वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 207
From जैनकोष
न तत्त्रिजगतीमध्ये भुक्तिमुक्तयोर्निबंधनम्।
प्राप्यते धर्मसामर्थ्यान्न यद्यमित मानसै:।।207।।
संयमी जनों को सर्वसमृद्धिलाभ―जिसने अपने मन को संयत बनाया है, अपने मनोभावों पर संयम किया है उस पुरुष को लोक में कोर्इ भी चीज अलभ्य नहीं है, शांति के सभी साधन प्राप्त होते हैं। जिसको जगत के किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं है
उसको सब चीजें प्राप्त होती हैं, इस बात को दो पद्धतियों से समझें, प्रथम तो जो पुरुष रागद्वेष मोह से दूर रहता है वह विशुद्ध होता है। उसके ऐसा पुण्य का बंध होता है कि पुण्य का उदय में अनेक तरह की समृद्धियाँ हाजिर हो जाती है। एक शंका की जा सकती है कि सुख समृद्धियाँ तो बहुत तरह की हैं, सब इसके पास कैसे पहुँचती हैं। तो उसका उत्तर एक यह लें कि जितनी उसकी कामनाएँ हैं उतनी समृद्धि उसके पास आ जाती है। दूसरी पद्धति में यह अर्थ समझो कि जिसको किसी वस्तु की चाह ही नहीं है उसे निराकुलता है, और जिसको निराकुलता है उसको सब कुछ मिल गया। कुछ भी चीज पास नहीं है इस पर दृष्टि न दें किंतु उसके निराकुलता है, ज्ञान है, शांति है, इस पर दृष्टि दें। जिसने समस्त रागद्वेष मोह का त्याग कर दिया है, केवल शुद्ध निज ज्ञानस्वरूप के ध्यान में ही लीन रहा करता है उस पुरुष को सब कुछ मिल गया। अब क्या चाहिए?
विशुद्ध ज्ञान में अकर्तृत्व―सिद्ध भगवान को परमात्मप्रभु को कृतकृत्य कहा है। जिसने समस्त कृत्य कर लिया उसे कृतकृत्य कहते हैं। काम वह एक भी नहीं करते और कहा गया कृतकृत्य, जिसने सारे काम कर लिये। तो अर्थ यह है कि ज्ञान का जहाँ शुद्ध विकास है वहाँ बस ज्ञान परिणमन ही रहा करता है। उन्हें बाहर में कुछ करने को हुआ ही नहीं करता है। वस्तुस्थिति तो यह है कि बाहर में कुछ करने को तो किसी को भी नहीं पड़ा, मोही जीव भी बाहर में कुछ नहीं किया करता लेकिन कल्पनाओं में तो माना है इसलिए उसे कर्ता कहा गया है। वस्तु का स्वरूप तो ऐसा है कि कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का कर्ता नहीं होता लेकिन मोही जीव ने अपनी कल्पना में तो कर्ता मान लिया। बस कर्तृत्व की कल्पना मिट जाने का नाम ही अकर्ता है। वस्तुस्वरूप की ओर से देखो तो प्रत्येक जीव अकर्ता है। कोई किसी का कुछ करता नहीं है। तो जिसके किसी भी परवस्तु की इच्छा नहीं है, जो किसी भी परपदार्थ में कुछ परिणमन करने की उत्सुकता नहीं रखता उसने सब कुछ कर लिया। यह बात वहाँ ही ठीक बैठती है जिसको कुछ करने को नहीं रहा। या इसे पर्यायवाची शब्द समझिये, जब करने को कुछ नहीं रहा उसी का अर्थ है सब कुछ कर लिया।
कार्य समापन का उपाय―भैया ! करने-करने से काम समाप्त नहीं होता। कुछ करने को न रहे उससे काम समाप्त होता है। करने-करने के रोग में तो सारी जिंदगी गुजर जाती है। जैसे कोई बालक है, विद्या पढ़ रहा है कुछ धर्म ध्यान की ओर भी चित्त है तो वह कल्पना करता है कि हम कुछ बड़े हो जायें फिर हम सब दंदफंद छोड़ देंगे। अभी तो हम परतंत्र हैं, माँ-बाप जैसा चाहे रखते हैं हम बड़े हो जायें फिर धर्म करेंगे। बड़ा होता है तो वहाँ कल्पनाएँ जगती हैं अभी कुछ 10-5 वर्ष घर में रहें, अभी शादी हुई है, घर गृहस्थी का सुख देखें बाद में खूब धर्म करेंगे। जब बच्चे भी हो गए, सारा काम बच्चे संभालने लगे तब थोड़ा शौक उमड़ता है कि हम पोते देखें। तो करने का तो ऐसा रोग है कि करने-करने का काम पूरा नहीं हो सकता। करना भी न रहे ऐसे भाव में काम पूरा होता है। अब सोच लीजिए करने का काम पड़ा रहे उसमें शांति मिलेगी या जब करने को कुछ नहीं रहा यह आशय बने जहाँ शांति मिलेगी? करने को पड़ा रहे कुछ उस कल्पना में शांति मिल नहीं सकती। करने को कुछ न रहे इस भाव में शांति मिलेगी।
ज्ञान से ही कृतकृत्यता संभव―करने को कुछ न रहे, यह बात कर-कर करके मिलेगा क्या? नहीं। ज्ञान से मिलेगी। जब वस्तु के सही स्वरूप का बोध हो कि प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से हैं, अपनी शक्ति से है। उसका जो कुछ भी परिणमन होता है उसमें जो भी बात बनेगी वह उसके ही परिणति से बनेगी करने से नहीं। मैं अब भी किसी पर-पदार्थ में कुछ करता ही नहीं हूँ। अपना भाव ही गूँथ रहा हूँ। अपनी कल्पना ही बना रहा हूँ। यह भी मैं किसी पर का कुछ करता नहीं। अपना ही करने वाला हूँ। तो मेरे करने का पर में रखा क्या है? मैं करता ही क्या हूँ? मैं कर ही नहीं सकता। अपने भावों की सृष्टि रचता रहता हूँ। बस यही मेरा कर्तव्य है। जब वस्तु का स्वरूप का भान होता है उस समय यह भाव बनता हे कि मेरे करने को कुछ बाहर में नहीं पड़ा और वही एकाग्र बन सकता है। वही ध्यान में सफल हो सकता है जिसको यह निर्णय पड़ा हो कि मेरे करने को कुछ नहीं पड़ा है।
चित्त की अस्थिरता का कारण―जो धर्म में, जाप में मन नहीं लगता। मन स्थिर नहीं होता, जगह-जगह मन डोलता रहता है उसका कारण क्या है? चित्त में यह बात बसी हुई है कि मेरे करने को यह काम पड़ा है। इस बात के बसने के कारण चित्त अपने में एकाग्र नहीं हो पाता। मूल बात यह है। और यह बात सब जगह घटित होती है। कोई माही जीव है उसका धर्म में मन नहीं लगता तो वहाँ भी यही कारण है। किसी ने घर त्याग दिया और घर त्यागने पर भी यदि मन नहीं एकाग्र होता तो उसका भी यही कारण है। वह घर के काम में तो करने का संकल्प नहीं करता किंतु वहाँ जाना, यह करना, अब अमुक भाषण करना, अमुक धर्म साधन करना, ये तक भी चित्त को एकाग्र नहीं रहने देते।
शुद्ध दृष्टि से धर्म की प्राप्ति―तो जब शुद्ध दृष्टि होती है वहाँ जो धर्म भाव उत्पन्न होता है। उस धर्म में यह सामर्थ्य है कि इसे सब शांति के साधन अपने आप प्राप्त होते हैं ऐसा कोई भी साधन नहीं है जो धर्मात्मा जीव को प्राप्त न हो सके। धर्म में ऐसी सामर्थ्य हे कि भावना करने से धर्म में रुचि जगती है और जितने भी सुखसाधन शांति साधन मिलेंगे वे सब धर्म के प्रताप से ही मिलेंगे।