वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1569
From जैनकोष
गलन्मिलदणुव्रातसंनिवेशात्मकं वपु:।
वेत्ति मूढस्तदात्मानमनाद्युत्पन्नविभ्रमात्।।1569।।
यह शरीर क्याहै? खिरने वाले और मिलने वाले पुद्गल पर्यायों का स्कंद है। इससे रचा हुआ यह शरीरहै। उसे यह मूढ़बहिरात्मा अनादि से उत्पन्न हुए विभ्रम से आत्मा जानता हे। यही संसार का बीज है। है क्या यह शरीर? मिलने और बिछुड़ने वाले पुद्गल परमाणुवों का पिंड है। उस शरीर को यह मोही जीव समझता हे कि यह मैं आत्मा हूँ। ऐसे भ्रम के कारण यह पंचेंद्रिय के इन विषयों का ही पोषण करता है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इंद्रियों में ही यह रत रहता है, इस शरीर से निराला मैं एक ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा हूँ, इस ओरइस जीव की दृष्टि नहीं जाती। सो ऐसा भ्रम इस जीव का अनादि काल से बना चला आ रहा है। बस यही भ्रम जन्म-मरण का बीज है। मरण के समय तो इस जीव को दु:ख होता ही है, पर जीव को जन्म के समय में भी दु:ख है। जैसा दु:ख मरते समय होता है उससे भी कठिन दु:ख गर्भ से निकलते समय होता है। देखा होगा कि जब कोई गाय बछड़े को जन्माती है, बछड़े का शरीर ठीक ढंग से जैसा निकलना चाहिए वैसा नहीं निकल रहा है तो उसे देखकर लोग दया करते हैं कि हाय ! यह बछड़ा नहीं निकल रहा, अब न जाने इसका क्या होगा? अब जो बछड़ा निकल रहा है उसकी पीड़ा को कौन जाने? यही हाल मरते समय का है। मरते समय में क्या दु:ख होता है जीव को सो उसका उदाहरण दिया है कवि ने कि जैसे चाँदी का तार पतला किया जाता है तो चाँदी की पत्ती होती है, जैसे छोटे बड़े अनेक छिद्र होते हैं तो छोटे छिद्र में तार चलता है, जैसे उसे ताना जाता है इसी तरह से जीव को मरते समय तनाव होता है। और देखते हैं लोग कि पैर में से जीव निकल गया, अब पेट में रह गया, अब हाथ में रह गया, अब गले में जीव रह गया, अब लो यह जीव इस शरीर से निकल गया। तो मरते समय भी बड़े क्लेश होते हैं। ये सब क्लेश इसी बात से हैं कि इस शरीर में ऐसी बुद्धि बना ली कि यह मैं हूँ। बस यही सबसे बड़ा पाप है। आप बतावो जो हमें छोड़ना है वह कितनी स्वाधीन बात है? इसे माँ-बाप, स्त्री–पुत्र, सास-स्वसुर किसी से बाधा नहीं है। केवल अंतरंग परिणामों को बदलने भर की बात है। इस संसार में जो भटकनाएँ बनी हैं उनका मूल कारण यही है कि इस शरीर में ही आत्मीयता की बुद्धि बना ली है।