वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1721
From जैनकोष
शुमाशुभानि कर्माणि यांत्येव सह देहिभि: ।
स्वार्जितानीति यत्प्रोचु: संतस्तत्सत्यतांगतम् ।।1721।।
कर्मों का स्वयं फल भोगने के तथ्य का विचार―नारकी जीव विचार कर रहा है कि जो बड़े-बड़े पुरुष कहते थे कि अपने ही उपार्जन किए हुए शुभ अशुभ कर्म जीव के साथ जाते हैं और कोई साथ नहीं जाता, तो यह बात मुझे आज बिल्कुल सत्य लग रही है । यही तो होता है कि यहाँ जन्म हुआ पूर्वभव से आकर लेकिन कुछ भी साथ नहीं आया । कितना धन कमाया लाखों करोड़ों की संपदा जोड़कर रख ली, मगर उसमें से एक धेला भी साथ नहीं आया, एक दो बार नाश्ता ही कर ले इतनी भी चीज साथ नहीं आयी, और आये हैं तो ये जो पापकर्म बाँधे थे वे ही साथ आये हैं । जिन जिनसे मोह किया, प्यार किया, जिनके पीछे बड़े-बड़े विकल्प किया उनमें से कोई साथ नहीं आया, यह मैं अकेला ही इन सब दारुण दुःखों को भोग रहा हूँ । सो यह बात बिल्कुल सच निकली जैसा कि संत पुरुष कह गए थे कि ये जीव अपने ही अपने उपार्जन किए हुए शुभ अशुभ कर्मों को साथ ले जाते हैं, दूसरा और कोई साथ नहीं जाता । जिस शरीर का इतना पोषण करते हैं, जिस शरीर को खिलाने में आसक्त होकर हम अपनी सब कुछ सुध बुध खो बैठते हैं वह शरीर भी साथ नहीं जाता है । हाँ सूक्ष्म शरीर तैजस कार्माण शरीर साथ जाता है जो नवीन शरीर की रचना का बीजभूत बनता है, अर्थात् कर्म तो साथ जाते हैं जीव के मरने पर, पर चेतन अचेतन परिग्रह जो कुछ भी इकट्ठे हुए हैं वे कुछ भी साथ नहीं जाते । क्षणभर में ही देख लो कितना महान अंतर हो गया? अभी क्षणभर पहिले तो थे करोड़पति, लोग इसकी हू हजूरी में रहते थे और क्षणभर बाद ही हो गया नारकी, अकेला ही नरकभूमि में पहुंचकर नारकी दुःख सहने लगा । तब तो कुछ नहीं विचारा इस जीव ने कि मेरा सही कर्तव्य क्या है, अकर्तव्य न करना चाहिए, लेकिन उन कर्मों के फल में आज जो यह दुर्गति हुई है उस दुर्गति को तो भोगना ही पड़ेगा, वे भोगे बिना छूट नहीं सकते । जो कोई प्रबुद्ध नारकी है वह तो कुछ विचार कर के ज्ञानबल बढ़ाता है और अज्ञानी नारकी उन कष्टों को सह-सहकर असाता कर्मो का फल भोगता है ।