वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1801
From जैनकोष
इंद्रजालमथ स्वप्न: किं नु मायाभ्रमो नु किम् ।
दृश्यमानमिदं चित्रं मम नायाति निश्चयम् ।। 1801 ।।
प्रकट होने के बाद दिशावलोकन से अद्भुत ठाठ देखने पर आश्चर्य―क्या है यह सब? क्या यह इंद्रजाल है? एकदम नवीन स्थान पर वह आत्मा देव के रूप में उत्पन्न हुआ ना, तो एकदम एक विचित्र स्थान को देखा, और बहुत से दिव्य कांतिधारी नाना आभूषणों से सुसज्जित मुख पर प्रसन्नता बखेरते हुए बहुत से देव नजर आते हैं । ऐसे उस स्थान को निरखकर वह उत्पन्न हुआ देव सोचता है कि क्या यह सब इंद्रजाल है? अर्थात् होता तो कुछ भी नहीं किंतु एक मायारूप में बना हुआ है । क्या यह मायारूप भ्रम है अथवा मुझे क्या कोई यह स्वप्न आ रहा है? जब वह देव निरख रहा है इस अद्भुत नवीन समागम को तो वह चिंतन कर रहा है कि क्या यह स्वप्न है या सचमुच मैं जागते हुए यह सब कुछ देख रहा हूं? उस समय वह दृढ़ता से निश्चय नहीं कर पाता कि यह सब चीज है क्या? ऐसा सोचिये कि यदि आप कहीं ऐसे स्थान पर रख दिये जायें किसी एक सोते हुए स्थान में कि जो एक नवीन है, विचित्र है, जिस स्थान को कभी देखा नहीं है, तो आपको वहाँ किस प्रकार का चित्त हो सकता है? कुछ बात निर्णय की नहीं आ पाती है, है क्या, किस जगह हूँ, उस समागम के प्रति कुछ भ्रमसा होता है, अपने प्रति भी भ्रम होने लगता है । क्या मैं सचमुच देख रहा हूँ अथवा मुझे निद्रा आ रही है या स्वप्न आ रहा है, स्वप्न में भी जो कुछ देखा जाता है वह सब यथार्थसा लगता है, यही तो घर है, यही तो पेड़ है, यही तो सरोवर है आदि । तो जैसे स्वप्न में सब बातें सच मालूम देती हैं वैसे ही यह सब कुछ जो हमें नजर आ रहा है यह सब स्वप्न है अथवा वास्तव में यह सब कुछ है । इस प्रकार भ्रम और आश्चर्यपूर्वक वह नवीन देव इन सब बातों को देखता है और कुछ निश्चयसा नहीं कर पाता ।