वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1594
From जैनकोष
मुच्येताधीतशास्त्रोऽपि नात्मेति कल्पयन्वपु:।
आत्मन्यात्मानमन्विष्यन् श्रुतशून्योऽपि मुच्यते।।1594।।
कोई पुरुष ऐसी ही प्रतीति बनाये हो कि शरीर को निरखकर शरीर में ही ‘यह ही मैं आत्मा हूँ’ इस प्रकार कोई अपना अभ्यास बनाये हो ऐसा कोई अपने को जानता हो तो उसे मिथ्याबुद्धि वाला कहो, बहिरात्मा कहो। ऐसा बहिरात्मा पुरुष यदि अनेक शास्त्र भी पढ़ जाय, अनेक शास्त्रों का उसे परिज्ञान भी हो जाय तो भी वह मुक्त नहीं हो सकता। मुक्त तो मुक्ति की पद्धति से ही हुआ जा सकताहै।आत्मा का ज्ञान करें और उस ही आत्मा में रम जायें। यही है मोक्ष का उपाय। इसके विरुद्ध शरीर में ही ‘यह मैं हूँ’ ऐसी दृढ़ प्रतीति बन जाय तो बाह्य में कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर लें, कितने ही मत-मतांतर कर लें तो भी वह कर्मों से नहीं छूटता। और एक ऐसा पुरुष जो शास्त्रों में निष्णात नहीं है, विद्वान नहीं है लेकिन आत्मा में ही आत्मा को जानता हे, मानता है यह मैं आत्मा हूँ, यह निर्दोष है, अतींद्रिय है, कल्पनाओं से परे है, विशुद्ध चैतन्यमात्र है। ऐसा यह मैं अमूर्त, निर्लेप, ज्ञानप्रकाशमात्र आत्मा हूँ इस प्रकार जिसने अपना ज्ञान कर लिया है वह मुक्त हो ही जाता है। इसका कारण यह है कि शास्त्रों का नाना प्रकार का परिज्ञान तो आत्मज्ञान के लिए है।और यह आत्मज्ञान जिसने सहज प्राप्त कर लिया, विद्याओं का विशेष अभ्यास कर लिया तो उसने फल पा लिया। अब शास्त्र पढ़ने से क्या फल रहा? तो जो आत्मतत्त्व का अनुभव कर ले उसकी तो मुक्ति अवश्य है। चाहे उसने शास्त्राभ्यास किया हो अथवा न भी किया हो, पर जो अपने आत्मा के निजानंद स्वरूप को नहीं जानता वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। इससे हमको यह शिक्षा लेनी है कि हम आत्मज्ञान से शून्य रहेंगे तो हम कुछ भी धर्म नहीं कर सकते। इसका यत्न करें, और उस यत्न के लिए ऐसा निर्णय बनायें। दूसरा कोई भी आत्मा मेरा कुछ नहीं है, सब मायाजाल है। सभी मुझसे अत्यंत―पृथक् हैं, ऐसा निर्णय बनायें जिसके प्रताप से पर के विकल्प हटेंगे और आत्मा अपने आपमें अपने आपको जान जायगा।