वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1587
From जैनकोष
देहात्मदृग्न मुच्येत चेज्जागर्ति पठत्यपि।
सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्येत स्वस्मिन्नुत्पन्ननिश्चय:।।1587।।
जिस देह की आत्मा की दृष्टि है वह पुरुष मिथ्यादृष्टि है। बहिरात्मा है, वह यदि जानता है, पढ़ता हे तो भी कर्मों से नहीं छूटता।धर्मपालन के लिए सबसे बड़ी मूल बात यह है कि शरीर में आत्मबुद्धि न होना। शरीर से भिन्न निराला ज्ञानानंदस्वरूप मैं हूँ―यह बात अगर प्रतीति में आये तो धर्मपालन हुआ समझिये। और यही बात प्रतीति में नहीं है। कभी किसी भावना से श्रावक के योग्य तपश्चरण करे। साधु के योग्य तपश्चरण करे तो करे, पर भीतर में जिसने आत्मस्वरूप का स्पर्श नहीं किया वह कितने ही व्रत, तप, उपवास आदि करे पर उसका मोक्षमार्ग नहीं बन सकता। कारण यह है कि कर्मों की निर्जरा होती है अपने आपके निर्लेप स्वरूप का अनुभव करने से। अपने उस ज्ञानानंदमात्र स्वरूप का प्रत्यय करने से कर्म हटते हैं। जहाँकर्मों से निराला केवल ज्ञानप्रकाशमात्र अपने आपको माना तो जब निर्लेप अपने उपयोग को कर लिया जाय तो कर्मनिर्जरा होती है, पर उपयोग में ऐसा निर्लेप ज्ञान न कर सकने से उसकी देह पर बहुत दृष्टि रहती है। इस देह की ममता के कारण अपने ही शरीर को आराम से रखना चाहते हैं, दूसरे का उपकार करने की बात ही नहीं सोचते। इस देह में कितनी आसक्ति है? इंद्रिय के साधनों में ऐसी रुचि है कि चाहे सर्वस्व अर्पित हो जाय पर इंद्रिय के विषयों की पूर्ति होना ही चाहिए ऐसी बुद्धि लगी है। वे पुरुष धर्मपालन नहीं कर सकते। धर्म नाम है आत्मा के स्वभाव का। स्वभाव हे ज्ञान, किंतु उसका पता नहीं है तो कर्मों की निर्जरा कहाँसे हो? उन कर्मों के निमित्तभूत पदार्थों की उपेक्षा कर देवे और अपने स्वभाव की आराधना में लगे तो कर्मों की निर्जराहै। जिस पुरुष को देह में आत्मा की बुद्धि है वह चाहे पढ़े, तपश्चरण करे, भजन पाठ करे, धर्म के नाम पर बड़े अनशन आदिक भी करे तो भी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती, किंतु जो तत्त्वज्ञानी पुरुष है, जो अपने आपको जाने कि यह मैं आत्मा हूँ, ऐसी बुद्धि जो रखता है वह सोया हुआ भी जागृत है। एक सम्यक्त्व की महिमा बतायीहै। यहाँ ऐसा जानना कि जिसे अपने आत्मा के स्वभाव का परिचय हुआ है वह सो भी रहा है तो इंद्रियों से सो रहा है, पर भीतर में ज्ञानप्रकाश बराबर बनाहै। यों समझिये कि जिसे जो चीज इष्ट है, जिसके मन में जो बात समाई है, सुप्त अवस्था में भी उस चीज का ज्ञान बना रहता है, उसे स्वप्न में भी वह चीज दिखती है।
तत्त्वज्ञानी पुरुष को अपने आपका स्वरूप समाया है।उसकी धुन है अपने को केवल ज्ञानरूप रखने की। जिसका ऐसा प्रयत्न है ऐसे पुरुष के भीतर में तत्त्व का ज्ञानप्रकाश बराबर बना रहता है। क्योंकि उसकी धुन है ना? तो उस ज्ञानप्रकाश के कारण वह मोक्षमार्ग में बराबर चलता रहता है। और यों समझिये कि भावना की दृष्टि में क्षोभ होता है। तो तत्त्वज्ञान की बात जिसके चित्त में है वह समझों कि संसार के दु:खों से दूर हो गया और जिसके इस देह में ही आत्मबुद्धि लगी है वह अच्छा खाना, अच्छा पहिनना, बड़ा-बड़ा शृंगार करना, दूसरों का दिल दु:खाना, दूसरों से बड़ा कहलवाना, अपने आपको बड़ा जाहिर करना आदिक प्रवृत्तियाँ करता है। जिसे इस शरीर में ही आत्मा की बुद्धि है वह धनी बनने की अपनी धुन रखता है। पर पुण्य के उदय में धन आता है। और पुण्य के उदय में जो धन आता हो सो ठीक है, पर में इस लोक में सबसे बड़ा वैभववान बनूँ, धनी बनूँ, ताकि लोग समझें कि यह बहुत बड़ा आदमी है। तो इस लक्ष्मी का आना यह कोई पाप नहीं, मगर उसकी धुनि बनाये, उसकी आशा रखे, अधिकाधिक धनी होने की चाह करे तो वह पाप का परिणाम है। पहिले तो यह देखिये कि धन की चाह रखने में कुछ आनंद आया क्या? जब उस धन की चाह रखा तब आकुलित रहा और जब धन मिल गया तब भी आकुलता ही रही। जब धन आ गया तो और भी चाह बढ़ गयी। जो धन मिला है उसकी चाह नहीं रही बल्कि आगे की चाह हो जाती है। चाह का होना और चीज का मिलना―ये दोनों ही बातें एक साथ कभी नहीं हो सकती हैं। जब चाह और चीज दोनों का मेल नहीं बनता तो उसका आनंद ही क्या है? तो चाह में तो आकुलता ही रहा करती है। तो इन जीवों ने अपना लक्ष्य बिगाड़ा है। लक्ष्य होना चाहिए था यह कि मनुष्यभव जो पाया है चौरासीलाख योनियों में भ्रमण करके नाना देह पार करके यह मनुष्यभव पाया है? आप सभी ने कल ही शायद अजायबघर में जाकर देखा होगा। कितनी-कितनी तरह के जीव उसमें देखने को मिले होंगे। उसको देखकर यह भाव आना चाहिए कि यह जीव कैसे-कैसे शरीरों में बंधा फिरता है? इन नाना प्रकार की देहों में बसने का मूल कारण है अज्ञान।
एक इस मनुष्यभव में अपनी सम्हाल न कर सका तो यह जीव इस प्रकार के विचित्र शरीरों को धारण करता फिरता रहेगा। तो मनुष्य जन्म जो पाया है वह किसलिए पाया है? इसीलिए तो पाया है कि अपना मोक्षमार्ग बना लें। विषयसाधनों से इस जीव को मिलता क्या है? वृद्ध हो जाते हैं और फिर पछतावा ही हाथ रहता है, मरणकाल आ जाता है और फिर पछताना पड़ता है। तो भोगों के जुटाने में, धन के जुटाने में, संतानों के मिलाने में आखिर इन सब समागमों में इस जीव को अंत में मिलता क्या है, सो खूब सोच लो। इनके लिए ही मनुष्य की जिंदगी नहीं है, यह चित्त में रहना चाहिए कि भोगों के साधन जुटाने के लिए हमारा जीवन नहीं है। यह मनुष्यजीवन इसलिए है कि हम अपने स्वरूप को पहिचानें और उसकी ही दृष्टि रखकर धर्मपालन करें। लक्ष्य तो अपना यह होना चाहिए। फिर चूंकि गृहस्थी है सो आजीविका भी चाहिए तो उसका एक साधन बनने पर आजीविका का साधन बनाकर मन में यह लोभ न करें कि मुझे इतने खर्च बिना काम नहीं चलता। वहाँ तो यह विचार रखना चाहिए कि कैसा ही कितना ही धन आता है उसके अनुसार हम अपनी व्यवस्था बनायेंगे। हमें दूसरों से अपना बड़प्पन नहीं जताना है। उसमें कुछ भी तो तत्त्व नहीं रखा है। अपना लक्ष्य तो यह होना चाहिए कि इस जीवन का लाभ उपयोग धर्मपालन के लिए करना है, भोगसाधनों के लिए नहीं, ऐसा निर्णय हो और फिर जो आय हो उसके अनुसार अपनी आजीविका बनायें। यह सोचना भ्रम है कि मेरा इतने बिना काम नहीं चल सकता। जिनका चलता है उनको देखकर अपना भ्रम दूर कर लें, पर चित्त में जो हठी बना है, लक्ष्य बिगाड़ा है, उससे आकुलता मची है। यदि यह लक्ष्य बन जाय कि हमारा मनुष्य जीवन तो जैन दर्शन की सेवा के लिए है, अपने आत्मस्वरूप की उपासना के लिए है ऐसी दृष्टि बन जा यतो सब संकट हमारे दूर हो जायेंगे। जब तक अपने कल्याण की धुनि नहीं बनती तब तक उसे सब आकुलताएँ ही दिखती हैं। तो बतलाते हैं कि देह में जब तक आत्मबुद्धि है तब तक यह जीव चाहे जगे, चाहे पढ़े, चाहे तपश्चरण करे, कुछ भी करे तो भी मुक्त नहीं होता। परंतु तत्त्वज्ञानी पुरुष को सोई हुई अवस्था में भी जागृत सा समझिये याने उसे अपने आत्मज्ञान का पूरा प्रकाश है, यह तो अपने-अपने उपादान की बात है। जो जैसा उपादान लिए हुए है वह वैसा ही आगे परिणमता है, वह सोया हुआ हो चाहे जगा हुआ हो।