वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1579
From जैनकोष
शरीराद्भिन्नमात्मानं श्रृण्वन्नपि वंदनपि।
तावन्न मुच्यते यावन्न भेदाभ्यासनिष्ठित:।।1579।।
कल्याणार्थी पुरुष को आत्मा और देह के भेदविज्ञान से इतना निरूपण होना चाहिए, मेरे आत्मा में इतनी धुन होनी चाहिए कि ऐसी स्थिति बन जाय कि वह सुनता हुआ भी नहीं सुन रहा, बोलता हुआ भी नहीं बोल रहा। जैसे जब कभी किसी इष्ट बात में ध्यान रहता है, किसी मनोज्ञ विषय में प्रीति अधिक रहती है तब उसकी ऐसी स्थिति होती है कि दूसरा आदमी कोई बात सुना रहा है तो सुनता हुआ भी न सुनने की तरह सुन रहा है और किसी से कुछ बोलता है तो है तो बोलता हुआ भी न बोलने की तरह बन रहा है। तो जब बाह्यपुद्गल में कोई ध्यान विशेष जम जाय, जब यह स्थिति बन जाती है तो फिर आत्मा में जिसकी धुन बन जाय उसकी स्थिति तो इस प्रकार बन ही जाती है कि वह सुनता हुआ भी नहीं सुनता है और बोलता हुआ भी नहीं बोलता है। जब ऐसी स्थिति बन जायतो समझिये कि अपने आत्मा के दर्शन का, आत्मा के रुचने का उसे दृढ़ अभ्यास बना है, और वह विशिष्ट तत्त्वाभ्यासी बन चुका है। जब तक ऐसी स्थिति नहीं बनती कि सुनते हुए भी कुछ नहीं सुन रहे। , बोलते हुए भी कुछ नहीं बोल रहे, ध्यान उस एक चिदानंदमय प्रभु परमेश्वर पर है तो समझिये कि अब हमारा कल्याण निकट है।