वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1755
From जैनकोष
तत्रार्यम्लेच्छखंडानि भूरिभेदानि तेष्वमी ।
आर्या म्लेच्छा नरा: संति तत्क्षेत्रजनितैर्गुणै: ।।1755।।
मनुष्य क्षेत्र में अनेक आर्यखंड व म्लेच्छखंडों का निर्देश―इस मनुष्य क्षेत्र में अनेक आर्य-खंड हैं और म्लेच्छ खंड हैं । 5 भरत खंड और 5 ऐरावत खंड हैं और प्रत्येक भरत खंड में आर्यखंड है; और म्लेच्छ खंड 5 हैं । आर्यखंड में आर्य पुरुष रहते हैं, मलेच्छ खंड में म्लेच्छ पुरुष रहते हैं, अर्थात् आर्यों के उत्तम आचार उत्तम गुण हैं और म्लेच्छों के जघन्य आचार और धर्म शून्यता उनमें पायी जाती है । हम आप ऐसे आर्यखंड में उत्पन्न हुए हैं और जितनी आज की मानी हुई दुनिया है अमेरिका, चीन, जापान, भरत आदि सभी देश इस आर्य खंड में हैं । इस क्षेत्र के हिसाब से आज की दुनिया में रहने वाले जितने पुरुष हैं, चाहे वे किसी भी देश के हों वे सब आर्य कहलाते हैं । उन आर्यों में भी और कुछ विशिष्ट पुरुष हुआ करते हैं, जिसे सम्यक्त्व हो गया वह दर्शनार्य कहलाता है और जिसके चारित्र हुआ वह चारित्रार्य कहलाता है । ये पुरुष और भी श्रेष्ठ पुरुष हैं, जिन्होंने अपने उपयोग से उस सहज स्वरूप को 'यह मैं हूं' ऐसा मान लिया, मैं ज्ञानानंद मात्र हूँ, आकाश निर्लेप हूँ, इसके स्वरूप में न द्रव्यकर्म है, न भावकर्म है, न कोई नोकर्म है, सबसे निराला केवल चैतन्यस्वरूप को रखने वाला यह मैं आत्मतत्त्व हूँ । यद्यपि उन प्रदेशों में भावकर्म के उदय चलते हैं, रागद्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक रूप परिणमें । जब अपने ज्ञानस्वभाव को निरखते हैं तो यह निर्णय होता है कि मैं स्वभावमात्र हूँ, मुझ में रागादिक विकार नहीं हैं, क्योंकि रागादिक विकार मेरे स्वभाव में नहीं पाये जाते । कैसे जल के स्वभाव में गर्मी नहीं पायी जाती, क्योंकि गर्मी अगर स्वभाव में आ जाय तो जल कभी ठंडा ही नहीं हो सकता । ऐसे ही मेरे स्वभाव में रागादिक विकार नहीं पाये जाते । वह तो एक चैतन्य की स्वच्छता लिए हुए एक परम तत्व है । जैसे दर्पण में दर्पण के सामने के पदार्थ प्रतिबिंबित हो जाते हैं, झलकते हैं लेकिन वह सब झलकना, वह सब रूप रंग वे सब दर्पण में नहीं पाये जा रहे हैं । इस उपाधि के संबंध से और दर्पण की स्वच्छता के कारण ये पदार्थ प्रतिबिंबित हो गए, पर यह प्रतिबिंब दर्पण का निजी स्वभाव नहीं है, निज रूप नहीं है । दर्पण का निजी रूप तो. स्वच्छतामात्र है जिस स्वच्छता के कारण पदार्थ प्रतिबिंबित हो गए । इसी प्रकार आत्मा भी एक स्वच्छता को लिए हुए परम तत्व है, इस आत्मा में रागादिक विकार झलकते हैं, उत्पन्न होते हैं तो कर्मउपाधि का निमित्त पाकर उत्पन्न होते हैं । ये रागादिक विकार आत्मा में स्वयं में स्वयं के सत्व के कारण स्वयं के स्वरूप से नहीं हैं । स्वयं के स्वरूप में तो वह स्वच्छता है, वह चैतन्य ज्योति है जिस ज्योति में ये रागादिक विकार झलक सकते हैं । मैं द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित केवल ज्ञानज्योति मात्र तत्व हूँ, यह प्रतीति तो महापुरुषों के उपयोग में समा गयी, और ऐसे उत्तम रूप से समा गई कि धुनि बन गई, इस ही के मूल कारण अब परपदार्थों में ममता नहीं रही, रुचि नहीं रही, व्यग्रता नहीं रही, किसी प्रकार का लोक संकोच नहीं रहा, कोई शंका भय नहीं रहा, एक आत्मतत्व को निरखकर । लो मैंने सर्वस्व पा लिया, अब किसी भी प्रकार का मेरे में भय नहीं है, कोई विपदा ही नहीं । जिन्होंने अपने अमूर्त स्वभाव को अपने लक्ष्य में लिया है उसमें अब क्या आयगा? उसमें शरीर ही नहीं तो रोग क्या आयगा, जब शरीर ही नहीं तौ इष्ट-अनिष्ट के दुःख भी कहाँ हैं, बंधु मित्र भी इस आत्मा में कहाँ हैं? आत्मा जब किसी शरीररूप है ही नहीं तो उसमें क्या विडंबनाएँ हैं? जिन्होंने अपने सहज ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व को लक्ष्य में लिया है वह पुरुष दर्शनार्य कहलाता है और ऐसे ही रूप में जो स्थिर रहा करता है वह चारित्रार्य है । ये विशिष्ट आर्य पुरुष हैं । इस क्षेत्र में हम आप जन्मे हैं । हम आप भी अपने धर्म की ऊँची साधना बना सकते हैं । दृष्टि है अपने आप पर और दया हो अपने आपकी तो मुक्ति के मार्ग की बात हम आपको आज भी प्राप्त हो सकती है और वही प्राप्त करना चाहिए बाकी तो सारे समागम नष्ट हो जाने वाले हैं । इनकी रुचि से अपने को कुछ भी लाभ नहीं मिलता ।