वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2058
From जैनकोष
वीतरागं स्मरन्योगी वीतरागो विमुच्यते ।
रागी सरागमालंब्य क्रूरकर्माश्रितो भवेत् ।।2058।।
जगत के चराचर वैभवों में राग कर के हैरान हो चुके? पुरुष कुछ विवेक जगाकर इस तलाश में हैं कि मैं किस जगह पहुंचूं कि मेरी ये सारी हैरानी दूर हो जाये । वह जगह कौन मिली इस विवेकी को? वह जगह मिलती है रूपातीत । अर्थात् जहाँ शरीर नहीं, मुद्रा नहीं, किसी प्रकार का रूप नहीं, मूर्ति नजर न आये, केवल एक ज्ञानज्योतिमात्र तत्व बोध में रहे ऐसा पद मिला इस विवेकी को मोक्ष । उस पद में जाने से पहिले उस तत्वार्थी को यह शिक्षा दी जा रही है कि देखो कैसे जाना चाहिए वहाँ? जो वीतराग तत्व का स्मरण करता है और जो सराग पुरुष का सराग तत्व का आलंबन करता है वह क्रूर कर्मों के अधीन हो जाता है ।
पंचेंद्रिय के विषय―हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदिक क्रूर कर्मो में शांति नहीं है, वे मिट जाने वाले हैं । माह में ऐसा यह प्राणी ख्याल नहीं करता । यही कारण है कि जब कभी मिटता है यह वैभव तो एकदम बड़ा धक्का लगता है । यदि पहले से ही कोई इस बात का ध्यान रखे कि यह तो मिटने के लिए ही है―चाहे जब मिट जाय, चाहे जैसे मिट जाय तो उसके मिटने पर वह खेद न मानेगा, क्योंकि वह तो पहिले से ही समझ रहा था कि यह मिटेगा अवश्य । ऐसे ही किसी इष्ट के प्रति पहिले से ही यह ख्याल हो जाय कि इसका वियोग अवश्य होगा चाहे जब हो, चाहे जैसे हो, तो उसका वियोग होने पर वह खेद नहीं मानता, क्योंकि वह तो पहिले से ही समझ रहा था कि इसका वियोग अवश्य होगा । जैसे कोई नेता सरकार भंग होने के थोड़े दिन पहिले ही यह बात बता दे कि शीघ्र ही यह सरकार भंग हो जायगी तो भंग हो जाने पर वह बड़ा हर्ष मानता है कि देखो मैं जो कह रहा था सो ही हुआ ना, ऐसे ही समझो जिसने अपनी अच्छी समझ पहिले से ही बना रखी है वह किसी भी दु:खद घटना के घटने पर दुःखी नहीं होता । जो क्रूर कर्मो में रहता है उसे शांति नहीं मिलती और जो वीतराग प्रभु का स्मरण करता है, उसका परिणाम शुद्ध है तो वह निराकुल है, निर्भार है, नि:संग है, और वह पुरुष वीतराग प्रभु के स्मरण के प्रसाद से कर्मों से मुक्त हो जाता है ।