वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1600
From जैनकोष
अविद्यावासनावेशविशेषविवेशात्मनाम्।
योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेत: कुरुते स्थितिम्।।1600।।
आत्मा के स्वरूप को यथार्थ कोई जान भी लेता है और उस ज्ञान को अपने में जोड़ता भी रहता है, ध्यान को एकाग्र करता भी रहता है इतने पर भी अनादिकाल से जो अविद्या लगी आयी थी उस अविद्या के नष्ट होने पर भी उसकी लगार वासनारूप में एक ऐसी कठिनता उत्पन्न कर देते हैं कि एक बार प्राप्त किया हुआ तत्त्व भी अपने उपयोग से निकल जाता है। लोक में तत्त्व केवल इतना है कि समस्त परद्रव्यों से अपना उपयोग हटे और एक परमविश्राम आए। वहाँ ही तत्त्व अपने को विदित होता है। संसार में जितने भी समागम मिले हुए हैं वे चेतन समागम हों अथवा अचेतन समागम हों, अर्थात् परिवार संबंधी इष्ट मित्रजन हों, अथवा धन संपदा हो, सभी समागम अपने से भिन्न हैं और अपने से नियम से जुदा होंगे। इसमें कोई संदेह की बात नहीं। अतएव इसमें कोई भी संदेह नहीं कि जो समागम अपने को प्राप्त होते हैं वे आकुलता उत्पन्न करने के लिए प्राप्त होते हैं। तभी तो बड़े-बड़े तीर्थंकर चक्रवर्ती जन जिस क्षण उनके वैराग्य जगता है समस्त वैभवों को तृण की नाई त्याग देते हैं, उन वैभवों को अपने उपयोग में स्थान नहीं देते। और ऐसा जो अपने हित में सावधान रहते हैं उन्होंने ही वास्तव में तत्त्व पाया है, और वहाँ ही उनकी रक्षा होती है। यदि असावधानी की गई तो अपने आपको जो स्वरूप प्राप्त है वह भी नष्ट हो जाता है। यद्यपि यह सिद्धांत का कथन है कि जिसे सम्यक्त्व एक बार उत्पन्न हो गया उसका नियम से मोक्ष होगा ठीक है यह बात, लेकिन यह भी बात सिद्धांत में बताया है कि सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद यदि सम्यक्त्व नष्ट हो जाय तो वह कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल एक संसार में रुलता रहता है। इतने काल में अनंत भव हो जाते हैं। यों समझिये कि जैसे एक अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल आता है, अवसर्पिणी काल में 24 तीर्थंकर होते हैं और उत्सर्पिणी काल में भी 24 तीर्थंकर होते है चतुर्थ काल में। ऐसे-ऐसे अनगिनते काल व्यतीत हो जाते हैं, इतना अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल है। तो सम्यक्त्व छूटकर इतने काल तक तुम्हें रुलते रहना इष्ट हे क्या? यदि इष्ट न हो तो कर्तव्य यह हे कि सम्यक्त्व प्राप्त होने पर फिर उससे न च्युत हों और अपने ज्ञान और तत्त्व के अभ्यास में लगे रहें।