वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 169
From जैनकोष
मनस्तनुवच:कर्म योग इत्यभिधीयते।
स एवास्रव इत्युक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदै:।।169।।
योग और आस्रव―अब आस्रवभावना का वर्णन कर रहे हैं। आस्रव किसे कहते हैं? इसका स्वरूप इस श्लोक में कहा गया है। मन, वचन, काय की क्रिया का नाम है योग और इस योग को ही तत्त्वज्ञानी पुरुष कहा करते हैं आस्रव। कहीं कहीं तो मन, वचन, काय इस प्रकार का क्रम लेकर बोला करते हैं और कहीं शरीर, वचन, मन, ऐसा भी बोलते हैं। इस दूसरी पद्धति का वर्णन तत्त्वार्थसूत्र में है। छठे अध्याय में प्रथम दो सूत्र यों आये हैं ‘कायवाड्. मन:कर्म योग: । स आस्रव:।’ शरीर, वचन और मन का जो परिस्पंद है वह योग है और वही आस्रव है। यद्यपि काय, वचन, मन की हालत का ही नाम सीधा आस्रव नहीं है, किंतु काय, वचन व मन के परिस्पंद का निमित्त पाकर जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंद होता है वह आस्रव कहा जाता है।
योगों में विशेषता―काय का परिस्पंद एक मोटा परिस्पंद है जो लोगों की दृष्टि में शीघ्र आ जाता है। यह शरीर हिलेडुले, हाथ से क्रिया की, पैर से क्रिया की, यह सब दृष्टि तक में आ जाता है। तो काययोग और स्थूलयोग है, उससे सूक्ष्म है वचन योग। जो कामयोग की अपेक्षा सूक्ष्मता को लिए हुए है और वचनयोग से सूक्ष्म है वह है मनोयोग। केवल एक मन से चिंतन किया, वहाँ जो मन में परिस्पंद हुआ वह है मनोयोग। इस तरह स्थूल से सूक्ष्म के योग आने पर क्रम बनता है―काय, वचन और मन। सूक्ष्म से स्थूल की ओर जाने पर क्रम बनता है― मन, वचन, काय। यों योग तीन प्रकार के कहे गए हैं। यद्यपि तीन प्रकार के योगों में वस्तुत: योग का लक्षण एक ही है और वह है आत्मप्रदेश का परिस्पंद होना, किंतु आत्मप्रदेश का परिस्पंद किन-किन निमित्तों को पाकर हुआ करता है? उनका नाम लेकर योग में भेद डालना यह उपचार कथन है और यों औपचारिक तीन भेद हो जाते हैं। आस्रव से होता क्या है? इस बात का वर्णन अब अगले श्लोक में कह रहे हैं।