वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1816
From जैनकोष
एते दिव्यांगनाकीर्णाश्चंद्रकांता मनोहरा: ।
प्रासादा रत्नवाप्यश्च क्रीडानद्यश्च भूधरा: ।।1816।।
प्रासाद, रत्नवापी, क्रीडानदी व भूधरों का आख्यान―और-और भी जो कुछ दृष्टि गोचर हो रहे हैं उन सबका परिचय देते जा रहे हैं । यह मनोहर अप्सराओं से भरा हुआ चंद्रकांति के समान आपका प्रासाद है, इस आपके प्रासाद में पुण्यवती देवांगनाएँ निवास करती हैं । देखिये कितना विचित्र कांतिमय जीवन है उनका, जो यहाँ के लोगों से तुलना करते हैं तो वे अद्भुत दिखते हैं । यहाँ के शरीर मल मूत्रादि से पूरित हैं, खून, हड्डी आदिक सप्त धातुवें यहाँ के शरीरों में भरी हुई हैं किंतु उन देवों का शरीर उन सप्त प्रकार की धातुवों से रहित है । उनके शरीर में न पसीना है और न बुढ़ापा ही है । वे देव बड़े विलक्षण हैं । मनोवांछित भोगसामग्री उन्हें प्राप्त होती है । कैसा सुखमय उनका जीवन है? साथ ही यह भी सोचिये कि उस दिव्य जीवन से उनका निर्वाण नहीं होता । निर्वाण जो भी प्राप्त करता है वह मनुष्य बनकर ही करता है । इससे श्रेष्ठ भव तो मनुष्य का है मगर इसका ठीक मोक्षमार्ग के लिए उपयोग करें तब तो श्रेष्ठ है और अगर सर्व संसारी प्राणियों की ही तरह बंधन के फंसते रहने का काम करेंगे तो फिर इस मनुष्यभव का पाना न पाना बराबर है । मंत्री जन सौधर्म इंद्र से कह रहे हैं कि ये सब रत्नमयी वाटिकायें हैं जहाँ पर ये देव और देवांगनायें विहार कर के अपने चित्त को प्रसन्न करते हैं ।