वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1546
From जैनकोष
मुनेर्यदि मनो मोहाद्रागाद्यैरभिभूयते।
तन्नियोज्यात्मनस्तत्त्वे तान्येव क्षिप्यते क्षणात्।।1546।।
मुनि का मन, ज्ञानी का मन यदि मोह के उदय से रागादिक से पीड़ित हो तो मुनि उस मन को आत्मस्वरूप में लगाता है और रागादिक भावों को क्षणमात्र में दूर करता है। जहाँरागरहित निर्विकार आत्मस्वभाव ज्ञान में लिया, लो ये रागादिक झंझट दूर हो जाते हैं। अब देखिये एक ज्ञान को ग्रहण करने की ही बात है। जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला यंत्र शरीर पर पड़े हुए कपड़े को छोडकर हड्डी का फोटो ले लेता है, इसी प्रकार विकारपरिणमन चल रहा है, विरुद्ध बात समझी जा रही है और वातावरण भी अपने पर ऐसा छाया है कि ज्ञानी पुरुष वहाँ सब चीजों से दृष्टि हटाकर अंत:गुप्त स्वरक्षित जो आत्मा का सहजस्वरूप है उसको लक्ष्य में ले लेता है तब उस चित्त में रागादिकभाव पीड़ा नहीं करते।मैं निर्विकार अंतस्तत्त्व हूँ। विकार आते हैं तो वे पीड़ास्वरूप हैं, आत्मस्वरूप हैं और वे दु:ख के लिए ही आते हैं। मैं रागादिक से भी रहित मात्र एक ज्ञानस्वरूप हूँ। ऐसी ज्ञानज्योति को अपने चित्त में लें तो इन रागादिकों को क्षणमात्र में यह ध्वस्त कर देता है।