वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1766
From जैनकोष
गाव: कामदुधा: सर्वा: कल्पवृक्षाश्च पादपा: ।
चिंतारत्नानि रत्नानि स्वर्गलोके स्वभावत: ।।1766।।
स्वर्गलोक में कल्पवृक्ष, चिंतामणि आदि की स्वत: उपलब्धि―उस स्वर्ग में जो गायें हैं वे कामधेनु हैं ।वहाँ गाय होती हैं इसकी कोई आवश्यकता नहीं है । ये जीव पाये नहीं जाते किंतु लोक में प्रसिद्धि है कि कामधेनु कोई होती है कि उससे जो मांगो सो प्राप्त होता है इस आधार पर तथा वहाँ की जो कुछ भी इस आकार की मूर्तियां बनी हों, रचनायें बनी हों और वे कल्पवृक्ष जैसा फल देने में निमित्त हों तो यह भी संभव हो सकता है । वहाँ गाय तो कामधेनु हैं, वृक्ष कल्पवृक्ष हैं । अनेक जाति के कल्प वृक्ष हैं जो प्रकाश दें, आभूषण दें,
वस्त्र दे, जो देवों के मन चाहे भाव हों उन पदार्थों को देने में वे एक निमित्त हैं, ऐसा वहाँ वृक्ष कल्पवृक्ष का रूप रखते हैं और रत्न हैं सो चिंतामणि रत्न हैं । लोक में ये दो तीन बातें बहुत महत्व की मानी जाती हैं । चिंतामणि रत्न उसे कहते हैं जो हाथ में आये और जो विचारो सो मिल जाय । सो कहीं अलग से चिंतामणि रत्न की यह महिमा नहीं है । यह जीव के पुण्य की महिमा है । जो पुण्यवान जीव हैं उनके पुण्य ऐसा ही फलता है कि जो चाहे सो तुरंत प्राप्त होता है । यह सब पुण्यफल बताने के लिए कहा जा रहा है । ये कोई प्राप्त करने योग्य पदार्थ नहीं हैं । इन अनेक समागमों से जीव को लाभ क्या होगा? जीव का उद्धार तो अपने आपके स्वभाव के दर्शन से ही होगा । जो महाभाग जो भव्य पुरुष अपने आपके स्वरूप का इस रूप में प्रत्यय करते हैं कि मैं सबसे निराला केवल ज्ञानानंदस्वरूप मात्र हूँ, जो इस प्रकार अपने ज्ञानानंदस्वरूप का चिंतन करते हैं सत्य कमाई तो वे ही प्राप्त कर रहे हैं, बाकी तो सब संयोग वियोग विडंबना हैं जहाँ पड़कर जीवन निकल जायगा, पर अंत में हाथ कुछ न आयगा । बल्कि यह आत्मा यों ही रीता दूसरी गति में जन्म लेगा, पर होता है संसार में पुण्य पाप का ऐसा फल जिसे यहाँ दर्शाया जा रहा है । है क्या यह लोक में सब कुछ इसका यथार्थ भान किए बिना इससे उपेक्षा कहां जगेगी, वैराग्य कैसे होगा? अपने ज्ञान के निकट आना कैसे बनेगा, इसलिए इस समस्त सांसारिक व्यवस्था का तथ्य कहा जा रहा है ।