वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1571
From जैनकोष
दृढ: स्थूल: स्थिरो दीर्घो जीर्ण: शीर्णो लघुर्गुरु:।
वपुषैवमसंबंधन् स्वं विंद्याद्वेदनात्मकम्।।1571।।
जो ज्ञानी पुरुष इस शरीर को निरखकर मैं जीर्ण हूँ, शीर्ण हूँ, हल्का हूँ, भारी हूँ―इस प्रकार नहीं निरखता वही ज्ञानस्वरूप को जानता है। जरा अनुभव करो कि जिसका चित्त इसी बात में बसा है कि मैं जीर्ण हो गया हूँ, मोटा हूँ, अमुक रूप का हूँ तो उसकी बुद्धि कहाँ पर है? उसकी दृष्टि ज्ञानस्वरूप आत्मा पर हे क्या? आत्मा न दुबला है, न मोटा है, न ठिगना है, न लंबा है, न गोरा है, न कालाहै, वह तो अमूर्त मात्र ज्ञानस्वरूप है। आत्मा को अन्य-अन्य रूपों में मानना यही मिथ्याग्दर्शन है। जो अपने को देह से संबोधित बातों रूप नहीं मानता है वही ज्ञानमात्र तत्त्व का अनुभव कर सकता है। और अपने को ज्ञानरूप अनुभव करे यही सार है जिंदगी में और कोई सार नहीं है। न धन वैभव में सार है, न परिजन मित्रजनों में सार है। ये सर्व दृश्यमान पदार्थ अचेतन हैं, पर हैं। यह शरीर भी अचेतन है, पर है। इसको अपनाए इस रूप अपने को अनुभव करे तो एक ब्रह्मस्वरूप का ख्याल हो। वह तो अमूर्त है, एक चित्प्रकाशमात्र है। जब ज्ञान ज्ञान की स्थिति का, ज्ञानस्वभाव का अनुभव करता है तब आत्मा का सम्वेदन होता है। ज्ञानी पुरुष इस शरीर के संबंध रूप नहीं अनुभव करता, किंतु शरीर से भिन्न, शरीर की सब बातों से भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप अपने आपका अनुभव करता है।