वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1581
From जैनकोष
यतो व्रताव्रते पुंसां शुभाशुभनिबंधने।
तदभावात्पुनर्मोक्षो मुमुक्षुस्ते ततस्त्यजेत्।।1581।।
व्रत और अव्रत, शुभ और अशुभ दो प्रकार के बंधों के कारण हैं, अर्थात् व्रत परिणाम से तो शुभ प्रकृतियों का बंध होता है और अव्रत परिणाम से अशुभ प्रकृतियों का बंध होता है, किंतु मोक्ष शुभ अर्थात् पुण्य, अशुभ अर्थात् पाप दोनों प्रकार के कर्मों का अभाव होने से होता है। इस कारण मुक्ति का इच्छुक मुनि इन व्रत और अव्रत दोनों को ही त्यागता है अर्थात् इनमें करने न करने का अभिमान नहीं करता। ज्ञानीपुरुष व्रत भी पाल रहा है, पर व्रत के करने में उसे ऐसा आग्रह नहीं है जैसा कि वह स्वरूप में अपना आग्रह बनाये हुए है कि मैं चैतन्यस्वरूप हूँ। इस तरह का हठ नहीं है कि मेरा व्रत करना ही काम है, व्रत ही मेरा सर्वस्व है। वह तो परंपरा के कारण व्रत करता है पर व्रत में आत्मीयता का आग्रह नहीं रखता है। और अव्रत में तो रहेगा ही क्या? तो ज्ञानी पुरुष पुण्य तथा पाप दोनों प्रकार के भावों से रहित केवल ज्ञानमात्र अपने को निरखता है और उस ही ज्ञानस्वरूप में आत्मवैभव का आग्रह रहता है।