वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2012
From जैनकोष
सर्वातिशयसंपूर्णं सर्वलक्षणलक्षितम् ।
सर्वभूतहितं देवं शीलशैलेंद्रशेखरम् ।।2012 ।।
प्रभुध्यान की साधना―अपने जीवन की उन्नति की दिशा में मनुष्यों का कर्तव्य है कि वे निर्दोष सर्वगुणसंपन्न पूर्ण विकासमय शुद्ध परमात्मप्रभु का ध्यान करें । विषय कषायों से कलंकित यह आत्मा है । प्रारंभ में ये कैसे शुद्ध मार्ग में लगें और इन्हें कैसे अपने आपके स्वरूप में मग्न होने की रुचि जगे, धुनि बने, उसके लिए उनको एक प्रभुभजन विशिष्ट सहायक है । जो मोही जन हैं उनको सभी प्रकार की आकुलतायें प्राप्त होती हैं । इन मोही जनों के चित्त में निर्दोष प्रभु की उपासना की बात कहाँ घर कर सकती है?
मोह की विकट बाधा―यहाँ जीवों पर सबसे बडी आपदा मोह की है, दृष्टिविभ्रम की है । इस लोक में है क्या? कुछ विचार भी इस प्रकार का करते हैं ये मोही जन, निर्णय भी मानते हैं, पर भीतर में वैसी बात मानने को चित्त नहीं चाहता । बातें तो सब कर के जाते हैं परंतु दिल से वैसी प्रतीति मान लें यह कठिन है । कठिन तो है, पर असंभव नही है. । सोचिये क्या है हमारा यहाँ? ऐसा सोचना कोई कठिन नहीं है, यह तो एक बहुत मोटी बात है । क्या यह वैभव, ये परिजन, ये मित्रजन अपने हैं? अरे ये कोई अपने नहीं हैं यह शरीर भी अपना नहीं है । यहाँ किसका ध्यान करें? कौन है लोक में ध्यान किये जाने योग्य? बस एक प्रभु ही हैं उपासना के योग्य, और उस प्रभु के दर्शन कब होगे? जैसे प्रभु हैं वैसा अपने आत्मा में उपयोग बनायें तो प्रभु के दर्शन होंगे । इन चर्मचक्षुवों से प्रभु के दर्शन नहीं' हो सकते । प्रभु के दर्शन होंगे ज्ञाननेत्र से । जब ज्ञान को उस रूप में ठहरायेंगे जैसे कि प्रभु में गुण हैं वैसा ही अपना उपयोग बनायेंगे तो प्रभु के दर्शन होंगे । सीधीसी बात यों भी कह सकते हैं कि जो अपने आपमें प्रभुता प्राप्त करता है वह ही प्रभु के दर्शन कर सकता है ।
प्रभु की सर्वातिशयसंपूर्णता―प्रभु के गुणों को जानकर अब भक्ति में उनके स्वरूप का वर्णन करिये । प्रभु सर्व अतिशयों से संपूर्ण हैं । अंतरंग अतिशय एवं बहिरंग अतिशय― इन दोनों अतिशयों से परिपूर्ण परमात्मा हैं । निर्दोष ज्ञान, उत्कृष्ट ज्ञान और उत्कृष्ट आनंद से वे परिपूर्ण हैं । इससे बड़ा अतिशय और क्या है? समंतभद्र स्वामी ने पहिले देवागम स्तोत्र कर के प्रभु की परीक्षा की कि मेरा माथा झुकने लायक प्रभु है, किस प्रकार का है? हे प्रभो ! आपके चरणों में बड़े-बड़े देव आते हैं, आप आकाश में गमन करते हैं, आपके ऊपर चमर ढलते हैं इससे कहीं आप प्रभु नहीं हैं, क्योंकि इस प्रकार की बातें तो मायावी पुरुष भी करते हैं । हे प्रभो ! आपके शरीर में पसीना नहीं है, अन्य भी दोष नहीं हैं, ऐसी बातें तो देवों में भी पायी जाती हैं, इनके कारण आप प्रभु नहीं हैं । तो क्या आपने धर्म चला दिया इस कारण आप प्रभु हुए? अरे नहीं―धर्म चलाने वाले भी बहुत हैं । तब फिर किस बात से प्रभु प्रभु हैं―जिसमें दोष एक भी न हो और गुण सब हों, बस ऐसी बात हो तो नमने के योग्य प्रभु वही हैं ।
अरहंत प्रभु की निर्दोषता व गुणसंपन्नता―जिसमें दोष एक भी न हो और समस्त गुणों से परिपूर्ण हो ऐसा कौन है प्रभु? हे अरहंत प्रभु ! तुम ही हो ऐसे, जो निर्दोष हो और उत्कृष्ट गुणयुक्त हो । कैसे जाना हमने? आपकी वाणी से । आदि से अंत तक आपकी वाणी सुनकर आपके गुणों को जाना । किसी के अंतरंग निर्दोषता की परीक्षा करनी हो तो उसकी वाणी सुनकर परीक्षा की जाती है । किसी व्यक्ति के जुकाम हो अथवा बुखार हो तो उसके वचनों को सुनकर यह पहिचान की जाती है कि हाँ इसके जुकाम है अथवा बुखार है, ऐसा ही कोई रोग दोष है, तो ऐसे ही हे प्रभो ! आपकी वाणी आदि से अंत तक सुनकर जाना कि आप निर्दोष हैं । आपने अपनी वाणी में कहीं कुछ कह दिया हो, कहीं कुछ विरुद्ध, ऐसी बात नहीं है । आपकी वाणी में कहीं विरोध नहीं आता । आपने अहिंसा को धर्म बताया तो कहीं भी आदि से अंत तक हिंसा को धर्म नहीं कहा । आपने गृहस्थ धर्म के विषय में बताया कि गृहस्थ तीन हिंसावों के (आरंभी, उद्यमी और विरोधी) के त्यागी नहीं हैं । कहीं यह नहीं कहा कि गृहस्थों के इन तीन हिंसावों को करे । आपने शुरू से अंत तक निर्विरोध बात बताई, इसलिए हमने जाना कि आप निर्दोष हैं, सर्व गुण संपन्न हैं । कहीं भी आपकी वाणी में विरोध की बात नहीं आयी ।
प्रभुमाहात्म्य का परिचय―समंतभद्रस्वामी जब भगवान की स्तुति करने चले तब यह प्रस्तावना की कि हे प्रभो ! अब हम आपका स्तवन करते हैं । ....अरे भाई अभी तो देवागम स्तोत्र में आपने प्रभु को बहुत कुछ कहा था । तो कहते हैं कि नहीं, अभी तो हम यह परीक्षा कर रहे थे कि मेरे नमन करने योग्य प्रभु कैसा होना चाहिए? देखिये आत्महित के प्रसंग में जिसे' हम आत्मसमर्पण करें, जिसका हम पूर्ण विश्वास रखें उसकी परीक्षा करने में कोई दोष नहीं है । तो कर ले प्रभु की स्तुति । स्तुति प्रारंभ करने में सर्वप्रथम यह कहा कि हे प्रभो ! आप ज्ञान और आनंद से परिपूर्ण हो, अनंत असीम ज्ञान और आनंद का विकास आपमें है । हे प्रभो ! इतना कहने के सिवाय और कुछ कहने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं । आपकी अचिंत्य महिमा है । उस ज्ञान और आनंद के विकास के समझने में ही प्रभु की सारी महिमा जानी जाती है । प्रभु कैसे हैं, इस बात को समझने का और कोई उपाय नहीं है । विशुद्ध ज्ञान, विशुद्ध आनंद इनकी ही बात अनुभव में लायी जाय तो प्रभु के दर्शन हो सकते हैं । अन्यथा देख देखकर आंखें फोड़कर भी किसी जगह कैसा ही श्रम करके भी प्रभु के दर्शन करना चाहें तो प्रभु के दर्शन नहीं हो सकते हैं ।
प्रभुशासन के एकाधिपत्य न होने का कारण―इसी प्रसंग में जब यह पूछा गया कि आपकी जब अचिंत्य महिमा है, आपका निर्वाध स्वरूप है, आपका शासन पवित्र है, भव्य जीवों के संसारसमुद्र से पार होने का हेतुभूत है, आपके वचनों में निर्विरोधता टपक रही है, आपके स्वरूप में शुद्ध ज्ञानानंद का विकास है, आप में कोई ऐब नहीं है, आपका उपदेश सर्व के लिए हितकर है, आपके द्वारा चलाये गए धर्म से ही सर्व जीवों का कल्याण हो सकता है, इतनी सब बातें हैं, फिर भी इस प्रकार के निर्दोष शासन का एकाधिपतित्व क्यों नहीं है? इस प्रश्न के उत्तर में समंतभद्राचार्य कहते हैं―काल: कलिर्वा कलुषाशयो वा, श्रोतु: प्रवक्तुर्वचनानयो वा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपवादहेतु: ।। तीन बातें हैं जिनके कारण हे नाथ ! तुम्हारे शासन का एक अधिपतित्व नहीं हो सका । वे तीन बातें क्या हैं? प्रथम तो है कलिकाल । समय भी ऐसा है कि जहाँ जीवों का रुख पाप की ओर, पतन की ओर जाता है । दूसरा कारण है श्रोतावों का मलीन आशय है, तीसरा कारण है वक्तावों को नयों का परिज्ञान नहीं और वे नयवाद बताकर सुनाते हैं ।
कलिकाल की अवस्था का संकेत―कलिकाल के संबंध में एक किम्वदंती है कि जैसे मानो कल तो लगेगा कलिकाल और आज है सतयुग, अच्छा युग । तो सतयुग के दिन में किसी ने अपना टूटा फूटा पुराना मकान बेचा, खरीददार ने उसी जगह नया मकान बनवाने के लिए गहरी नींव खोदी । नींव खोदते समय उसे एक अशर्फियों का हंडा मिला, तो वह पुराने मकान का खरीददार अशर्फियों के उस हंडे को लेकर बेचने वाले के पास गया और कहा कि देखो तुम्हारे पुराने मकान की खुदाई में यह अशर्फियों का हंडा निकला है, इसे ले लो, यह तुम्हारा है, मैंने तो केवल नया मकान बनवाने के लिए जमीन खरीदी है ये अशर्फियां नहीं खरीदी हैं । तो बेचने वाला कहता है कि नहीं ये हमारी नहीं हैं, हमने तो वह जगह बेच दी, अब उससे निकलने वाली सभी चीजें तुम्हारी हैं । यों वे आपस में झगड़ने लगे । झगड़ा इतना बढ़ गया कि राजा सै निवेदन करना पड़ा । पेशी हुई । राजा भी बड़ा परेशान । राजा ने भी बहुत मनाया, पर दोनों ने उन अशर्फियों को लेना स्वीकार न किया । तो राजा ने कहा अच्छा कल पेशी होगी । कल कलिकाल का प्रारंभ होगा । रात के समय बेचने वाला सोचता है कि मैं कितना बेवकूफ हूँ, मैंने व्यर्थ ही अशर्फियां लेने से मना कर दिया, अरे देता ही तो है, अब जब देने की बात आयेगी तो ले लूँगा । उधर खरीददार सोचता है कि मैं कितना बेवकूफ निकला, अरे मेरी ही जमीन में तो वह अशर्फियों का हंडा निकला, वह तो मेरा है, मैं कैसे उसे दे दूँ? राजा ने विचार किया कि वे व्यर्थ ही झगड़ते हैं, न वह अशर्फियों का हंडा उसका है, न उसका, वह तो जमीन में से निकला है सो मैं ही ले लूँगा । जब हुकुम सुनाने का समय आया तो वैसा ही हुकुम राजा ने सुना दिया ।
पंचमकाल का प्रभाव―कलिकाल से संबंधित एक बात यहाँ बतलानी है कि आज के समय में धर्म की रुचि होना, आत्मा की ओर ख्याल होना, निष्कषाय का परिणाम होना, अपने ही हित से अपना प्रयोजन होना, दूसरों को क्षमा कर देना―ये सब बातें कितनी कठिन लग रही हैं? अरे है यहाँ किसी का कुछ नहीं, सारा स्वप्न जैसा खेल दिखता है । शीघ्र ही एक दिन वह आयगा कि यहाँ से विदा होना पड़ेगा, लेकिन वासना ऐसी पड़ी है कि वह निकल नहीं पाती । सदा के लिए संसार के संकटों से छूटने की बात मन में नहीं समाती । इस जीवन के ये ऐश आराम मौज के साधन कुछ भी काम न देंगे, इस बात को वही समझ सकता है जिसे आत्मीय आनंद का कुछ अनुभव हुआ है । एक सेठानी ने नई नौकरानी रखीं । स्कूल में सेठानी का बच्चा पढ़ने गया और वह कुछ खाना न ले गया । सेठानी नौकरानी से कहती है कि तू उस स्कूल में चली जा और मेरे बच्चे को यह मिठाई दे आ । तो नौकरानी कहती है कि अभी तो मैं तुम्हारे बच्चे को पहिचानती ही नही । तो सेठानी गर्व के साथ कहती है कि मेरे बच्चे को क्या पहिचानना, स्कूल में जो सबसे अच्छा मनमोहक बच्चा दिखे वही मेरा बच्चा है । सेठानी को अपने बच्चे के सौंदर्य पर गर्व था । चली नौकरानी स्कूल, तो उसे स्कूल के सभी बच्चों में सबसे सुंदर मनमोहक अपना ही बच्चा दिखा, जो कि उसी स्कूल में पढ़ता था । उसी को मिठाई खिलाकर वह चली आयी । शाम को जब सेठानी का बच्चा घर आया तो अपनी मां से कहने लगा―मां आज तुमने हमें कुछ भी खाने को नहीं भेजा था । तो सेठानी बोली कि भेजा तो था नौकरानी के हाथ । नौकरानी को बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि मुझे तो स्कूल में सबसे सुंदर मनमोहक मेरा ही बच्चा दिखा था सो उसी को मिठाई खिलाकर मैं चली आयी थी । तो जिसमें जो बात बसी है वह तो उसके अनुकूल ही अपना उपयोग निकालेगा । जिसे आत्मानुभव हुआ है, उस निष्पक्ष आत्मीय आनंद का जिसने कुछ भी अनुभव किया है वह तो समझेगा कि सब असार है । तो लोगो की इस ओर रुचि कम होती है, यह सब एक कलिकाल की भी बात कही जा सकती है ।
प्रभुशासन का एकाधिपत्य न होने के द्वितीय और तृतीय कारण―दूसरा ऐब क्या है कि श्रोतावों का अभिप्राय कलुषित है । कोई मद्य मांस खाता हो, उसका निषेध करते हुए बोला जाय तो उसे वे बातें न रुचेंगी । एक राजा अपने पुरोहित से रोज शास्त्र सुना करता था । एक दिन पुरोहित कहीं बाहर चला गया, उसके लड़के ने शास्त्र पढ़ा, राजा ने सुना शास्त्र । उसमें मद्य, मांस के निषेध का प्रकरण था । प्रकरण यह था कि जो रंच मात्र भी मद्य, मास का सेवन करता है वह नरक जाता है । राजा को यह बात सुनकर बड़ी बुरी लगी । दूसरे दिन जब पुरोहित आया तो कहा कि कल के दिन तुम्हारे लड़के ने इस तरह से शास्त्र पढ़ा था । तो पुरोहित बोला कि ठीक ही वह कह रहा था । जो रंचमात्र मद्य मांस का सेवन करता है वह नरक जाता है, जो किलो दो किलो मद्य मांस का सेवन करे उसके लिए नहीं कहा था (हँसी) । तो बताया है कि श्रोताजनों का अभिप्राय कलुषित है । यह भी कारण है कि प्रभो ! आपके शासन का एक आधिपत्य नहीं हो सका है । तीसरी बात बतायी है कि वक्तावों को नय का विवेक नहीं है, किस नय से क्या कथन है, किस नय की क्या दृष्टि है? उस दृष्टि को न जानने के कारण भी एक यह शासन के विस्तार की रुकावट हो सकती है ।
प्रभु का उत्कृष्ट अतिशय―समंतभद्रस्वामी ने प्रभुस्तवन में यह बात बतायी है कि उत्कृष्ट ज्ञान और उत्कृष्ट आनंद आपका है । इतनी ही बात हम आपके स्तवन में कह सकते हैं, इससे अधिक हम और क्या कहें? तो प्रभु सर्वज्ञ अतिशय कर संपूर्ण हैं । प्रभु का ध्यान बना रहे, प्रभु के गुण हमारे उपयोग में समाये रहें तो इससे बढ़कर और क्या कहा जाय? जिस उपयोग में विषय कषायरहित परमतत्त्व समाया रहे वह उपयोग तो धन्य है । उस समय तो यह जीव एक अद्भुत आनंद का अनुभव करता है । प्रभु सर्व अतिशयकर संपूर्ण हैं और समस्त लक्षणों से युक्त है । देखिये लक्षण कहो, लक्ष्मी कहो, लक्ष्य कहो सबका एक ही अर्थ है । लोग कहते हैं कि लक्ष्मी की प्राप्ति हो । वह लक्ष्मी क्या? जो सर्वहितकर सर्वरूप से उपादेय लक्ष्मी होती है वह लक्ष्मी क्या? जो आत्मा का लक्षण हो, आत्मा का गुण हो उस ही का नाम लक्ष्मी है । आत्मा का असाधारण गुण ज्ञान है । ज्ञान का नाम लक्ष्मी है, पर जो सर्व प्रकार उपादेय है, हितकारी है ऐसे ज्ञान को लक्ष्मी तो पहिले कहेंगे, पर लक्ष्मी की तो ख्याल याद रही और ज्ञान की याद भूल गई । फिर जिसमें भलाई समझा, जिसमें आनंद समझा, जिसे विषयों के साधन समझा, ऐसी द्रव विभूति को लोग लक्ष्मी कहने लगे । तो सर्व लक्षणों से प्रभु लक्षित हैं ।
प्रभु की सम्यक् उपासना―प्रभु के स्वरूप के अनुरूप अपने उपयोग को जो बताते हैं और उस उपयोग में प्रभु को विराजमान करते हैं, प्रभु की पूजा करते हैं वे बाद में अपने ही भावों से अपने को प्रभुरूप अनुभवने लगते हैं । यद्यपि उनका परिणमन उस समय प्रभुरूप नहीं होता फिर भी जिस प्रकार का वे चिंतन करना चाहें करें, उसमें रुकावट कुछ नहीं है । देखिये सम्यग्दृष्टि जीव हो, जिसके कि रागद्वेष नहीं समाप्त हुए । निरंतर रागपरिणमन, द्वेषपरिणमन, किसी भी प्रकार का कषायपरिणमन चल रहा है, जिस सम्यग्दृष्टि के अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण अथवा संज्वलन किसी भी प्रकार का रागद्वेष चल रहा है, परिणमन निरंतर चल रहा है, वह हटा नहीं है लेकिन यह उपयोग जब आत्मा का अनुभव करने के लिए उद्यत होता है तो यह उपयोग न तो शरीर से अटक खाता है, न कर्मों से और न उन रागपरिणामों से । सबको भेदकर अंतः में ज्ञायकस्वरूप को लक्ष्य में ले लेता है । तो हम इस उपयोग के द्वारा प्रभु के स्वरूप को जो निर्दोष है उसको उपयोग में ले और उस रूप अपने में अनुभव करे तो इसमें कोई अटक नहीं है ।
प्रभुभक्ति से आत्मपावनता―प्रभुता के गुणों को हम उपयोग में ले लेते हैं और उस रूप अपना अनुभवन बनाया करते हैं । जब उस प्रकार हम प्रभु में एक अभेदरूप से मग्न हो जाते हैं तो यहाँ एक अद्भुत आनंद प्रकट करता है । बस इस ही विशुद्ध आनंद की प्राप्ति के लिए हम आपको अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिए । घर के लोग हैं, उन्हें भी यह सिखायें तो आपको कोई लौकिक बाधायें न आयेंगी । सभी के सभी संतुष्ट रहेंगे । जो स्थिति प्राप्त है आजीविका संबंधी उसी में वह सब परिवार तृप्त रहेगा और उस संतोष के वातावरण में आत्महित की बात में अपना कदम बढ़ा लीजिये । तो सर्व सार यही है । शेष जो कुछ भी गृहस्थ धर्म में करना पड़ रहा है उसे इस गृहस्थ धर्म में करना पड़ता है । जैसे कि कहा गया कि जिस गृहस्थ के पास कौड़ी नहीं वह बेकौड़ी का और जिस त्यागी के पास कौड़ी है वह बेकौडी का । तो जो व्यक्ति गृहस्थधर्म में रहकर न्यायनीति से कमाई कर के गृहस्थधर्म का पालन करे वह भी पवित्र आत्मा है । गृहस्थधर्म को न्यायनीति से पालते हुए तन, मन, धन, वचन से धर्म उत्थान में, धर्म प्रभावना में भी अपना समय लगायें । कभी कोई उपसर्ग आता है धर्म समारोह आदि के समय भी अनेक उपद्रवों का सामना करना पड़ता है, उस स्थिति के समतापरिणाम से झेल जाय तो क्या ऐसे आत्मा को पवित्र आत्मा न कहेंगे? गृहस्थधर्म भी बहुत महत्व रख रहा है । आखिर है बात ऐसी ही कि साधुता बिना मुक्ति नहीं मिलती, पर आज के समय में जैसा कि प्रभु ने श्रावकधर्म में बताया है कि जो गृहस्थ धर्म को निर्दोष रूप से पालन करे वह भी पवित्र आत्मा है । सो निर्दोष प्रभु के ध्यान से अपने आपके हृदय को पवित्र करना चाहिए और अपना आत्मबल बढ़ाना चाहिए ।
परमात्मतत्त्व का निर्मल आशय के आसन पर अवस्थान―अपने आपको सर्व संकटो से रहित परमशांतिपद में ले जाने का इच्छुक पुरुष जगत में सर्व ओर दृष्टि डालकर निहारता है कि मेरा हितरूप कौन है, सर्वत्र देखा इसने., पर अन्य कोई पुरुष इसे अपने हितरूप नजर नहीं आया । देखते-देखते चिंतन करते-करते अब यह समझ में आया कि जो स्वयं निष्कलंक है, अपने आपके विशुद्ध ज्ञानानंदरस में लीन है ऐसे प्रभु सर्वज्ञ परमात्मा का स्मरण ही शरण है, अतएव यही परम आत्मा मेरे ही क्या, समस्त प्राणियों के हितरूप है । जब तक अपने आपके हृदय में स्वच्छता नहीं प्रकट होती, किसी भी प्राणी में द्वेष विरोध मोह की दृष्टि नहीं रहती, एक इस अशरण संसार में अपने आपके आत्मा की जिसे वांछा है ऐसे पुरुष के हृदय में प्रभुस्वरूप विराजमान होता है । जैसे कभी कोई बड़ा नेता या कोई अधिकारी किसी के घर आया हो तो कैसा वह अपने घर को सुसज्जित करता है, घर का सारा कूड़ा कचरा निकालकर घर को साफ स्वच्छ करता है । तो जिस हृदय में हम उस प्रभुस्वरूप को विराजमान करना चाहते हैं जो समस्त प्राणियों के हितरूप है, जिनकी उपासना में तीनों लोक के इंद्र बड़े उत्साहपूर्वक पहुंचते हैं, बड़े-बड़े मुनीश्वर जिनके ध्यान में अपने आपका जीवन सफल समझते हैं, ऐसे प्रभुस्वरूप को हम अपने चित्त में विराजमान करना चाहें तो हमें सबसे पहिले अपनी स्वच्छता कायम करनी होगी।
चित्त को मलिन बनाने की निरर्थकता―किसके लिए हम अपने चित्त को मलिन बनायें । अधिक से अधिक विकल्प होते हैं नामवरी के, पर सबसे बड़ा विष है नामवरी का । अरे किन में अपनी नामवरी की चाह करते? इन मोही मलिन जीवों में ही ना । इनमें विरले ही लोग ज्ञानी हैं । इन मोही मलिन लोगों में अपने नामवरी की चाह करन से क्या लाभ? लोग मुझे समझें कि यह भी विद्यावान हैं, कलावान हैं, कुछ और-और भी प्रशंसायें कर दें । अरे इन्हीं बातों के लिए यह मनुष्यभव पाया है क्या? यह तो वैसा समझो जैसे कि बर्तन मलने के लिए चंदन का वन जलाकर राख बनायी जाय । अरे यहाँ किसको प्रसन्न करना? प्रसन्न करो एक अपने आपको, अपने उपयोग को, अपने इस विशुद्ध सहज ज्ञानस्वरूप में रखकर उसके निकट बसकर सारे इन विकल्पजालों को तोड़कर सच्ची प्रसन्नता प्राप्त करें । यह प्रभु सर्वभांति हितरूप हैं और परमशील शैलेंद्र (पर्वत) का शिखर है । शुद्ध स्वभाव उनमें विकसित हुआ है । ऐसे प्रभु सकलपरमात्मा का ध्यान करना रूपस्थध्यान है ।