वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1582
From जैनकोष
प्रागसंयममुत्सृज्य संयमैकरतो भवेत्।
ततोऽपि विरमेत्प्राप्य सम्यगात्मन्यवस्थितिम्।।1582।।
अब अव्रत का, असंयम का त्याग कर संयम में अनुरक्त होवे, पश्चात् सम्यक भली प्रकार से जब आत्मा में अवस्थित बनने लगे तो उस संयम से भी विरक्त हो जाय। त्यागमार्ग की ऐसी विधि है कि पहिले तो तत्त्वज्ञानी बने, फिर असंयमभाव को त्यागे, संयमभाव को ग्रहण करे और जब उस संयमी जीव के ऐसी दृढ़ अवस्थित हो जाय आत्मा में कि आत्मानुभव समय-समय पर होता रहे। आत्मा में मग्नता बनने लगे तो फिर वह संयम को ही खोजकर संयम और असंयम दोनों प्रकार के विकल्पों से छुट्टी प्राप्त करे, त्याग की विधि यह है, न कि कोई ऐसा सुनकर कि शुभ भाव का भी छोड़ना बताया है, अशुभ भावना का भी जोड़ना बताया है। तो कम से कम पहिले एक से निपट लें, याने शुभ भाव से निपट ले बाद में अशुभ भाव से निपटने की कोशिश करेंगे। पहिले असंयम का अर्थात् अशुभ भाव का त्याग बताया है। जब आत्मा में ऐसी स्थिति हो जाय कि आत्मा में मग्न रह सके तो फिर वह संयम भाव का परित्याग करे, ऐसा परित्याग क्या करनाहै? जब आत्मा की ऐसी उच्च स्थिति बन जाती है तो संयम के विकल्प भी उनके छूट जाया करता है।