वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1560
From जैनकोष
तद्विज्ञेयं तदाख्येयं तच्छ्रव्यं चिंत्यमेव वा।
येन भ्रांतिमपास्योच्चै: स्यादात्मन्यात्मन: स्थिति:।।1560।।
हर परिस्थितियों में उस ही आत्मतत्त्व की बात सुनिये, उसका ही चिंतन करिये जिससे भ्रम दूर हो आत्मा की आत्मा में स्थिति हो।देखिये यह संबोधन यह उपदेश यद्यपि साधुजनों के लिए दिया गया है पर जो बात साधुवों के लिए भली है वह बात हमें भी तो करनी है।हम इस बात को क्यों चाव से न सुनें? क्या बताया जा रहा है साधु पुरुषों को? वही तो हमें भी करनाहै। यह दृष्टि में रहे तो भिन्न पद में रहकर भी अनुकूल रह सकते हैं और प्रकाश पाने के कारण घबडाहट से दूर रह सकते हैं। जिस किसी भी प्रकार बाह्यपदार्थों के विकल्प छुटाकर जिस किसी भी समय केवल ज्ञानघन, ज्ञानानंद का पुंज केवल एक निज अंतस्तत्त्व आत्मानुभव में आ जाय तो समझ लीजिए कि सारा भ्रम दूर हो गया। क्या हे यह बाहर में पड़ा हुआ पौद्गलिक ठाठ? यह मेरे स्वरूप से बिल्कुल भिन्न है। इस पौद्गलिक ठाठ को प्रीति में कुछ मिलना तो दूर रहा, हम अपना कुछ खो ही देते हैं। बहुत-बहुत बार इन विषय भोगों की चर्चा सुनी, अनादि से लेकर अब तक इन विषय भोगों की ही बात स्मरण में रही, उनका ही परिचय रहा, लेकिन अपने आपके आत्मा में निरंतर विराजमान जो कि द्रव्य दृष्टि के आलंबन से निरखा जाता ऐसा चैतन्यमात्रस्वरूप वही एक श्रवण करने योग्य है, वही पालने योग्य है और उसका ही चिंतवन होना चाहिए। यद्यपि गृहस्थावस्था में ऐसा लगता होगा कि ऊँची बात की चर्चा की जा रही है। हमें तो छोटी बात चाहिए, पर भाई बड़ी बात के सुनने चिंतवन मनन करने से छोटी बात तो आ ही जायगी।इस बड़े तत्त्व की दृष्टि रखने पर हम अपने कुछ थोड़े बहुत सही कर्तव्य में, सही आचरण में, सही चारित्र में रह तो सकते हैं और फिर लक्ष्य के योग्य तो तत्त्व वही एक है। आचरण जरूर किसी के बड़ा होता हे तो हम अपने अणु व्रत में श्रावक के योग्य आचरण में चलते रहें और लक्ष्य में वही एक बात रखें कि शुद्ध चैतन्यमात्र जब मैं केवल एक अकेला रह जाऊँगा, पर के संबंध से रहित रहूँगा तो यही परमात्म अवस्था होगी और सदा के लिए यह आत्मा समस्त संसार के संकटों से छूट जायगा―ऐसा जानकर हमारा उद्यम कुछ अपने आपके भीतर निरखने का होना चाहिए। दोष दिखें उन्हें दूर करें। गुण नजर आयें तो उन्हें और बढ़ाने की कोशिश करें।