वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1610
From जैनकोष
अपारमतिगंभीरं पुण्यतीर्थं पुरातनम्।
पूर्वापरविरोधादिकलंकपरिवर्जितम्।।1610।।
यह श्रुतज्ञान कैसा है जिसका चिंतन भगवान की आज्ञा की प्रमुखता से यह ज्ञानी पुरुष कर रहा है। यह श्रुतज्ञान अपारहै। जब सारी विद्याएँ इस श्रुतज्ञान में हैं तो इसका पार कौन पा सकता है? व्याकरण, वेद, ज्योतिष आदिक समस्त विद्याएँ इस श्रुतज्ञान में गर्भित हैं। किसी भी विद्या का पारगामी पुरुष यहाँ कोई नहीं है। तो जब एक-एक विद्या अपारहै तो जहाँ असंख्याते विद्याएँ भरी हुई हैं ऐसा श्रुतज्ञान अपारहै, क्योंकि जिसके शब्दों का पार अल्पज्ञानी पा ही नहीं सकता है। श्रुतज्ञान से जो कुछ जाना उसे सही रूप में बताने के लिए कोई नाम नहीं है। अभी आत्मा का भी कोई नाम नहीं है। आत्मा में जो स्वरूप बसाहै, जो स्वभाव है, गुण पर्याय हे, जो कुछ है उसे आप किसी शब्द से कह नहीं सकते। ज्ञान तो है, मगर शब्दों से नहीं कह सकते, क्योंकि इसके जितने नाम हैं वे सब नाम एक-एक बात बतलाते हैं। जैसे जीव कहा तो जो प्राणों से जीवे सो जीव, सारी बात नहीं आ सकती। आत्मा कहा तो जो निरंतर जाने सो आत्मा। बहुत बात तो न कहेंगे। कोई दु:खी होता है तो पदार्थ के कुछ अंशों का नाम लेकर होता है। तो वह श्रुतज्ञान अपार है और गंभीर है किंतु उस श्रुतज्ञान के अर्थ की थाह कोई नहीं पा सकता। श्रुतज्ञान के शब्दों में कितना अर्थ बसा है, इसकी थाह कोई नहीं ले सकता। जब आजकल की कविताओं में कितने भी भाव भरे हुए हैं जिनको जानकर सुनने वाला हर्ष विभोर हो जाता है तब फिर श्रुतज्ञान के शब्दों का कौन पार पा सकता है? इसलिए श्रुतज्ञान गंभीर है और यह श्रुतज्ञान पवित्र तीर्थ है। इस श्रुतज्ञान का सहारा लेकर जीव संसार से पार होता है। जो कोई भी साधु हों उन्हें केवलज्ञान पहिले हुआमगर केवलज्ञान के पहिले श्रुतज्ञान का आलंबन था। हर एक निर्वाण पाने वाले पुरुष को श्रुतज्ञान का सहारा रहता है, यह ऐसा पवित्र सहारा है कि जहाँ लग जाय तो संकट दूर हो जाये। यह श्रुतज्ञान पुण्य तीर्थ है। इसको श्रुतज्ञान कहते हैं क्योंकि इसमें पाप नहीं है, निर्दोष है, इस कारण से जीव को तारने वाला है। भेदविज्ञान की बात श्रुतज्ञान में आये, पुद्गल आदिक परद्रव्यों से अपने को न्यारा समझे, निर्लेप समझे ऐसी प्रेरणा इस श्रुतज्ञान ने दी।यदि श्रुतज्ञान न होता तो हम आप लोग कैसे मोक्षमार्ग में लग पाते? कौन दीपक दिखाने वाला था, इसलिए श्रुतज्ञान पुण्य तीर्थ है। इसके समान और पवित्र चीज क्या हो सकती है?
घर के लोग भी दगा दे जाते हैं, और वे परपदार्थ हैं, वे तो अपने में अपना परिणमन करेंगे। यहाँ किसी का किसी से कोई संबंध नहीं है। हमारा हित तो केवल यह श्रुतज्ञान कर सकता है। जिसने आत्मा का स्वरूप सिखाया, आत्मा के स्वरूप में बसने की जिसने प्रेरणा दी श्रुतज्ञान के प्रताप से समस्त संकल्प विकल्पों से हटकर अपने आत्मा में लीन हो सकते हैं। तो इस श्रुतज्ञान की महिमा को कौन कहे? पवित्र तीर्थ हे श्रुतज्ञान और यह पुरातन है, अनादि प्रवाह से चला आ रहा है। श्रुतज्ञान किसी ने बनाया नहीं। श्रुतज्ञान किसी ने बनाया हो ऐसा नहीं है, अनादि प्रवाह से बराबर चला आया, इस भरत क्षेत्र में चौथे काल से तीर्थंकर को परंपरा से आया है। इस भरत क्षेत्र में अनंत तीर्थंकर हो गए, अनेक प्रवाह से यह जैन धर्म अविच्छिन्न धारा से चला आ रहा है।थोड़ा बीच में भोगोपभोग के समय धर्म का विच्छेद हो जाता है। चौथे काल में तीर्थंकर ने भी जो श्रुतज्ञान बताया है, दिव्यध्वनि में उपदेश किया है वह भी नया नहीं है किंतु वैसा ही उपदेश पहिले के अनंत तीर्थंकरों ने किया है, क्योंकि जैसी वस्तु है उस प्रकार का उपदेश है। प्रत्येक वस्तु अपना स्वरूप रखती है,जो उसका स्वरूप है सो ही स्वरूप भूतकाल में था, सो ही अब है, सो ही आगे रहेगा। और स्वरूप का व्याख्यान है दिव्यध्वनि में इसलिए किसी भी समय के किसी तीर्थंकर की दिव्यध्वनि हो, सबका एक सा प्रतिपादनहै। जो विश्व को उपदेश दे यह दिव्यध्वनि का काम है, तो यह श्रुतज्ञान पुरातन है, अनादि से चला आया है। इसे किसी ने अपनी बुद्धि से बनाया नहीं है। अनंत तीर्थंकरों ने इस प्रकार का वर्णन किया है। पूर्वा पर विरोध से यह रहित है। समस्त श्रुतज्ञान में दृष्टि निराली है, पर किस दृष्टि से यह कथन है, यह प्रतिपादन न्यारा-न्यारा है, लेकिन विरोध नहीं है कि कभी कुछ कहा हो कभी कुछ कहा हो। जैसा कि अन्य जगह विरोध होता है―कहीं तो वर्णन कर दिया कि प्राणियों का घात न करना चाहिए और कहीं वर्णन कर दिया कि देवताओं के लिए प्राणियों को होम देवे तो उसमें हिंसा नहीं है। तो ऐसी बात आगमशास्त्र में नहीं है किंतु दृष्टि नहीं लगाते इसलिए विरोध जँचता है। किसी दृष्टि से कुछ भी कहा हो वैसी ही दृष्टि लगाकर उस सबका अर्थ लगा लेना चाहिए।
समंतभद्राचार्य ने शास्त्र के विषय में बताया है कि जो आप्त द्वारा कहा गया हो वह शास्त्र है। आप्त मायने वीतराग सर्वत्र। जो वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा गया हो वह शास्त्र है। हम कैसे निर्णय करें कि हमारा यह शास्त्र मूल में सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया है। उसका हम विषय देखें, स्वरूप देखें, कहीं विरोध न आता हो, कहीं स्वरूप के विरुद्ध बात न हो तो समझना चाहिए कि यह कथन सर्वज्ञदेव की परंपरा से चला है, जो आप्त द्वारा कहा गया हो उसे शास्त्र कहा है। वही शास्त्रज्ञान है और वह अनुल्लंघ है, उसका कोई उल्लंघन, खंडन नहीं कर सकता। कोई जबरदस्ती खंडन करे तो उसकी बात और है, मगर कोई युक्तियाँ लगाकर सही ढंग से इसका खंडन कर सके ऐसा कोई नहीं है। जैसे एक कहावत हे कि एक पंचायत हो रही थी। उस पंचायत में एक सवाल आ गया कि 40 और 40 मिलकर कितने होते हैं? तो गाँव का मुखिया बोल उठा कि 40 और 40 मिलकर 60 होते हैं। सभी ने कहा―कहाँ 60 होते हैं, 80 होते हैं। तो मुखिया बोला कि अगर 40 और 40 मिलकर 60 न हों तो हमारे घर जो 4-6 भैंस हैं सो दे देंगे। यह बात उसकी स्त्री को पता पड़ गई। स्त्री चिंतित हो गयी, सोचती है कि अब तो भैंस भी चली जायेंगी, कैसे काम बनेगा? तो मुखिया बोला―अरी बावली, जब हम यह कहेंगे कि 40 और 40 मिलकर 80 होते हैं तभी तो हमारी भैंस जावेंगी। हम तो 60 ही कहेंगे, फिर कोई कैसे हमारी भैंसे ले सकेगा? तो आग्रह की बात तो अलग है, मगर कोई युक्ति लगाकर जैनशास्त्रों का खंडन कर दे ऐसा नहीं हो सकता। तो यह श्रुतज्ञान अनुल्लंघ है और यह सबका हित करने वालाहै। इसमें सर्वत्र अहिंसा का उपदेश है, इससे मनुष्यों को लाभ होता ही है, क्योंकि उसको सुनकर वे अहिंसा को पालेंगे और मोक्षमार्ग में बढेंगे। यह श्रुतज्ञान समस्त कुनयों का खंडन करने वाला है ऐसा यह श्रुतज्ञान है जिसका चिंतन आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष कर रहा है। वह ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है कि भगवान सर्वज्ञदेव ने जो वचन कहे हैं वे सब बिल्कुल सत्य हैं और वस्तुस्वरूप के अनुकूल हैं।