वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 196
From जैनकोष
निर्वेदपदवीं प्राप्य तपस्यति यथा यथा।
यमी क्षपति कर्माणि दुर्जयानि तथा तथा।।196।।
निर्वेदसिद्धि के द्रव्यचिंतन―प्रथम तो कल्याणार्थी को इस ज्ञान का यत्न करना चाहिए कि दिखने वाले पदार्थ क्या हैं और मैं क्या हूँ? आत्मा और अनात्मा में, स्व में और गैर में जिनका प्रसंग बना है ऐसे आत्मा व अनात्मा का सच्चा बोध जब तक नहीं होता तब तक कल्याण की उत्सुकता नहीं हो सकती। इसको भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से देखो। द्रव्यदृष्टि से ये सब परस्पर में अत्यंत भिन्न हैं। यह दृष्टि लगाई जा रही है आत्मा और अनात्मा के विवरण में। एक एक चीज में नहीं। यह आत्मा और अनात्मा द्रव्य से जैसे परस्पर एक दूसरे से भिन्न हैं उस तरह दृष्टि में रहना चाहिए।
क्षेत्रदृष्टि से आत्मा व अनात्मा का चिंतन―क्षेत्रदृष्टि से आत्मा और अनात्मा ये सब तीनों लोकों में भरे पड़े हैं। मेरी भी गति तीन लोक में है और अनात्मपदार्थ की भी गति तीनों लोक में है। कभी किसी सुयोगवश कहीं समागम मिल जाता है, कभी कोई समागम मिले कभी कोई समागम मिले तो यों समागम मिलते रहते हैं और समागम तीनों लोक में कहीं भी मिल जायें। जब यह आत्मा निगोद अवस्था में रहा तो वहाँ भी इन कर्मों का संबंध था। शरीर तो साथ था ही। और जो कुछ जो भी शरीर में ग्रहण करना था वह आहार भी था। शरीर वर्गणायें भी होती हैं। तो क्षेत्रदृष्टि से ये आत्मा और अनात्मा कर्मोदयवश तीनों लोक में 343 घनराजू प्रमाण लोक में सब जगह मिले और बिछुड़े। क्षेत्रदृष्टि से यों देखा।
कालदृष्टि से आत्मा व अनात्मा का चिंतन―कालदृष्टि से यह आत्मा भी अनादि से है और ये कर्म भी अनादि से हैं। हम आपने कितने कष्ट सहे, कितने समय तक कहाँ क्या किया? यह बताने की कोई साधन सीमा नहीं है। अनादि से कष्ट सहते आये हैं और उन्हीं कष्टों के सहने की आदत बनी है। राग में कष्ट होता है पर उस राग से कष्ट को ही आनंद मानकर यह जीव कष्ट नहीं समझता और उस कष्ट में बना रहता है। इस जीव पर सबसे बड़ी विपदा परपदार्थों की ओर आकर्षण करने की है। क्या चाहता है यह जीव? जो चाहता है मान लो हो गया सब। यह चाहता है कि लोगों से हमारा कुछ संबंध रहे, ये महल, मकान खड़े हो जों। वह चाहता है पंचेंद्रिय के विषयों के साधन हमारे विशेष रहें। सब हो गया। सब हो जाने के बावजूद भी इस जीव के साथ क्या लगता है। और ऐसा क्या भव-भव में नहीं हुआ? सब जगह होता आया पर यह जीव एक इसी भव में इसी भव को उन बातों के लिये फालतू मान ले याने यही यही काम समागम बेकार के काम भव-भव में चलते आये तो एक भव को हम समागम और बेकार के विकल्पों से रहित बनाकर अपने को अकिंचन जानकर अपने आपमें गुप्त रहकर धर्मपालन कर लें तो इसका उद्धार हो जायेगा।
आत्मसेवा का चिंतन―मैं दुनिया के लिए कुछ नहीं हूँ, मैं दुनिया में कुछ नहीं हूँ, मैं जो हूँ अपने लिए हूँ, मुझे कोई जानता नहीं और जिसे जानता है कोई वह जानन मेरा नहीं और हमारा भी हो कोई, इसकी मुझे आवश्यकता नहीं है, कोई जाने कोई प्रशंसा करे कोई यश गाये, कोई कुछ भी करे तो उससे इस आत्मा को लाभ कुछ नहीं होने का है। मैं तो सबसे गुप्त हूँ, सबसे निराला हूँ। इस निराले अपने आपकी ओर नहीं झुके इस वजह से हम आप इतना स्वरूप से भ्रष्ट रहे कि नाना विकल्पों को जिस चाहे को विषय बनाकर खेद पाते रहे। है इतनी हिम्मत? होनी चाहिए इतनी हिम्मत, किसी भी समय हम इस सारी दुनिया को अपरिचित जानकर मेरे लिए चाहे कोई कुछ कहे, भला कहे बुरा कहे, यश हो अपयश हो, न नाम हो, कुछ भी स्थिति गुजरे, दुनिया में यह मैं आत्मा अपने आपके घर में स्वरक्षित बैठ सकूँ, विश्राम ले सकूँ ऐसा कोई गुप्त यत्न करे तो उसकी महत्ता है। इस काम के बिना अज्ञानी का तो सारा जीवन कुछ जीवन नहीं है। यह निर्जरा के लिए उद्यमी पुरुष वैराग्य की पदवी को प्राप्त करके जैसे जैसे तपश्चरण करता है वैसे ही वैसे दुर्गम कर्मों का क्षय करता है, इसके लिए प्रथम चाहिए आत्मा अनात्म का ज्ञान।
भावदृष्टि से आत्मा व अनात्मा का ज्ञान―भावदृष्टि से आत्मा अनात्मा की इस गड़बड़ी की क्या स्थिति है? यह इतने निकट रहकर भी आत्मा अपने स्वभाव में है। स्वभाव परिवर्तन नहीं होता। स्वभाव परिवर्तन त्रिकाल भी हो नहीं सकता, यह वस्तु का स्वरूप है, इसको ही बताने वाला धर्म है जैनधर्म। यही वस्तु धर्म है। वस्तुधर्म को कोई जाने तो क्या, न जाने तो क्या, वस्तुधर्म कभी नहीं मिटता। इस जैनधर्म के मर्म के पहिचानने वाले न रहें तो भी मर्म मिटता नहीं है। पहिचानने वाले हों तो वे अपना उद्धार कर लेते हैं। समस्त पदार्थों में उनका जो स्वभाव है, स्वरूप है वह स्वरूप एक का अंत में त्रिकाल नहीं प्रवेश होता। हम ही कल्पनाएँ करके अपने स्वभाव से चलित होकर बाह्य में दृष्टि फँसाकर दु:खी हुआ करते हैं, कल्पनाएँ बनाया करते, वह हमारी मुग्धता है। पर भावदृष्टि से देखो तो आत्मा और अनात्मा ये दोनों अपने-अपने स्वरूप में हैं ऐसी दृष्टि की साधना जिस समागम में बने, उस समागम का आदर होना चाहिए। आभार मानना चाहिए।
निकट में धर्म के वातावरण की आवश्यकता―धार्मिक वातावरण का समागम घर का ही बन जाय, घर के ही बालक, घर की ही स्त्री, घर के ही पुरुष सब इस रंग में रंग जायें, संसार, शरीर, भोगों के यथार्थ स्वरूप को जानकर उनसे विरक्ति के परिणाम में रंगे खुद हो जायें ऐसा घर का समागम बने, वह भी समागम बहुत अडिग लाभ करने वाला है। बाहरी समागम किसी ज्ञानी विद्वान का मिले वह तो थोड़े समय का है किंतु घर का ही वातावरण इस रंग में शक्ति अनुसार रंग जाय कि सब धर्म के प्रेमी बनें तो उस वातावरण का अधिक असर रहता है।
स्वाधीन महान् कार्य―भैया ! धर्मपालन में लगना, धर्मबाधाओं पर विजय पाना यह सब ज्ञानसाध्य है। एक जगह गुणभद्रस्वामी ने लिखा है कि हे मुने ! यदि तुममें बहुत तपश्चरण करते नहीं बनता तो मत करो क्योंकि तुम सुकुमार हो, तपश्चरण करने में समर्थ तुम्हारा शरीर नहीं है, लेकिन जो बात श्रम में नहीं होती, शारीरिक क्लेश से नहीं होती, किंतु केवल चित्तसाध्य है अपने एक सोचने के द्वारा ही काम बनता है उस काम को भी यदि नहीं कर सकते तो इससे बढ़कर और अज्ञानपन क्या कहलाये? वह क्या काम है जो केवल सोचने के द्वारा ही काम बन जाता है। लोग कहते हैं कि चिंतामणि रत्न ऐसा होता है कि समीप में हो तो जो सोचो सो सिद्ध हो जाता है, और यहाँ भी स्वाधीनता की बात कह रहे हैं। केवल सोचने के द्वारा ही काम बन जाय, ऐसा काम यदि नहीं किया जा सकता तो इससे बढ़कर और अज्ञता क्या होगी? तपश्चरण नहीं करते बनता मत करो। क्या है वह चित्तसाध्य कार्य, क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषाय बैरियों पर विजय पा लेना केवल एक सोचने के द्वारा साध्य है। कषायों का मिटना हाथ पैर के कार्यों द्वारा साध्य नहीं है। कषायों का मिटना बड़े-बड़े शारीरिक तपश्चरणों के द्वारा साध्य नहीं है। हाँ ये तपश्चरण एक हमारे उपयोग को बदलने के साधन होते हैं। पर साक्षात् जो कषायों पर विजय पायी गई है। तो जो चीज मात्र हमारे सोचने के द्वारा ही साध्य है वह काम नहीं किया जा सकता तो यह तो एक अज्ञान का ही काम है। गुणभद्रस्वामी ने तपस्वी मुनियों को समझाया है, इस प्रकार के तपश्चरण न करते बने, मत करो क्योंकि तुम सुकुमार शरीर के ही लेकिन ज्ञानस्वरूप का विचार ध्यान के द्वारा जो बड़ी से बड़ी बात बनती है, जो खास पुरुषार्थ है, मोक्ष में ले जाने का साधन है वह कार्य न बन सके तो यह तुम्हारी अज्ञता की बात है।
ज्ञानरूप साहस का कर्तव्य―कितना स्वाधीन यह कल्याण का काम है। इसमें ज्ञान का साहस चाहिए। शरीर भी दुर्बल है, वृद्ध है वह भी बाधक नहीं है हमारे इस मोक्षमार्ग के पुरुषार्थ में। अज्ञान बाधक है। यह आत्मा अपने ही प्रदेशों में रहता हुआ कल्पनाएँ किया करता है। यह मेरा है, यह भला है, इसमें हित है, इसमें ही बड़प्पन है, इसमें ही कुल चलेगा, इसमें ही नाम चलेगा आदिक केवल अपने भीतर ही बैठे बैठे कल्पनाओं से यह वेदना मोल ले ली है और यही अपने आपमें ही विराजे हुए अपनी ओर ही झुककर यह मैं सबसे निराला हूँ, स्वरूप ही मेरा ऐसा है कि मैं शुद्ध हूँ, मैं ही क्या समस्त पदार्थ शुद्ध हैं। शुद्ध का अर्थ है मुझमें दूसरे के स्वरूप की लगार नहीं आती। किसी दूसरे पदार्थ का स्वरूप किसी दूसरे पदार्थ में लगता नहीं है, अतएव स्वरूपदृष्टि से मैं शुद्ध हूँ।
मेरा ज्ञान स्वरूप―मेरी बोडी, जिसमें मैं बना हुआ हूँ, यह समस्त स्वरूप क्या है? एक ज्ञान। जैसे किसी चीज को जानने चलते हैं कि यह चीज बनी कैसे है? यह चौकी किस चीज से बनी है, यह पुस्तक किस चीज से बनी है, ऐसे ही अपने आपके बारे में निर्णय करें कि यह मैं आत्मा किस चीज से बना हूँ, क्या स्वरूप है? इन चर्मनेत्रों को बंद करके और नेत्रोपम ज्ञान को, ज्ञाननेत्र को भीतर और दौड़ा करके देह की भी सुध न रहे, उसको नहीं परखना है और भीतर निरखे तो वहाँ सिवाय एक ज्ञान के और कुछ नहीं मिलता। इसमें और जितने भी गुण बताये जाते हैं आनंद है, शक्ति है, श्रद्धान है, ज्ञान है, आचरण है, सूक्ष्म है, अमूर्त हैं वे सब इस ज्ञान की प्रतिष्ठा के लिए बताये गए हैं। वह ज्ञान किस प्रकार का है, वह मेरा स्वरूप किस प्रकार का है, उसकी प्रसिद्धि के लिए बताया गया है। वह निराकुल है, वह सूक्ष्म है, वह सब ज्ञान की विशेषता है। ज्ञान में और मुझमें भेद नहीं है। उस ज्ञानस्वरूप की ओर झुक करके कुछ अपने आपमें अपने स्वरूप का चिंतन किया जाय तो इसे रोकता कौन है? लो इस भीतरी पुरुषार्थ के द्वारा यह ज्ञानी आत्मा अपने को मोक्षमार्गी बना रहा है। सदा के लिए संसार-संकटों से छूटने का उपाय कर रहा है।
जिनागम का सार वीतरागता की प्रेरणा―जिन आगम का सार इतना ही है कि जो मोह रागद्वेष करेगा वह संसार में फंसेगा और जो मोह रागद्वेष से दूर होगा वह मुक्ति के निकट जायेगा। बड़ी परेशानी है। शायद इतनी परेशानी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को न होती होगी क्योंकि उसका एक ही निर्णय है और वैसा ही आचरण है (हँसी) परपदार्थ मेरे हैं और उस ही में रागद्वेष का आचरण है, उनका क्लेश तो है कई गुणित, मगर इस जाति का क्लेश नहीं होता जिस जाति का क्लेश एक ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष को किसी पदवी में होता है कि पहुँचना तो है आत्मा में और कषायें झकझोर रहे हैं बाह्य की ओर ये कितनी प्रेरणा करके किस ओर ले जायेंगे। यह स्व और पर का तनाव और उस द्वंद्व के बीच में यदि यह कोई ज्ञानी पड़ जाता है तो अपनी दृष्टि से कह रहा कि हाय ! यह बड़ी विपदा है। जैसे स्वप्न में कोई उत्तम चीज निरखते हैं, उसे उठाने की कोशिश करने पर उठा नहीं पाते, बल्कि निकट है और फिर भी कुछ अपने आपमें कोई रोकने वाला भी नहीं है, पर क्या-क्या होता है कि उसको नहीं उठा पाते हैं, यों स्वप्न में वहाँ परेशानी अनुभव करते हैं। यह ज्ञानी पुरुष को आनंद का निधान इसके बिल्कुल समक्ष है, पर कषायों की ऐसी प्रेरणा है कि उस प्रेरणा के कारण उस आनंदनिधान में मग्न नहीं हो पाता है। यह एक बड़ी विपदा की बात है।
कर्तव्यकौशल्य का अनुरोध―भैया ! परवाह न करें, निर्णय एक बनायें कि यह जैनधर्म पाया है, जैनशासन का सुयोग बड़े ही सौभाग्य से मिलता है। जहाँ सत्य श्रद्धान, सत्यज्ञान और सत्य आचरण सिद्धांतों में, प्रयोग में सबमें जहाँ सच्चाई की बात सिखाई गई है उस पर हम चलें और जो हमारे कर्तव्य बताये हैं देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, यथाशक्ति तपश्चरण, दान, इन कर्तव्यों में चलते हुए ज्ञानार्जन की ओर विशेष दृष्टि करते हुए अपने आपकी ओर झुकते रहें और सबसे निराले ज्ञानानंद स्वरूप अपने आत्मा की प्रतीति बनाये रहें, ऐसा ध्यान ऐसा चिंतन एक बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। इसमें जैसे-जैसे वृद्धि होती जायेगी कर्मों की निर्जरा भी वैसे-वैसे बढ़ती जायेगी। तो हमारा कर्तव्य यह है कि हम अपनी ओर अधिक झुकें, अपने भीतर में अपने ज्ञान में अपने को अधिकाधिक लगायें।