वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1620
From जैनकोष
येनैते निपतंति वादिगिरयस्तुष्यंति योगीश्वरा:,भव्यायेन विदंति निर्वृंतिपदं मुंचंति मोहं वुधा:।
यद्बंधुर्यमिनां यदक्षयसुखस्याधारभूतं नृणाम्,तल्लोकद्वयशुद्धिदं जिनवच: पुष्या द्ववेकश्रियम्।।1620।।
ये जिनवचन आप सबको विवेक की श्री का पोषण करें। आचार्यदेव कह रहे हैं कि विवेकश्री का पोषण करने वाले चूंकि जिनवचन हैं अत: ये जिनवचन सब प्राणियों में विवेकश्री को पुष्ट करें। जिनवचनों के द्वारा ये बड़े-बड़े पर्वत गिर जाते हैं। ये जिनेंद्रदेव कैसे हैं कि ये जो छुद्रवादी पुरुष हैं उनके शासन को जीता है। कुमति नहीं कह सकते। जिसे वस्तु तत्त्व दृष्टि में आ गया है उसके लिए छोटा वचन भी पूरा प्रकाश ला देता है और जिसकी दृष्टि में वह तत्त्व नहीं आया हे तो बड़े-बड़े समझाने वाले उपदेश और वचन भी उसे मिलें तो भी वह देखता रहता हे कि यह क्या कह रहे हैं अथवा उसका उसे पता नहीं रहता। जैसे कि बड़े घने जंगल में किसी तरह छिपा हुआ शिखर आदिक दिख जाय तो उसे झट वह देख सकता है। यह ऐसे कारणों में जिनमें केवल पक्ष ही बनाहै। इस तरह के पक्ष बने हैं कि जिनके बीच गधा, शेर, खरगोश जैसे चित्र जहाँ खाली जगह है वहाँ वे चित्रित हो जाते हैं पर जिसको मालूम हो जाय कि यह हे चित्र उसको कार्ड देखते ही तुरंत दिखने लगता है। जिसे उसके विषय में कुछ मालूम नहीं वह तो पेड़ पौधे आदि ही देख पाता है, इनके सिवाय और कुछ उसे विदित नहीं होता। ऐसे ही जिसे अपने स्वरूप का भान हुआ है उसके लिए तो कोई छोटा सा शब्द भी बोला जाय तो उसकी दृष्टि बनाने में साधक बन जाता है। जिस बालक को स्वयं को कुछ तत्त्वबोध नहीं है किंतु वह भी अपनी तोतली भाषा में वाक्य को पढ़ ले तो वह भी इसकी सुधि दिलाने में कारण बन जाता है। तो जिसको अनुभव जगा है उसको आसानी से जब यह दृष्टि करे तब वह तत्त्व दिख जाता है। ऐसा वस्तुस्वरूप जिनकी नजर में आया है उनके ज्ञान द्वारा ये सब कुमत, एकांतमत कोई कैसा ही बहकायें तो वह झट जान जाता है कि ये सब मिथ्या हैं। और उसमें फिर ऐसे वचनों की सामर्थ्य प्रकट होती है कि कोई सिखाने वाला नहीं है तो भी इस शैली से बात बोल देगा जिससे उस कुमत का निराकरण हो। तो ये जिनवचनवादियों के कुमत का खंडन करने वाले हैं। इन वचनों के द्वारा योगीश्वर प्रसन्न रहते हैं। कोई पुरुष तो लाखों हजारों की संपत्ति जुड़ जाने पर प्रसन्न होते हैं पर उनकी प्रसन्नता ठहरती नहीं है, पर ये योगीश्वर इन वचनों के द्वारा ऐसी प्रसन्नता प्राप्त करते हैं जो अद्वितीय है। जिस धातु से प्रसन्नता शब्द बना है उसका अर्थ हे निर्मलता। मौज मानना यह प्रसन्नता का अर्थ ही नहीं है, सांसारिक मौजों में भी अप्रसन्नता है। मान लो कोई वैभव में कुछ मौज मान ले तो उसके साथ दु:ख, रंज, चिंता, घबडाहट, शंका, संदेह ये सब हुआ करते हैं।
एक नीतिग्रंथ में बताया हैकि कोई राजा किसी साधु के सामने से बड़े अभिमान से जा रहा था तो साधु ने कहा या साधु की तरफ से कवि कहता है कि हे राजन् ! तुम क्यों अभिमान करते हो? तुम चाहते हो अर्थ को अर्थात् धन को और हम चाहते हैं शब्दों के अर्थ को, मर्म को। तुम चाहते हो रेशम के वस्त्र तो हम चाहते हैं बलकल। तुम धनार्थी पुरुषों बीच रहने में प्रसन्न रहते हो तो हम शब्दार्थी पुरुषों के बीच में रहकर प्रसन्न रहते हैं। तो साधुजन अपने इस अर्थ के भाव में ज्ञान के अभ्यास में समता में प्रसन्न रहा करते हैं। तो ये जिनवचन योगीश्वरों की प्रसन्नता केकारण हैं और जिनके द्वारा जीव मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं ऐसे इन जिनवचनों की महिमा गायी जा रही है आज्ञाविचय धर्मध्यान में। आज्ञाविचय धर्मध्यान में ज्ञानीपुरुष भगवान की आज्ञा को प्रधान करके तत्त्व का चिंतन कर रहा है। जिनवचनों की प्रमुखता इसमें बतायी जा रही हैं।इन जिनवचनों को सुनकर पंडितजन संसार के मोह को छोड देते हैं। इन जिनवचनों से भेदविज्ञान की बात मिलती है। हम अपने आपमें अपने स्वरूप को खोज निकालते हैं। तो ये श्रुतज्ञान के वचनमोह को छुड़ाने में समर्थ हैं। ये जिनवचन संयमी मुनियों का संयम बढ़ाने वाले हैं, हितरूप हैं। ये श्रुतज्ञान के वचन पुरुषों के अविनाशी सुख के आधारभूत हैं। अपने आपमें अपने स्वरूप में बसे हुए आनंद का जो अनुभव करा दे वह ज्ञान अविनाशी आनंद का आधारभूत ही तो होता है। यों इस भव में और परभव में एक बड़ी प्रसन्नता को प्रदान करने वाला यह जिनेंद्र वचन है। सो ये जिनवचन भव्य जीवों के विवेकश्री को प्राप्त करें, ऐसा आचार्यदेव आशीर्वाद देते हैं। आत्मकल्याण में तत्त्वज्ञान की बड़ी महिमा है। जितने भी श्रावकधर्म के कार्य किए जाते हैं वे सब इस तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं। ये समस्त बाह्य व्यवहारधर्म इसी तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए है। ये जिनवचन हमारा हित करने हेतु है, इसलिए ये जिनवचन हम आप सबकी विवेक शोभा को पुष्ट करें। अब इस अधिकार में अंतिम श्लोक में उपसंहार कर रहे हैं।