वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 43
From जैनकोष
उपर्युपरिसंभूतदु:खवद्विक्षतं जगत्।
वीक्ष्य संत: परिप्राप्ता ज्ञानवारिनिधेस्तटम्।।43।।
सुखद ज्ञानतट― बार-बार उत्पन्न हुई दु:खरूपी अग्नि से नष्ट हुए जीवलोक को देख कर संतपुरुष ज्ञानसमुद्र के तट को प्राप्त हुए है। जैसे कहीं अगल-बगल वन के छोर पर अग्नि तीव्र जल रही हो और वहाँ बहुत से लोग खाक हो रहे हों तो बुद्धिमान लोग शीघ्र ही समुद्र के तट पर पहुँचने की कोशिश करते हैं, यहाँहम आग से बच जायेंगे, ऐसे ही इन विषयकषायों के दु:ख की अग्नि से जल रहे लोगों को देखकर ज्ञानी सत्पुरुष ज्ञानरूपी समुद्र के किनारे बैठ गए हैं। यहाँआग न आ सकेगी और कदाचित् दु:ख आयेगा, अग्नि यहाँआयेगी तो थोड़ा समुद्र की तरंगों से बुझा लेंगे। कहीं पानी में आग तो न आ सकेगी, ऐसे ही इन ज्ञानी पुरुषों ने सोचा कि यह संसार दु:खों का घर है। यहाँ दु:खरूपी अग्नि से यह जीवलोक जल रहा है। अपन सावधान हो जायें इस तरह जलने में कुशलता नहीं है। जरा ज्ञानसमुद्र के किनारे बैठ जाए तो वहाँइस दु:ख विपदा से मुक्त हो जायेंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने एक ही निर्णय किया है― ज्ञानी के निकट अपना उपयोग बनाये रहना।
शांति के उपाय में― इस जगत् में और सारभूत बात ही क्या है? एक अपने ज्ञानस्वरूप का उपयोग बनाये बिना कुछ भी अन्य उपयोग बना लो पर वहाँचैन नहीं है। बाहर में कुछ से कुछ संचय कर लो, वहाँभी चैन नहीं है। शांति मिलेगी तो सबसे निराले ज्ञानमात्र निजस्वरूप की प्रतीति में मिलेगी। यह उपाय बनावटी नहीं है। यह उपाय कहीं जोड़ तोड़ करके कुछ कृत्रिम किया गया हो सो नहीं है। यह उपाय अयथार्थ नहीं है। किसी संकट के समय और कुछ न सही तो इसी को ही कर लें, ऐसा कोई आपात्कालीन की ढूँढी हुई चिकित्सा नहीं है, किंतु यह बात ध्रुव यथार्थ है― एक ज्ञान भाव के स्पर्श के बिना हम आपको कभी शांति मिल नहीं सकती। एक बार तो सर्वविकल्पों को त्यागकर अपने आपको सबसे सूना केवल निज प्रकाशमात्र निरख लो और निरखकर अंतर्जल्प में इसका जयवाद बोल तो लो― इस निज की जय हो, यह विकसित हो। यही एक उत्कृष्ट विजय है, बाहरी बातों में कुछ से कुछ स्थिति बनाकर और अपने को विजयी समझकर भ्रम में बना रहना यह तो एक धोखे वाली बात है।
स्वहित के निश्चय का अनुरोध― भैया !खूब ध्यान से विचार लो और अपने मन में स्वहित का निश्चय बना डालो। जो बात सच है उसको यथार्थ मान लेने में ही अनुपम लाभ है और यह उपाय है केवल भीतर एक ज्ञान जगाने का, जिसमें न द्रव्य का खर्च है, न किसी के हाथ जोड़ने पड़ते हैं, न कोई आधीनता है। यों ही बैठे-बैठे यहाँ भीतर ही भीतर जैसे कोई विश्राम से बैठा हो तो अपने ही गले में से घूँट गटक लेता है बिना ही पानी पिये, मुँहभी बंद है फिर भी गले से कुछ घूँट उतर आता है जब मन चंगा और विश्राम में होता है, ऐसे ही यथार्थ निर्णय करके इस वैभव को असार, अहित जड़ भिन्न मानकर जैसे धूल पाषाण जुदे हैं ठीक इसी प्रकार ये वैभव, धन, दौलत भी जुदे हैं। जैसे कि धूल और पत्थर से मेरे आत्मा में कोई वृद्धि नहीं होती ऐसे ही चिकने चपड़े स्वर्ण वैभव इनसे भी आत्मा में रंच सिद्धि नहीं होती।
भावविशुद्धि का अनुरोध― जब सब यहाँ कल्पना की ही बात है तो ऐसी कल्पना करो जिसमें पूर्ण शांति भरी पड़ी हो। धन वैभव परिजन की ममता की कल्पनाएँ बनाकर कुछ छुटपुट मौज लूटी है तो वह कल्पनावों की मौज है। अब भाव ऐसा बनावो ना जिस भाव में आत्मा को परमशांति प्राप्त हो। बच्चे लोग जीवनवार का खेल खेलते हैं। बैठा लिया 10-5 बच्चे और बड़े-बड़े कंकड़ बीन लाये, उनको मान लिया गुड़ की डली, लो खावो गुड़की डली, छोटे कंकड़ बीन लिये और कह दिया लो खावो चने, पत्ते तोड़लिये उनको देकर कहा― लो खावो रोटी। अरे बच्चों जब कल्पना ही करना है तो गुड़की डली न कहकर अच्छा बड़ा रसगुल्ला क्यों न कह लो, अथवा छोटेकंकड़ों को चने न कह कर बूँदी कह लो अथवा पत्तों को रोटी क्यों कहकर परोसते हो, उन्हें अच्छी पूड़ी कचौड़ी कह लो, जब कल्पना ही करना है तो अच्छी कल्पना करो, तुच्छ भावना क्यों करते हो? जब यह जगत में केवल भावों का ही सुख है, चीज का सुख नहीं है, किसी परवस्तु से सुख निकल ही नहीं सकता। जब केवल भावों का ही सुख है, तब अपनी हिम्मत बनाकर जरा ऐसा भाव बना लो जिस भाव के बाद फिर और जघन्य भाव लौटकर आये ही नहीं और परम आनंद का अनुभव किया जा सके।
आत्मरक्षा के यत्न में― अपनी परिणति अपनी भीतर की गाड़ी है, अभी बिगड़ी पड़ी है, इसे जरा सुधार लो तो फिर चल जायेगी। जहाँकायर चित्त है वहाँ सब बिगाड़ ही है। देखो ज्ञानी पुरुष इस जीव लोक को दु:ख की अग्नि में जलता हुआ निरखकर शीघ्र ही विवेक करके ज्ञानसमुद्र के तट पर पहुँच जाते हैं। इस कथन में यह शिक्षा दी है कि ज्ञान का शरण लेने से ही दु:ख मिटेंगे। दूसरा और कोई उपाय नहीं है। यहाँके लोगों ने न अच्छा कहा तो न कहने दो। अगर हम कीड़ा, मकौड़ा के भव में होते तो इस मनुष्य के समूह में हम कुछ आशा की कल्पना ही न करते। हम न जाने कहाँ के कहाँ थे? एक भव ऐसा ही सोच लो। अपने आपका मार्ग प्रशस्त हो, ज्ञानप्रकाश मिले ऐसा उद्यम करिये। यह क्या है यहाँकी विभूति? अरे ! मरकर इससे हजारगुनी विभूति तुरंत मिल सकती है, धीरे-धीरे की कमाई से क्या फायदा है। कमाई ऐसी करो कि चाहे इस भव में कुछ भी न मिले, पर मरकर एकदम इससे लाखों गुना मिल जाए, और मिलने को यह वैभव चाहे जितने गुना मिल जाए, पर अंत में सबका सब छोड़कर जाना पड़ता है। अरे ! अपने जीवन को संभालो, अपनी महत्ता का सच्चा आँकड़ालगावो। इस मायाजाल में उपयोग को फँसाने में ममता में फँसे रहने से कुछ शांति नहीं मिलेगी।