वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1595
From जैनकोष
पराधीनसुखास्वादनिर्वेदविशदस्य ते।
आत्मैवामृततां गच्छन्नविच्छिन्नं स्वमीक्षते।।1595।।
हे आत्मन् ! यदि तू पराधीन सुख का स्वाद लेने से विरक्त हो गया है ओर इस वैराग्य के प्रसाद से तेरी बुद्धि निर्मल बन गई है तो समझ ले कि अब यह आत्मा अमूर्त पाने को प्राप्त होता हुआ निरंतर बिना विच्छेद के अपने आपको देखता है, अपने आनंद को भोग सकता है। प्रयोजन यह है कि आत्मा की विशुद्धि, आनंद का अनुभव तब तक नहीं हो सकता जब तक इंद्रिय के विषयों में प्रीति बनी रहे, क्योंकि इंद्रिय के विषयों में प्रीति में उपयोग बाहर में रहा करता है। बाहर में दृष्टि गई तो अपने में क्या मिला? खुद ज्ञानानंदस्वरूप हे लेकिन जब उपयोग अथवा दृष्टि बाहर में चली जाय तो फिर खुद तो रीता हो गया। खुद में अब वह क्या अनुभव करेगा? और जो पुरुष इन बाह्यपदार्थों में सुख नहीं समझता, परवस्तुवों के प्रति विरक्ति का परिणाम है, अपने आपको अमूर्त ज्ञानप्रकाश अनुभव कर चुका तोसमझ लीजिए कि वह तो अमृत पी चुका, अर्थात् उसे यह दृढ़ प्रतीति हो गई कि मैं अविनाशी हूँ, मैं कभी नष्ट नहीं होता, सबसे निराला हूँ। अब उसे काहे की आकुलता? वह अमृत तत्त्व को पी चुका है ऐसा समझना चाहिए। अर्थात् वह अमर हो चुका है, जन्ममरण से रहित हो चुका है। अभी नहीं जन्म मरण से रहित हुआ जिसके जन्म मरण का विनाश नियम से होगा उसे यह कह दिया जाता कि वह तो जन्ममरण समाप्त कर चुका, इसमें कोई संदेह नहीं।