वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1751
From जैनकोष
मध्यभागस्ततो मध्ये तत्रास्ते झल्लरीनिभ: ।
यत्र द्वीपसमुद्राणां व्यवस्था वलयाकृति: ।।1751।।
लोक के मध्यभाग के वर्णन का आरंभ―अधोलोक के ऊपर मध्य लोक आता है । मध्यलोक मेरु पर्वत के बराबर माना जाता है । जितनी मेरु पर्वत की ऊँचाई है उतनी ही मध्यलोक की मोटाई है । मेरु पर्वत जमीन से 99 हजार योजन ऊपर है और जमीन के नीचे चलने में 1000 योजन गहरा है । यों 1 लाख योजन का मध्यलोक की ऊर्ध्व लोक की मोटाई समझिये, और चारों दिशावों में यह मध्यलोक कितना बड़ा है, तो आगे द्वीप समुद्र की रचना आयगी उससे विदित होगा यह मध्यलोक एक गोलाकार है, अथवा किन्हीं आचार्यों के मत से चौकोर है और उसमें गोलाकाररूप से अनेक द्वीप समुद्र की रचनाएं हैं । पृथ्वी का विस्तार सुनकर चित्त में यह भावना बन जाती है कि इतना बड़ा लोक है, ऐसी-ऐसी जगह हैं, वहाँ यह जीव अनंत बार उत्पन्न हो चुका है और कहीं भी टिककर नहीं रहा, जन्म मरण कर रहा है । तो आज का परिचित इतनासा क्षेत्र यह मेरे लिए क्या सर्वस्व है? जितने परिचित क्षेत्र में विकल्प बढ़ाकर अपने आपको अंधेरे में ले जाया जा रहा है । यह ममता के योग्य क्षेत्र नही है । विस्तार समझकर चित्त में यह बात आती है ।