वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1584
From जैनकोष
अभेदविद्यथापंगोर्वेति चक्षुरचक्षुषि।
अंगेपि च तथा वेत्ति संयोगाद्दृश्यमात्मन:।।1584।।
भेदविन्न यथा वेत्ति पंगोश्चक्षुरचक्षुषि।
विज्ञातात्मा तथा वेत्ति न काये दृश्यमात्मन:।।1585।।
जैसे ऊपर उस अज्ञान की वृत्ति समझाने के लिए अंधे लंगड़े का दृष्टांत दिया है जाता कि लोग चलते हुए अंधे को निरखकर दोनों ही बातें अंधे में मान बैठते हैं कि यह नेत्रों से देखता भी है और जानता भी है। लेकिन जिसे भेदविज्ञान हुआ है, लंगड़े और अंधे के स्वरूप में जानकारी हुई है वह यह समझता है कि लँगड़ा देखता है, रास्ता बता रहा है और अंधा अपने शरीर से चल रहा है, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष शरीर में और आत्मा में भेदविज्ञान किए हुए है तो वह भली प्रकार जानता है कि देह की क्रिया देह में होती है और आत्मा का भाव आत्मा में होता है। वह आत्मा की बात को देह में नहीं लगाता, किंतु यथार्थ समझता है कि जो जाननहार है सो तो आत्मा है और जो रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है वह सब अनात्मा है। ऐसा भेदविज्ञान किए हुए है, सो इस संबंध में भी नि:शंक होकर यथार्थ जानता है कि जानन देखनहार तो आत्मा है, शरीरनहीं है। यों अपने-अपने स्वरूप की दृष्टि अपने-अपने पदार्थ में है, ऐसा ज्ञानी पुरुष जानता है और ज्ञानीपुरुष इसी सम्यग्ज्ञान के प्रताप से अंतरंग में प्रसन्न रहा करता है। हम आपको भी चाहिए कि धर्म के लिए इतना परिश्रम करते हैं तो यह भी समझ लें कि हमारा धर्म क्या है, हम क्याहैं? अपने स्वरूप का परिचय होगा तो धर्मपालन उनका सही होगा और सुगम होगा। हमें चाहिए कि भेदविज्ञान के प्रयत्न में अधिकाधिक लगें, जिससे भिन्न वस्तुवों को भिन्न जानकर अपने आपको शांति में परिणमा सकें।