने आपके सम्यक्त्व की प्राप्ति होने में। संसार में शरण बस इतना ही है अपने लिए सहाय अपना जो सहजस्वरूप है उसका आलंबन लेना यही मात्र शरण है, यही धर्म है। और चत्तारिदंडक में पहिले अरहंत को, फिर सिद्ध को, फिर साधु को, मंगल, लोकोत्तम शरणभूत बताकर अंत में बताया हे कि धर्म मंगल है, धर्म लोक में उत्तम है और धर्म शरणभूत है, जो भगवान केवली द्वारा प्रणीत है वही धर्म शरण है। वह धर्म निर्विकल्प है, अभेद है, सनातन है, आदि अंतरहित है।