वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1545
From जैनकोष
अज्ञानविप्लुतं चेत: स्वतत्त्वादपवर्तते।
विज्ञानवासितं तद्धि पश्यत्यंत: पुर: प्रभुम्।।1545।।
जो मन अज्ञान में बिगड़ा हुआ है अर्थात् जहाँ अज्ञान का वास है वह तो निज स्वरूप से छूट जाता है और जो मन विज्ञान है, सम्यग्ज्ञान से वासित है वह अपने अंतरंग में प्रभु भगवानपरमात्मतत्त्व को निरखता है। परमात्मतत्त्व को निरखने की यही विधि है। ज्ञानांधकार दूर करें और परमात्मतत्त्व पर दृष्टि दें, उसे ज्ञेय बनायें तो ऐसा एक तान होकर जब ज्ञान ज्ञान के स्वरूप को जानने लगता हे तो यह विधि हे कि वह अपने आपमें बसे हुए परमात्मतत्त्व का साक्षात् अनुभव करता है। मूल में सबका भेदविज्ञान शरण है। भेदविज्ञान किए बिना धर्म की कोई पीढ़ी नहीं चलती। भेदविज्ञान होता है पदार्थों के स्वलक्षण के परिचय से। आनंद भी भेदविज्ञान से ही मिलता है, नहीं तो परपदार्थ का कुछ थोड़ा बहुत जो कुछ अनुकूल और प्रतिकूल परिवर्तन हो रहा हैअज्ञान के कारण उसी में रमता है यह जीव। जब ज्ञान उत्पन्न हो तो सबसे उपेक्षा करके एक अपने आपके स्वरूप में प्रवेश करता है। यह विधि है परमात्मतत्त्व के दर्शन की। एक उपयोग में दो बातें नहीं समा सकती कि विषयों से प्रतिभाव भी बना रहे और सर्व आनंद का आधारभूत जो निज अंतस्तत्त्व है उसका ज्ञान भी होता रहे। परमात्मतत्त्व में देखना क्या है, दर्शन क्या चीज है? कहीं रूपी पदार्थों की तरह तो इसका दर्शन नहीं होता। जैसे हम आँखों से देखते हैं, बताते हैं कि हमने यह देखा, इस तरह ज्ञान के द्वारा भीतर कोई नेत्रवत् नहीं देखा जाता, पर ज्ञान का काम जानने का है, अनुभवने का हैं सो यह होता है ज्ञानी जीवों में।