वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2029
From जैनकोष
भामंडलनिरुद्धार्कचंद्रकोटिसमप्रभम् ।
शरण्य सर्वगं शांतं दिव्यवाणीविशारदम् ।।2029।।
प्रभु की चग्द्रसूर्यातिशायिनी प्रभा―जिस धाम में प्रभु बसे हैं सोचो तो सही कि वह परम ज्योति रागद्वेष की कालिमा से सर्वथा रहित अपने दिव्यज्ञान से लोकालोक को प्रकाशित करने वाला है ऐसे प्रभु जिस काय में बसे हैं उस काय ने भी बड़ा परिवर्तन कर लिया । दिव्यकाय हो गया, परमौदायिक शरीर हो गया, उनके शरीर से प्रभा निकली, भामंडल बना, उस भामंडल के द्वारा निरुद्ध कर दिया है सूर्य चंद्र की प्रभा जिसने ऐसे वे प्रभु हैं । देखो कुछ तो यह बाह्य अतिशय है और अंदर में देखो तो एक वह प्रभा उत्पन्न है जो कि मध्यलोक की सभी ज्योतियाँ एकत्रित होकर भी उस प्रभा को नहीं उत्पन्न कर सकतीं । वह प्रभा प्रभु के पवित्र आत्मा में है, उस ज्ञानप्रकाश में है । जिसके द्वारा समस्त लोकालोक को वे हस्त तल पर रखे हुए आँवले की तरह जानते हैं । जैसे आँवले का अवलोकन बहुत अंशों में शीघ्र ही हो जाता है ऐसे ही प्रभु को लोकालोक का ज्ञान शीघ्र ही हो जाता है ।
प्रभु की शरणभूतता का संदेश―आचार्यों के वचन सुनने में कोई बातें बड़ी सीधी लगती हैं, पर उनके अंदर क्या-क्या बातें छिपी हैं, चाहे वे आचार्य प्रयोग करते समय उतना विचार रख भी न रहे हों, किंतु उनके सहज ही ऐसी कला है, उनका ऐसा पांडित्य है कि ऐसी शब्दरचना हो जाती है । एक बहुत सीधा शब्द है चत्तारिमंगलं । इसका अर्थ क्या है? चार मंगल हैं, पर चत्तारि शब्द के दो भाग करें―चत्ता (त्यक्ता) अरि । चत्ता का अर्थ है त्यागना ब अरि का अर्थ है कर्म बैरी । तो अब चत्तारि के चार अर्थ करें । दूर हो गये हैं दुश्मन जिससे, दूर हो चुके हैं समस्त दुश्मन जिससे, दूर कर रहे हैं दुश्मनों को जो, त्यागे जाते दुश्मन जिसके द्वारा ऐसे वे मंगल हैं । इसी प्रकार ये चार लोकोत्तम हैं और शरणभूत हैं । वे चार हैं―अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म । सो इससे विदित है कि प्रभुस्वरूपस्मरण हम आपको शरणभूत है, तो जिनका वह दिव्य ज्ञान समस्त विश्व को स्पष्ट जानता है । ऐसे सर्वज्ञ परमात्मा का स्मरण करो । जो शरण है, जिसका शरण ग्रहण करने पर आत्मा को शरण मिलता है, बिना राग किये, बिना भक्तों को पुकारे, बिना उन्हें अपनाये, जिनका दर्शनमात्र ही भक्तों को शरण हो जाता है ।
बाह्य में संग्रह विग्रह कर के दु:खविनाश किये जाने की असंभवता―भैया ! लोक में क्या दुःख है, एक उस तरह की दृष्टि बना लिया जिससे दुःखी हो रहे । किसी का धन गिर गया तो वह क्यों दुःखी हो रहा? एक दृष्टि ही तो कर रहा जिससे दुःखी हो रहा । किसी महापुरुष का दर्शन हुआ, उसकी वैराग्य मुद्रा, शांत मुद्रा को निरखकर दृष्टि पलट जाय, लो सारे दुःख मिट गए । बतावो किसने दुःख मिटा दिया? अरे उस पवित्र आत्मा के दर्शन ने ही दुःख मिटा दिया । हुआ क्या कि उस समय स्वयं उसने अपनी दृष्टि बदल ली और वे सब दु:ख विश्रांत हो गए । कोई बड़ा दुःखी है, भला बतलावो उसका दुःख एक मिनट में ही मिट सकता है या नहीं? मिट सकता है । कैसे? जिन कल्पनाओं के आधार पर वह दुःखी हो रहा था उन कल्पनाओं को अपनी दृष्टि बदलकर मेट दे, लो शीघ्र ही वह सारा दुःख मिट जायगा । नहीं तो यहाँ किस किसकी सम्हाल करके अपने दुःख मेटोगे? एक की सम्हाल करोगे तो दूसरा बिगड़ जायगा, उसकी सम्हाल करोगे तो दूसरा बिगड़ जायगा, उसकी सम्हाल करोगे तो तीसरा बिगड़ जायगा । जैसे किसी से कहा जाय कि जरा एक किलो जिंदा मेंढक तौलकर दिखा दो तो क्या वह दिखा सकता है? नहीं दिखा सकता । क्योंकि एक चढ़ायेगा तराजू पर तो दूसरा उछल जायगा, ऐसे ही यहाँ की व्यवस्थायें बना बनाकर भी ये सारे संकट नहीं मेटे जा सकते हैं । कल्पनाओं के अनुसार काम करके, श्रम करके, संकटों को मिटाना चाहें तो सारा जीवन लगा दिया जाय फिर भी संकट न मिट सकेंगे । अनेक धर्मात्मा लोगों के मुख से सुना होगा कि हम तो केवल साल दो साल ही इन झंझटों में पड़े हैं, फिर इन सब झंझटों से मुक्त होकर एक धर्म के कार्य में ही लगेंगे । पर होता क्या है कि वह समय भी निकल जाता है, और भी बहुतसा समय बीत जाता है, पर जैसे के तैसे ही वे अपने आपको पाते हैं । तो बात क्या है? वे अपने आत्मबल को बढ़ाना नहीं चाहते, ज्ञान की सुधि नहीं लेते, अपने आपके परमात्म तत्व की शरण नहीं गहते, सो यह स्थिति हो जाती है । तो बाहरी समागमों में रहकर उनका संग्रह विग्रह करके उससे सुख की आशा करना यह तो जिंदा मेंढक तौलने की तरह है ।
व्यापक शांत दिध्यवाणीश्वर प्रभु की शरण्यता―ऐसे प्रभु जो सर्वत्र व्यापक हैं, सब जगह हैं, ज्ञान सब जगह है ना, इनका सभक्तिस्मरण करो । ज्ञान यद्यपि सबका अपने आपके प्रदेशों में है, पर ज्ञान जितने पदार्थो में है उन समस्त पदार्थों में व्यापक है । लोकाकाश के बाहर आकाश ही आकाश है किंतु ये प्रभु अलोकाकाश में भी जा धमके, प्रदेशों से नहीं, किंतु ज्ञान से । उनका ज्ञान अलोक को भी जानता है, उस दृष्टि से प्रभु सर्वज्ञ हैं. शांत हैं और दिव्यवाणी में विशारद हैं । जिनकी दिव्यध्वनि कितने हो अर्थों से भरी है, कितने ही मर्मों से भरी है जिसका विस्तार इतना महाशास्त्र है कि जब द्वादशांग की, पूर्वो की रचना विस्तार को सुने तो अंदाजा होता है कि यह कितना बड़ा अंग है, यह कितना बड़ा पूर्व है, उनके पदों को देखें तो इतना विशाल जंचता है कि जिसे कोई बोल नहीं सकता, पढ़ नहीं सकता । परंतु सामर्थ्य है ऋद्धि के प्रताप से उन ऋषिजनों में कि इतने बड़े भी द्वादशांगों को अंतर्मुहूर्त में भी पढ़ लेते हें मन से चिंतन कर लेते। हैं, ऐसे अलौकिक अर्थों से भरे, दिव्यवाणी में वे प्रभु विशारद हैं, ऐसे प्रभु का शरण प्राप्त हो, यही अपने आपके उद्धार की बात है । हम आपका चित्त बस दो जगह ही तो लगना चाहिए―प्रभु के गुणों की ओर और अपने आपमें बसे हुए उस विशुद्ध स्वरूप की ओर । व्यवहार से वे प्रभु शरण हैं, परमार्थ से अपने स्वभाव का आलंबन शरण है ।