वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1698
From जैनकोष
मनुष्यत्वं समासाद्य तदा कैश्चिन्महात्मभि:।
अपवर्गाय संविग्नै: कर्म पूज्यमनुष्ठितम्।।1698।।
तिर्यगगति के जीवों की वराकता का चित्रण―संस्थान विचय धर्मध्यान के प्रसंग में नारक भव में नारकी क्या चिंतन करता है―यह चिंतन चल रहा है। कोई पुरुष कोई महान आत्मा किसी पुण्य के योग से मनुष्यभव को प्राप्त करता है। देखिये सभी जीवों पर दृष्टि डालकर मनुष्य का भव कितना श्रेष्ठ है? ये वृक्ष, पृथ्वी, आग, वायु, जल, वनस्पति, फल, फूल ये भी तो जीव हैं। इन जीवों की अपेक्षा मनुष्य में कितनी श्रेष्ठता है? ये बेचारे जड़ जैसे हैं, जड़ नहीं हैं वे, हैं एकेंद्रिय, मगर कोई क्रिया नहीं, कोई रचना नहीं, कोई विचार नहीं, बोल नहीं सकते, हिलडुल सकते हैं नहीं, जहां खड़े हैं, जैसे बने हैं वैसे पड़े हैं अर्थात् वे जड़ जैसे लगते हैं, कितनी निम्न स्थिति है उन एकेंद्रियों की? उनसे तो मनुष्यभव कितना श्रेष्ठ है। कभी यह जीव दो इंद्रिय भी हुआ, कीड़ा मकोड़ा हुआ तो वहाँ भी क्या विशेषता पायी? यद्यपि कुछ इंद्रिय का ज्ञान बड़ा है मगर उससे लाभ क्या? आहार, भय, मैथुन, परिग्रह―इन चार संज्ञारूपी ज्वरों से वे पीड़ित हैं। उनको कुछ आत्मा की सुध भी नहीं है, ऐसे कीड़े मकोड़े बनकर भी कुछ लाभ नहीं पाया। पशु पक्षी हुए तो उनका भी जीवन देख लो। पशुवों पर कौन दया करता है? आज कुछ लोग कहते हैं कि गऊ वध बंद करो। ठीक है। और कोई लोग ऐसा सोचते हैं कि अगर ये गाय बैल अधिक बढ़ जायेंगे तो फिर ये कहां रहेंगे, क्या खायेंगे? देश में वैसे ही भुखमरी है। तो प्रगट दिख रहा हैं कि जब तब गाय दूध बछड़ा देती है, बैल भी जब तक खेती बाड़ी में काम आता है तब तक तो लोग उन्हें अच्छे ढंग से रखते हैं, उनकी अच्छी प्रकार सेवा करते हैं, पर जब वे किसी काम के नहीं रहते, वृद्ध हो जाते हैं तो लोग उन्हें कसाइयों के यहाँ बेच देते हैं और उनका वहाँ बुरी तरह से मरण किया जाता है, वे जीभ निकाल देते हैं, हांफते जाते हैं, बहुत बड़ा बोझा लादे जाते हैं, गले से खून भी टपकता है फिर भी कोड़ों से पीटते जाते हैं। कौन उन पर दया करता है? कुछ और बूढ़े हुए काम लायक न रहे तो कसाइयों के यहाँ बेच दिये जाते हैं। तो देखो उनकी कैसी दुर्दशा हो रही है। तो उन पशु पक्षियों के जीवन के मुकाबले यह मनुष्यभव कितना श्रेष्ठ भव है? ये पशु पक्षी अपने मन की बात भी दूसरे से नहीं बता सकते, दूसरों के मन की बात को जान भी नहीं पाते, उनके अक्षरात्मक बोली नहीं है, वहीं बांय-बांय चें-चें बोलकर अपना जीवन गुजारते हैं।
मनुष्यभव की विशेषता―मनुष्य को देखो―कितना हाव भाव, कितना अलंकार, कैसा-कैसा साहित्य, कैसी-कैसी रचनाएं, बड़ी-बड़ी कलापूर्ण कविताएं ये सब रच डालते हैं। तो मनुष्य की बुद्धि। मनुष्य का जन्म उन पशु पक्षियों से कितना श्रेष्ठ है। ऐसे मनुष्यभव पाना जरा सोचिये तो सही कितने विशिष्ट पुण्य का फल है? अब यदि हम उसी पुण्य फल पर प्रहार करते है तो जरा विचार तो करो कि हमारी क्या गति होगी? यदि हम अशुभ भाव में रहते हैं तो नियम से हमारी दुर्गति होगी। इस मनुष्यभव को पाकर हमें अपनी ऐसी सम्हाल करनी चाहिए कि जिस सम्हाल से हमें आगे इससे भी अच्छी गति मिले, इससे भी अच्छे प्रसंग आगे मिलें। हम इस स्थिति से कहीं नीचे न गिर जायें ऐसी चित्त में धारणा रखना चाहिए। देखिये संसार में हम आप जीवों का कोई दूसरा रक्षक नहीं है, खूब विचार कर लीजिए, अपने जीवन के अनुभव से भी देख लीजिए। कदाचित् कोई मित्रादिक हमारी रक्षा करने वाले भी बनें तो वे इसलिए हमारे रक्षक बनते हैं कि हम सदाचारी हैं। तो कितने पुण्ययोग से यह मनुष्यभव प्राप्त हुआ? कदाचित् यह जीव मनुष्यभव पाता है तो ज्ञानी बने, विरक्त बने और मोक्ष के लिए पवित्र आचरण करे। यदि पशु पक्षियों की तरह से ही अज्ञानता पूर्वक अपना जीवन बीता दिया तो मनुष्यभव पाने से लाभ कुछ भी न पाया बल्कि यहाँ से मरण करके फिर निम्न गतियों में जाना होगा।
मनुष्यभव पाकर महान् आत्माओं द्वारा महान् कार्य का यत्न―इस मनुष्यभव में आकर तो कोई ऐसा काम करना है जो किसी भी भव में नहीं किया जा सकता। वह काम क्या है? ज्ञान और वैराग्य। धर्म की बात को आप दो भागों में बांट लीजिए―ज्ञान और वैराग्य। जिन मनुष्यों को शरीरादिक परद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान नहीं है उन मनुष्यों में धर्मपालन नहीं हो सकता। धर्म किसे करना है, धर्म क्या चीज है, धर्म का क्या फल है और यह धर्म किया जा सकता है या नहीं, ये सब बातें जिनके निर्णय में नहीं हैं वे धर्मपालन क्या करेंगे? धर्म क्या चीज है? स्वभाव का नाम धर्म है। हमारा स्वभाव क्या है? जानन और देखन की स्थिति रहना। ज्ञाताद्रष्टा रहना, केवल चैतन्यस्वरूप रहना, यही है हमारा स्वभाव। हम अपने को मात्र चैतन्यस्वरूप प्रतीति में लायें। मैं चैतन्यमात्र हूं, मेरा कहीं और कुछ नहीं है। जो भी समागम मिले हैं वे धर्म के लिए मिले हैं, सभी विनाशीक हैं, भिन्न पदार्थ हैं, उनसे मेरा कुछ भी सुधार बिगाड़ नहीं है, मेरा सुधार बिगाड़ मेरे ही भावों से हुआ करता है, मेरा रक्षक मैं ही हूं, दूसरा कोई नहीं। जब मेरा कोई रक्षक नहीं तो मैं किसको प्रसन्न करने के लिए अपनी धुनि बनाऊं। लोग तो इस लोक में अपना यश, अपनी नामवरी बढ़ाने की धुनि में रहते हैं पर जरा विचार तो करो कि वे लोग कौन हैं? अरे वे स्वयं कर्मों के प्रेरे मलिन जीव हैं, उनमें यश की वांछा करने से क्या लाभ? प्रथम तो जिनमें अपना नाम चाहते हैं वे लोग इसे कुछ जानते नहीं, और जानते भी हैं तो इस शरीर पिंड को ही जानते हैं। आत्मा तो इस शरीर से न्यारा, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित, अपने ही ज्ञानादिक गुणों में तन्मय है, ऐसी चैतन्यमात्र वस्तु को तो वे लोग जानते नहीं, अगर वे इसे जान जायें तो वे खुद ज्ञानी हो गए। उनकी दृष्टि में फिर वह व्यक्ति न रहे, एक चैतन्यस्वरूप रहा। तो कोई मुझे पहिचानने वाला नहीं है। मैं किसे प्रसन्न करूं? यह सर्व मायाजाल है। प्रसन्न करें तो एक अपने आपको करें। अपने उपयोग को ऐसा निर्मल बनायें, अपने आपके स्वभाव की ऐसी विशिष्ट दृष्टि बनायें कि ज्ञान बढ़े। ज्ञानरूप रहूं मैं, केवल जाननहार रहूं तो यह ज्ञान धर्मपालन है। मैं यथार्थ जान रहा हूं तो मैं धर्मपालन कर रहा हूं। दूसरा धर्मपालन है वैराग्य। जिन्हें मैंने पर समझा, अनात्म तत्त्व समझा उनसे राग न रहना चाहिए, उनसे प्रीति करने में क्या लाभ है, वे सब बाह्य चीज हैं? तो परवस्तुओं से वैराग्य रहे और अपने आपके स्वरूप का ज्ञान रहे, बस यही तो धर्मपालन है। अब जो लोग धर्म के लिए श्रम कर रहे हैं उन्हें अपने आपसे पूछना चाहिए कि हम ज्ञान और वैराग्य पर चल रहे हैं क्या? अगर ज्ञान और वैराग्य का कोई अंकुर नहीं उठा तो समझें कि हम धर्मपालन के पात्र नहीं हैं। शांति के लिए हमें ज्ञान और वैराग्य का यत्न करना चाहिए। सो वैराग्य तो होगा अपने आप। कोई बनावट से नहीं होता, पर ज्ञान का तो हम प्रयत्न कर सकते हैं, हम वस्तुस्वरूप का अभ्यास करें, कुछ जानकारी रखें। सही-सही जानें, अपना ही ज्ञान मेरे हित का साधक है। हम ज्ञानाभ्यास में अधिकाधिक यत्नशील हों तो वह ज्ञानाभ्यास हमारे कल्याण का हेतु बनेगा।