वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1720
From जैनकोष
आश्रयंति यथा वृक्ष फलित पत्रिण: पुरा ।
फलापाये पुनर्यांति तथा ते स्वजना गता: ।। 1720 ।।
पूर्व जन्य के स्वजनों की स्वार्थपरता का विचार―वह नारकी जीव पुन: ऐसा विचार करता है कि जैसे पक्षी पहिले तो फूले हुए वृक्षों का आश्रय करते हैं, परंतु जब वृक्ष में फल नहीं रहते हैं तो वे सब पक्षी उड़ जाते हैं । यही हालत यहाँ भी है कि जब तक उन कुटुंबियों ने मित्रों ने हम से मित्रता रखी जब तक कि उनके हम काम आये, जब तक उनके विषय साधनों में हम सहायक रहे, उनके सुख के साधनों को जब तक हम जुटाते रहे तब तक तो वे मेरे साथी थे लेकिन जब भव छूटा और हम उन पापफलों से नारकी हुए तो उस समय कोई भी साथ न आया, सभी जहाँ के तहाँ रह गए अन्यथा कहीं चले गए । वह नारकी इस तरह विचार कर रहा है । कभी तो मरने वाला टोटे में रहता है जीने वाला नफे में रहता है और कभी जीने वाला टोटे में रहता है और मरने वाला नफे में रहता है । जिस जीव ने पापकर्म किया, मरकर पचकर कष्ट सहकर लोगों को बहुत सुख पहुंचाया, उनके सुख साधन जुटाया, अब वृद्ध हो गया, कुछ करने में समर्थ नहीं रहा ऐसा पुरुष मर गया तो वह पुरुष तो मरकर नरकों में जाकर घोर यातनाएँ सहेगा, वह तो नुक्सान में रहेगा और ये जीने वाले सुख साधनों का लाभ उठायेंगे और एक जो व्यथासी बन रही थी, कष्ट करना पड़ता था उससे वह छूट जाता है । कोई पुरुष बड़े अच्छे आचरण से रहनेवाला अपनी सब व्यवस्थावों से सुंदर जीवन बिताने वाला और इस ही कारण सर्व कुटुंबियों को बड़ा प्रिय लगने वाला वह यदि गुजर जाय तो वह तो मरकर नया शरीर पायगा, वहाँ अपने जीवन में अ आ इ ई शुरू कर लेगा, वह अपने ढंग से है और जीने वाले लोग उसकी याद कर करके अपने स्वार्थ से रो-रो करके दुःखी हो जाते हैं, तो वह मरने वाला तो लाभ में रहा और ये जीने वाले टोटे में रहे । यहाँ नरकगति में जन्म लेने वाला नारकी टोटे में रहा, अपने आपको बड़े क्लेश में निरख रहा, और सोच रहा है कि ओह ! वे सब लोग जो मेरे हर बात में साथी थे, अब यहाँ कोई भी नहीं आया, सभी पड़ गए फलहीन वृक्ष देखकर । इस जगत में कोई किसी का मित्र नहीं है, बंधु नहीं है, दोस्त नहीं है, सभी अपने-अपने स्वार्थ की ही सिद्धि में लगे हैं । स्वयं में जो कषाय की वेदना होती है उसको शांत करने में ही लगा करते हैं । यह पूरब की प्रतीति है । स्वरूप ही ऐसा है, ऐसा सुनकर किसी से घृणा करने की बात न सोचना, स्वरूप को समझना है । प्रत्येक जीव केवल अपने आपके
प्रयोजन की सिद्धि में रहा करता है, कोई किसी का पालक पोषक रक्षक मित्र हो ऐसी कोई बात नहीं है । किसी में अपने आपके स्वार्थसिद्धि करते हुए में कोई अनुकूल पड़ जाय तो उसे मित्र मान लेते हैं, पर जब एक जीव दूसरे का कुछ कर ही नहीं सकता, न सुधार न बिगाड़ तो कोई जीव किसी दूसरे का शत्रु अथवा मित्र कैसे बन सकता है? सभी अपने-अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगे हैं । सभी जीवों को यों देखना कि यह मेरा मित्र है यह मेरा शत्रु है, केवल भ्रम मात्र है, वस्तुत: तो मैं ही अपना शत्रु हूँ । जब अपने स्वभाव दर्शन से चिगकर परनिमित्त में लगता हूँ पर के आश्रय में पर की दृष्टि में लगता हूँ तो मैं ही अपने आपका शत्रु बन जाता हूं और जब मैं पर का स्नेह रागद्वेष छोड़कर अपने स्वरूप के निकट बसा करता हूँ तो मैं ही अपना मित्र बन जाता हूँ, है नहीं कोई शत्रु मित्र । लेकिन यहाँ नारकी यह चिंतन कर रहा है कि जिनके पीछे मैंने बहुत श्रम किया, पाप किया उनमें से यहाँ एक भी मेरे साथ नहीं आये ।