वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1696
From जैनकोष
ततो विदुर्विभंगात्स्वं पतितं श्वभ्रसागरे।
कर्मणाऽत्यंतरौद्रेण हिंसाद्यारंभजन्मना।।1696।।
नारकियों को फल भोगते समय कृत पापों का स्मरण―आत्मा की सुध से रहित विषयों में आसक्त व्यसनी रौद्र परिणाम वाले पुरुष मरकर नरक में जन्म लेते हैं। वहाँ नरकों में जो नवीन नारकी उत्पन्न हुए हैं वे उत्पन्न होने के बाद बड़े शंकित हो करके विचारते हैं, क्योंकि अपरिचित स्थान है, भयानक रौद्र स्थान है तो वे शंकित होकर भ्रमण करते हैं और सोचते है―अरे यह भूमि कौनसी है जिस भूमि पर पड़ते ही हजारों बिच्छुवों के काटने जैसा दु:ख होता है, तो यह बात कोई गलत नहीं है। जैसे कभी अपने ही मकान में बिजली का करेंट छू जाय तो मकान में पैर धरना मुश्किल हो जाता है, तो वहाँ की जमीन ऐसी ही करेन्ट वाली निरंतर रहती है। तो यह भूमि कौनसी है और हम यह कौन हैं? और इन भयानक कर्मों ने, इन खोटे कर्मों ने लाकर यहाँ पटक दिया है। ज्ञानी पुरुष संस्थानविचय धर्मध्यान में लोक की रचना का विचार कर रहा है। लोक कितना बड़ा है, उसमें कहां-कहां कैसी-कैसी रचनाएं हैं? इस समय अधोलोक की रचना का विस्तार चल रहा है। फिर वे कुअवधिज्ञान से जानते हैं। जो उनके अवधिज्ञान हुआ है उस ज्ञान से वे जानते हैं। ये हिंसा आदिक के काम किये, बड़े आरंभ किये, उन आरंभों से उत्पन्न हुआ जो खोटा रौद्र परिणाम है उससे हम नरक समुद्र में आये।
आर्त रौद्रध्यान का फल―खोटे ध्यान 8 होते हैं। चार आर्तध्यान और 4 रौद्रध्यान। आर्तध्यान है इष्टवियोगज। इष्ट चीज का वियोग होने से जो उस इष्ट के वियोग के लिए तड़फन होती है, वेदना होती है उसको इष्टवियोगज कहते हैं। अनिष्टसंयोजक―अनिष्ट पदार्थ―कोई बैरी विरोधी किसी भी प्रकार से अनिष्ट हो, उसका संयोग हो जाय तो उसके वियोग के लिए जो ध्यान चलता है उसे अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान कहते हैं। वेदनाप्रभव आर्तध्यान―शरीर में कोई रोग आदिक की वेदना हो जाय उस वेदना से जो ध्यान बनता है वह वेदनाप्रभव ध्यान है और चौथा आर्तध्यान है निदान। आगामी भोगों की इच्छा करना, आशा बांधना ये सब निदान हैं। तो इन चार प्रकार के ध्यानों में जीव को खेद रहता है। ये तो चार आर्तध्यान हुए और रौद्रध्यान चार सुनिये―हिंसानंद, हिंसा करते हुए आनंद मानना, किसी ने हिंसा की हो, किसी जानवर का मरण हुआ हो तो उसमें आनंद मानना, मृषानंद में झूठ बोलने में मौज मानना, दूसरों से झूठ बुलवाना, झूठ बोलने वाले की तारीफ करना और उसमें मौज मानना सो मृषानंद है, चौर्यानंद―चोरी करके आनंद मानना, किसी की चीज चुरा ले जाय, किसी पर डाका डाले और चोरी हो जाय तो उसे सुनकर आनंद मानना चौर्यानंद है। और परिग्रहानंद―विषयों के जो साधन हैं उन साधनों के रक्षण और संग्रह करने में आनंद मानना सो परिग्रहानंद है। अब आप देखिये कि आर्तध्यान में तो खेद रहता है और रौद्रध्यान में जीव मौज मानता है, मगर रौद्रध्यान के मौज से यह जीव नरक में जन्म लेता है। तो नरकों में जो जीव उत्पन्न हुए हैं उनके अवधिज्ञान हुआ करता है। देव और नारकी दो भव ऐसे हैं कि जिन भवों में जन्म लेकर नियम से अवधिज्ञान होगा। ज्ञानी है तो सम्यक् अवधिज्ञान होगा और अज्ञानी है तो खोटा अवधिज्ञान होगा। तो नारकी जीव वहाँ जन्म लेने के बाद विचार कर रहा है―ओह ! हमने पूर्वजन्म में हिंसा के कार्य किया, अनेक बाह्य परिग्रहों में बुद्धि रखी, बड़ी ममता की, लोगों पर अन्याय किया, नाना व्यसन किया, उनके फल में आज हम इस नरकरूपी समुद्र में पड़े हैं।
नरकों के अस्तित्व की सिद्धि―देखिये नरक स्वर्गों की बात केवल कल्पना की बात नहीं है। जैसे कि लोग कह देते हैं कि लोगों को बहकाने के लिए केवल बातें गढ़ दी गई हैं। नरक और स्वर्ग बराबर हैं, इसे समझने के लिए पहिले तो ऐसा निर्णय रखिये कि जितना आगम में प्रतिपादन है वह सब दो प्रकार का प्रणीत है―एक तो ऐसा कि जिसे हम निश्चय से अपरिणामी सिद्ध कर सकते हैं और एक केवल ऐसा कि जिसमें युक्ति और अनुभव नहीं चलता किंतु परोक्षरूप है। तो उनमें से जिनमें हमारी युक्ति चल सकती है, कानून से सिद्ध कर सकते, अविनाभाव से बता सकते, ऐसा तत्त्व जब सही बनता है तो जिसने यह प्रतिपादन किया उसी ने परोक्षभूत नरक स्वर्गों का प्रतिपादन किया तो उसकी श्रद्धा और ऐसी हो जाती है। सर्वज्ञ देव की भक्ति में तत्त्व ध्यान की बात को सही उतारने पर कि स्वर्ग नरक का भी वर्णन बिल्कुल सत्य है। वीतराग ऋषि संतों को झूठ बोलकर कौनसा लाभ लेना है? यथार्थ प्रतिपादन करना वीतराग ऋषि संतों का प्रयोजन होता है। अब जरा थोड़ा ऐसा भी सोच लीजिए कि आखिर यहाँ पृथ्वी है। इस पृथ्वी के नीचे केवल यह पृथ्वी हो और नरक हो तो उसमें बाधा क्या आयी, खंडन करने वाले हो क्या? लोग तो यह कहते हैं कि आंखों दिखाई नहीं देता, न दिखाई दे, मगर उसके सद्भाव में बाधा क्या है? यदि हो तो उसमें बाधा क्या? फिर दूसरे जो लोग यह पाप करते हैं, हजारों लाखों पशुवों के शिकार करते हैं, उन्हें बड़ी बुरी तरह बेमौत तार डालते हैं, अनेक प्राणियों को सताते हैं, अनेक प्राणियों को मार भी डालते हैं, तो आप ही बताइये कि इस ही दुनिया में उनको दंड देने का क्या उपाय है? फांसी लगा दी गई तो उसमें एक बार ही तो मरण हुआ। पर जिन कसाइयों ने हजारों लाखों पशुवों को मारा, लाखों प्राणियों का दिल दुखाया ऐसे मनुष्यों को केवल फांसी लगायी जाय तो वह पर्याप्त दंड नहीं मिला। लाखों मनुष्यों को, पशु पक्षियों को सताने से जो पाप होता है उसका फल ऐसा होता है कि जैसे अनगिनते बार जीव मरे और मरकर भी मरे नहीं, किंतु वे शरीर के खंड-खंड फिर मर जायें, फिर ज्यों का त्यों शरीर बने इस प्रकार का भव हो तो यहाँ के इन अनेक पापों का दंड प्राप्त किया जा सकता है। वही चीज है नरक।
घोर पाप के फल में घोर नरकवेदना―उन नरकों में पहुंचे हुए ये प्राणी विचार कर रहे हैं कि अहो ! हमने बहुत आरंभ किया, बहुत परिग्रह किया, बहुत से प्राणियों को सताया, झूठ बोला, चोरी की, परस्त्री वेश्या आदिक पर कुदृष्टि की, परिग्रह में ममता रखी, उन सब पापों के फल में आज नरक के दु:ख भोगने पड़ रहे हैं। अच्छा नरकों की बात तो जाने दो, यही देख लो, जो मनुष्य अपना खोटा विचार करता है उस खोटे विचार के कारण उसे तत्काल हैरानी होती है और उसका सिल्सिला ऐसा बढ़ जाता है कि उससे भविष्य में भी हैरानी होती है, और जो सही बात विचार रखा, शुद्ध रखा उसको हैरानी नहीं है। जैसे कोई पुरुष किसी को सताने का परिणाम करे, किसी की निंदा का परिणाम करे, किसी को दुर्वचन बोलने का प्रयत्न करे तो उसे अपने चित्त में पहिले कितनी हैरानी लेनी पड़ती है, कितना अपने को दु:खी करना पड़ता है, तब जाकर दूसरों को दु:ख पहुंचाने का यत्न होता है। कोई पुरुष दूसरे का सत्कार करे, सम्मान करे तो उसे कोई श्रम नहीं करना पड़ता। बड़ी प्रसन्नता से आराम में वह सब बातों को कर लेता है। तो खोटे परिणामों का फल तो इस ही भव में इस जीव को यही प्राप्त हो जाता है, फिर जो विशेष खोटे भाव है उनमें नरकादिक आयु का बंध होता है और ऐसा जीव मरकर नरक में पहुंचता है, और अनगिनते वर्षों तक महान दु:ख भोगता है। अब सोच लीजिए कि यहाँ जो समागम पाया है तो वह कौनसा खास समागम है, कब तक रहने वाला है, समागम के समय में भी कौनसा आनंद भोग लिया जाता है? क्षोभ, चिंता, शोक आदिक नाना प्रकार की विडंबनाएं बनती हैं। इन समागमों में जो आसक्त रहते हैं ऐसे पुरुषों को नरक गति में जाना पड़ता है।