वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1826
From जैनकोष
समग्रं स्वर्गसाम्राज्यं दिव्यभूत्योपलक्षितम् ।
पुण्यैस्ते सम्मुखीभूतं गृहाण प्रणतामरम् ।।1826।।
स्वर्गसाम्राज्य के स्वीकरण का आवेदन―यह समस्त स्वर्ग का साम्राज्य जो दिव्य विभूति कर सहित है तुम्हारे पुण्य के कारण तुम्हारे सम्मुख हाजिर है । हे नाथ ! इस सब सामग्री को आप ग्रहण कीजिये जिसमें ये नम्रीभूत समस्त देव भी सम्मिलित हैं । जो मनुष्य अपने पाये हुए समागमों में बहुत आसक्ति रखता है, उसमें ममता रखता है तो वह मनुष्य इस भव में उन सब समागमों का सुख भोग ले, पर वह आगे के लिए तो अपने सारे पुण्य को खो देता है । जो पुरुष पाये हुए वैभव में ममता नहीं रखता है, यथार्थता समझता है, मिला है तो क्या है, आखिर पुद्गल ही तो है, मेरे स्वरूप से जुदा ही तो है, इससे भी अधिक वैभव बहुत-बहुत भव-भव में मिला है, पर यह सब विनाशीक है, जुदा हैं, मैं इसमें कुछ नहीं करता यह वैभव मुझ में कुछ नहीं करता । मैं अपने आप सत् हूँ, यह वैभव अपने आप में परिणमन करता है, मेरा इससे कुछ संबंध नहीं, ऐसा जो प्रत्यय रखता है, जिसे ऐसा सच्चा विश्वास है ऐसा पुरुष व्रत नियम संयम दान आदिक आचरण करता है तो उस अनुराग के प्रताप से ऐसा पुण्य बंध होता है कि उसे स्वर्ग में आकर बहुत-बहुत पदवियां मिलती हैं । तो मंत्री जन उस सौधर्म इंद्र से कह रहे हैं कि यह सारा स्वर्ग साम्राज्य आपका है, सभी देव आपकी कृपा के अभिलाषी हैं, इन सबको आप स्वीकार कीजिये ।