वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1662
From जैनकोष
नामकर्मोदय: साक्षाद्धत्ते चित्राण्यनेकधा।
नामानि गतिजात्यादिविकल्पानीह देहिनाम्।।1662।।
अब नामकर्म की बात कह रहे हैं। नाम कर्म के उदय से जीव को नाना प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं। नामकर्म के अनेक प्रकार हैं और वे सब मिलकर 93 हो जाते हैं। नामकर्म की 93 प्रकृतियाँहैं। उन कर्मों में 93 तरह के शरीरों में विशेषता उत्पन्न करने की प्रकृति है। जैसे लोग कभी किसी पहाड़ पर जाकर, नदी पर जाकर कहते हैं―देखो कितना अच्छा प्राकृतिक दृश्य है, तो उस प्रकृति के मायने क्या? लोग कहने लगते कुदरत है।तो वह कुदरत क्या, प्रकृति क्या तो ये ही नामकर्म की 93 प्रकृति है ये ही कुदरत है।रंग-बिरंगे फूल फूल रहे हैं। रंग-बिरंगी पत्तियाँ लगी हुई हैं। कहीं ऊँचे पर्वत से झरने झर रहे हैं। वह दृश्य बड़ा सुंदर लगता है और कहते हैं―देखो यह प्राकृतिक दृश्य है। तो यह प्रकृति कौनसी है? वह प्रकृति है कर्म। उसका सीधा अर्थ लगा लें कि देखो उन कर्मों का उदय उन कर्मों का प्रभाव। और मोटे रूप से तो कर्मों के थोड़े भेद बताये, पर इन भेदों के भीतर और भी अनेक भेद हैं। जितनी तरह के रंग हैं, जितनी तरह के स्पर्श हैं उतने ही ये प्रकृति के फल हैं। सो ये प्रकृति की 93 प्रकृतियाँ हैं, इनका क्रम से वर्णन कर रहे हैं।
संसार में जीव के देह की जो नाना जातियाँदिख रही हैं, नाना तरह के देह देखने में आ रहे हैं ये देह की विचित्रताएँ नामकर्म के उदय का फल हैं। नामकर्म के भेद में प्रबल तो 4 जातियाँहैं, सो समस्त संसार में जीव के 4 बंटवारे हो गए। कुछ देह मनुष्यगति के कहलाते, कुछ देह देवगति के हैं, कोई नरक गति के और बाकी नाना प्रकार के देह तिर्यंचगति के हैं। फिर जाति प्रकृति के विकल्प उठे तो ये समस्त जीव 5 जातियों में बँट गए। एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचइंद्रिय। सो जिस-जिस जातिकर्म का उदय है वह जीव इस जाति में है। इनमें से तिर्यंच में 5 तरह के जीव एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचेंद्रिय हैं, पर नरक, मनुष्य और देव में पंचेंद्रिय हैं। तो जो दिख रहे हैं उनमें जो इंद्रिय की ओरसे विभक्तता है, कोई कानों वाले हैं, कोई आँख वाले हैं, किन्हीं के नाक ही है, आँख कान नहीं हैं, किसी के मुँह तक ही है, किसी के मुँह तक भी नहीं है। पेड़, पृथ्वी, जल आदिक ये जो शरीर की नाना विचित्रताएँ हैं ये जाति नामकर्म के उदय से हैं । यह विपाकविचय धर्मध्यान का प्रकरण है जिसमें ज्ञानी जीव कर्मों के फल का विचार कर रहा है। कैसे-कैसे कर्म के फल हैं। साथ ही वह यह अध्यात्मदर्शन भी कर रहा है कि ये सब फल कर्मफल हैं, मेरे स्वरूप नहीं हैं, मेरी चीज नहीं हैं। उनको परभाव समझकर उनसे भिन्न अपने आपके दर्शन का वह यत्न रखता है। अब शरीर की ओर से देखो तो किसी का औदारिक शरीर है, किसी का वैक्रियक, तैजस और कार्माण शरीर सभी संसारी जीवों के है। आहारक शरीर ऋद्धिधारी मुनियों के ही हो सकता है। ऐसी जो नाना तरह की शरीरों की रचनाएँहैं वे शरीर नामकर्म के उदय से हैं। इसी तरह उनके अंगोपांग भी होते हैं। दो हाथ, दो पैर, छाती, दो स्तन, नितंभ। 8 तो हैं ये अंग और अंगुली है, नासिका है, आँख है, कान है ये छोटे-छोटे सब उपांग कहलाते हैं। तो अंग और उपांगों की रचना एकेंद्रिय में तो होती नहीं इन अंगोपांगों की रचना दो इंद्रिय से शुरू होती है। अंगोपांग भी देखो तो कीड़ों में कितनी तरह के कीड़े हैं, कितनी विचित्रताएँ उन कीड़ों में दिखती हैं। फिर जितने भेद पाये जाते हैं उतनी ही प्रकृतियाँ हैं, पर उनका संग्रह नहीं किया जा सकता। कितने नाम लिए जायें? तो जो अंगोपांग की विभिन्नताएँदेखी जाती हैं वे अंगोपांग के फल हैं।
अब निर्माण भी देखो सभी का उस-उस ढंग से निर्माण होता है। कैसी प्राकृतिक रचना है कि कुम्हार भी अगर बनाये तो उसमें चाहे कुछ फर्क रह जाय, मगर प्रकृति की रचना देखो कि जहाँजो अंग बनते हैं वे सब बनते रहते हैं। तो यह निर्माण नामकर्म का उदय है। संस्थान देखो तो नाना तरह के हैं। हुंडक संस्थान तो अनगिनते हैं। कैसे पशुवों के संस्थान, कैसे पक्षियों के संस्थान। मनुष्यों में भी देखो नाना प्रकार के आकार बन गए हैं। तो यह आकार संस्थान नाम कर्म में है। हड्डी किसी की बहुत मजबूत है, किसी की बहुत कमजोर है ऐसे जो नाना प्रकार के संस्थान हैं वह संस्थान नामकर्म का फल है। इन सबको ज्ञानी जीव निरखकर दो निष्कर्ष बनाता है―एक तो यह कि ये सब कर्मफल हैं, ये परभाव, ये परतत्त्व मेरे से भिन्न है। दूसरा निष्कर्ष यह निकला कि जीव जरा भी अपनी गफलत करती है तो उसके ऐसे कर्म बंधते हैं कि जिसके उदय में ऐसी नाना दशायें होती हैं। विपाकविचय धर्मध्यान मेंयह ज्ञानी जीव कर्मों के फल का चिंतन कर रहा है कि कैसे-कैसे कर्मफल होते हैं। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये यद्यपि पद में होते तो हैं अपने आप लेकिन इन देहियों में ऐसा नीयत हो जाते हैं कि जितने मनुष्य है उन सबका स्पर्श एक साहै। मनुष्यों के शरीर मनुष्यों के ढंग के हैं, गाय, भैंस, घोड़ा, गधा आदि के शरीर उनके ढंग के हैं तो ऐसी जो एक रचना है ढंग की यह सब नाम कर्म का फल है। और भी देखो―जब जीव मरता है तो मरने के बाद जब दूसरी गति में जाता है तो रास्ते में गति तो वह मानी जायगी जिसमें जा रहा है पर जीव का आकार रहेगा वह जहाँमरकर जा रहा है। जैसे घोड़ा मरा और मनुष्य बनना है तो मरने के बाद जो चला सो मनुष्य गति का उदय आ गया पर सभी आकर जब तक उस जगह नहीं पहुँचा तब तक घोड़े का आकार रहेगा, आत्मा के प्रदेशों को मोड़ खाकर उसे जाना पड़रहा है। शरीर में भी ऐसी जो भिन्न रचनाएँहैं कि शरीर के कोई-कोई अंग अपने को ही दु:ख देते हैं। जैसे शेर तथा कुत्ता के दाँत और पंजे ये दूसरों को दु:ख देने के कारण बनते हैं, ऐसे ही भैंस के सींग व मनुष्य का तोंद उनको खुद को दु:ख देता है। किसी मनुष्य का तोंद बहुत बड़ा हो जाय तो वह खुद ठीक-ठीक बैठ नहीं सकता, शोच आदिक नहीं कर सकता, धोती नहीं पहिन सकता। तो उसका ही पेट उसको दु:ख देता है। जब अपघात नामकर्म का उदय है तो उसके उदय में अपने ही शरीर के अंग अपने को दु:ख देते हैं और जब परघात नामकर्म का उदय होता हे तो अपने ही अंग दूसरों को दु:ख देते हैं।
ये जो जीव के नाना देह दिख रहे हैं सो यह देह नाम नामकर्म का फल है। यह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उस कर्मफल से जुदा एक ज्ञानानंदस्वभाव मात्र हूँ। देखो इस स्वभाव की जो पकड़ कर ले उसका तो बेड़ा पार और जो स्वभाव की पकड़ न कर सका वह दु:ख भोगता ही रहता है। यह जीव खुद आनंद का सागर है, खुद सुख का समुद्र है, पर उस लायक यह जीव अपना उपयोग नहीं बनाता। अब यह बतलावो कि आप यहाँ बैठे हैं तो आपके घर की कोई चीज आपके साथ चिपकी है क्या? आपका जहाँ जो धरा है वह तो वही है, पर है, भिन्न हैं, मकान में मकान है, यहाँ आप अकेले ही हैं। और यहाँ भी यह शरीर आपके साथ नहीं है, वह दूसरा द्रव्य है, आप दूसरे द्रव्य हैं। तो शरीर न्यारा है, आप न्यारे हैं, मेरा फिर स्वरूप हे क्या? जब सबसे निराला हूँ, मैं शरीर व कर्मों से भी न्यारा हूँ मैं, और जो कर्मों के फल गुजर रहे हैं उनसे भी में न्यारा हूँ। शरीर से, कषायों से, इच्छा से, विचारों से, सभी तरंगों से जब मैं न्यारा हूँ तो वह मैं और हूँक्या? वह मैं हूँ ज्ञान और आनंद। उस पर जो रह जाये, विचलित न हो, हाय ये लोग कहाँ जायेंगे, इनकी कौन रक्षा करेगा? ये तो बड़े आज्ञाकारी हैं, ये जो तरंगे उठ रही हैं उसके माहात्म्य से यह आत्मा अपने परमात्मा के निकट नहीं बैठ सकता। और भी जो शरीर में नाना विभिन्नताएँ हैं―जैसे कोई शरीर दूसरों को आपात करने का कारण बनता है जैसे सूर्य विमान यह पृथ्वीकाय शरीर है, यह जीवों को गरमी उत्पन्न करने का कारण बनता है, कोई ठंड पैदा करने का कारण बनता हे, जैसे चंद्र की किरणें शीतलता पहुँचाती हैं। कोई जानवर घोड़ा आदिक भी ऐसे होते कि जिनका शरीर चमकीला होता है, किन्हीं का चमकीला नहीं होता है। तो ये विभिन्नताएँ सब नामकर्म के फल हैं, किसी के श्वासोच्छवास कैसा ही है, कोई किसी प्रकार गमन कर रहा है, कोई किसी तरह चलता, कोई किसी प्रकार चलता, पर सबकी गति न्यारी हैं। ये सब विभिन्नताएँ सब नामकर्म के फल हैं। जो कुछ दिख रहे हैं इन सबमें मेरा स्वरूप नहीं है। हालांकि उनमें जीव का संबंध न हो तो शरीर की ऐसी रचनाएँ कैसे बन जायें, ये सब हैं पौद्गलिक रचनाएँ। और भी विभिन्नताएँ नजर आती हैं। किसी के एक शरीर का एक ही जीव स्वामी है और किन्हीं के जीव का शरीर एक है और अनंत जीव उसके स्वामी है। एक श्वास लेता तो वही सब श्वास लेते, एक मरता तो वे सब मरते, एक जन्मता तो वे सब जन्मते। हम आपके शरीर का एक ही जीव मालिक है। किसी का शरीर सुहावना है, किसी का असुहावना है, किसी का शरीर स्थूल है, किसी का सूक्ष्म है, किसी का यश फैला है, किसी का अपयश फैलाहै। ये नाना तरह की जो रचनाएँ नजर आती हैं ये सब रचनाएँ नामकर्म का फल हैं। ऐसा विपाकविचय धर्मध्यानी जीव कर्मफल का चिंतन करता है।