वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1615
From जैनकोष
स्थित्युत्पत्तिव्ययोपेतं तृतीयं योगिलोचनम्।
नयद्वयसमावेशात् साद्यनादि व्यवस्थितम्।।1615।।
श्रुतज्ञान उत्पादव्ययधौव्य करके संयुक्त है और योगियों का तीसरा नेत्र है। आगम नेत्र है साधुवों का। दुनिया के नेत्र चर्म के हैं, मगर साधुवों के नेत्र आगम हैं, तभी तो किसी भी बात का निर्णय करने के लिए कह बैठते हैं कि फलाने शास्त्र में देखो उस आधार से चले हैं। तो हम आपको आगम का एक बहुत बड़ा सहाराहै। आगम में जो मार्ग दिखाया है हम उस मार्ग से चलें। यह श्रुतज्ञान शास्त्र का प्रवाह अनादि भी हे और सादि भी है। ये शास्त्र जो चले आ रहे हैं, यह ज्ञानपरंपरा तो चली आ रही है वह सब अनादि से भीहै और उसकी शुरूवात भी है। महावीर स्वामी ने दिव्यध्वनि में इन शास्त्रों का वर्णन किया, पर महावीर स्वामी से पहिले तीर्थंकर और हुए, उन्होंने भी वर्णन किया और इस चौथे काल में पहिले और भी तीर्थंकर हुए उन्होंने भी वर्णन किया, यों श्रुतज्ञान प्रवाह रूप से अनादि से है किंतु अपने-अपने समय मेंतीर्थंकरों की दिव्यध्वनि से प्रकट हुए हैं। आदिनाथ स्वामी के समय में जो जैनशासन का प्रचार था वह उनके मुक्त होने के बाद, समय गुजरने के बाद विच्छिन्न हो गया, जैनशासन न रहा, धर्म के परिज्ञान का आचार विचार का लोप हो गया, तब फिर अजितनाथ तीर्थंकर हुए, उनकी दिव्यध्वनि में प्रकट हुआ। जैनशासन समय-समय पर तीर्थंकरों से प्रकट होता है। इसलिए जैनशासन सादि है किंतु उसकी परंपरा अनादि काल से बराबर चली आयी है, और अनादि है जैनशासन इसका साक्षात् प्रमाण यह हे कि जैनशासन में बताया गया है वस्तु का स्वरूप और वस्तुस्वरूप है उसमें जो जिसमें गुण और पर्याय की बात पायी जाय। उसका वर्णन भगवान ने किया है। तो जैनशासन वस्तु के स्वरूप का वर्णन करता है और वस्तु का स्वरूप सदा रहता है, चाहे उसको कोई जानने वाला हो, चाहे न हो, परवस्तु का स्वरूप कहाँचला जायेगा? वस्तु का जो स्वरूप है, स्वभाव है वही धर्म माना गया है। तो जैन धर्म, जैन शास्त्र ये अनादि काल से बराबर चले आ रहे हैं। तो द्रव्यनय की अपेक्षा तो यह श्रुतज्ञान, जैनशासन, इतना सब शास्त्रज्ञान, यह अनादिकाल से हैं और पर्याय दृष्टि से तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि से प्रकट हुए हैं इस कारण यह सब शासन सादि है। यह सब अंग पूर्व के रूप में बंटा है जिसमें सब विद्याएँगर्भित है। यह समस्त श्रुतज्ञान अनादि भी हे और सादि भी है।