वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 538
From जैनकोष
पृष्टैरपि न वक्तव्यं न श्रोतव्यं कथंचन ।वच: शंकाकुलं पापं दोषाढयं चाभिसूयकम् ॥538॥
अप्रमाणिक वचन न बोलो ― ऐसे वचन कभी न बोलिए जो वचन संदेहरूप हों । जिस वचन में यथार्थ निर्णय नहीं है प्रमाणिकता नहीं है उस वचन को न बोलिए । चाहें वह व्यवहार के वचन हों और चाहें धर्म के प्रसंग के वचन हों, जिन वचनों में पूर्ण निर्णय नहीं है ऐसे वचन न बोलिए । जब हम ही स्वयं संदेहरूप हैं, हम ही को उस तत्त्व के बारे में भली प्रकार निर्णय नहीं है कि वस्तु का स्वरूप ऐसा है उस तत्त्व का हम उपदेश करें तो यह हमारे लिए अनुचित बात है। वचन वह बोलिए जिस बात में पूर्ण निर्णय है, संदेह वाली बात न बोलिए । देखिये अपने को आवश्यकता है कि शांत बनायें और दु:खों से दूर रहें । तो शांत बनने में मार्ग में हमे सत्यवचन का व्यवहार रखना होगा ।
असत्यवादी के आत्मदर्शन का अलाभ ― पग-पग पर जो झूठ बोलता है वह क्या लाभ उठाना चाहता है ॽ धन संपदा का लाभ झूठ बोलने से नहीं मिलता, लौकिक यश, वैभव का लाभ पुण्यकर्म के उदय के अनुसार प्राप्त होता है । न झूठ बोला जाय तो उसके पुण्यकर्म का उदय देर तक भी चलेगा और यश वैभव भी प्राप्त होंगे । झूठ बोलकर उसने यदि कुछ प्राप्त किया है तो पूर्व पुण्यके कारण कुछ मिल गया है, लेकिन भावी काल में उसके पास फिर कुछ हाथ न रहेगा । असत्य वचन बोलने से यह उपयोग इस आत्मभूल से ऐसा अलग हो जाता है कि वह स्वयं अस्थिर रहता है और आत्मदर्शन का पात्र नहीं होता । लोक में जीवों ने अनेक-अनेक समागम पाये, अनेक वैभवों के दर्शन किए किंतु परम आनंदमय निज आत्मप्रभु का दर्शन नहीं किया । हिम्मत ऐसी बनायें कि जो होता है, जिसका जो उदय है उस उदय के अनुसार उसका काम होगा ।
गृहस्थी में भी आत्मोपयोग से अनाकुलता ― हम किसी परपदार्थ के संबंध में अनेक विकल्प चिंताएँ क्यों करें ॽ गृहस्थ हैं तो साधारणरूप से, सात्विकवृत्ति से व्यवस्था बनाना अपना कर्तव्य है । यदि गृहस्थावस्था से भी हम अत्यंत उदासीन रहते हैं तो गृहस्थी का कर्तव्य नहीं निभा रहे हैं । ऐसे पुरुष को तो साधु बनकर अपना ध्यानमग्न होना चाहिए था । गृहस्थी है तो साधारणतया उसका निर्वाह करना जरूरी है लेकिन साथ ही यह ध्यान रखें कि मैं किसी भी जीव का निर्वाह नहीं कर रहा हूँ, सबका उदय सबके साथ है, सभी अपने-अपने उदय के अनुसार परिणति करते हैं । यह वास्तविक श्रद्धान न भूलना चाहिए और इसमें ऐसा चमत्कार है कि इस जीव को यह अनाकुल रख सकता है । तो ऐसे आत्मसत्य, ऐसे इस ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु का आश्रय हमें तब मिल सकता है जब हमारा व्यवहार सत्यता से पूर्ण हो, लोग मुझे निरखकर विश्वास करें कि यह प्रामाणिक पुरुष है, यह जो कहेगा वह सत्य और प्रामाणिक होगा । ऐसा सत्य व्यवहार बने तो आत्मा में वह बल वह दृष्टि प्राप्त होती है जिससे यह अपने निकट बहुत काल तक ठहर सकता है । सत्य आनंद तो आत्मा के निकट अपना उपयोग बनाये रहने में है । अतएव बात ऐसी करना चाहिए जो आत्मा के हित में साधक हो ।
पापरूप, दोषरूप वचन न बोलने की शिक्षा ― व्यर्थ की बातें, जिनसे न आजीविका का संबंध है और न धर्मपालन का संबंध है । व्यर्थ की गप्पसप्प ये सब आत्मध्यान से विमुख करने वाली प्रवृत्ति हैं । पूछे जाने पर भी वह बात न बोलिए जिन वचनों में कुछ संदेह है । न अपने आप बोलें ऐसी बात जिसका खुद को ही पूरा निर्णय नहीं है और फिर भी दूसरों पर लाद रहे हैं, दूसरों को बता रहे हैं । अरे पूछने पर भी न बोलना चाहिए ऐसे वचन जो पापरूप हैं, दोष से भरे हुए हैं, ईष्या से परिपूर्ण हैं, ऐसी बात न बोलना चाहिए और न सुनना चाहिए । वचनों का मनुष्यों के सुख दु:ख से बहुत निकट संबंध है । वचनों से ही बड़ी लड़ाईयाँ चलती हैं, वचनों से ही शांति रहती है और अपने आपको भी शांति में रख सके, दूसरों को भी शांति में रख सके उसका उपाय केवल वचन हैं ।
ज्ञानबल द्वारा क्लेशों से छुटकारा ― अपने आपके चित्त को किसी प्रसंग से क्लेश पहुँचता है तो उस क्लेश को तो हम दूसरे समय में ज्ञानबल से हटा सकते हैं, पर असत्यवचन बोलकर जो हमने अपने में शल्य बनाया है, चूँकि दूसरों ने सुन लिया ना वे असत्यवचन और दूसरे लोगों से हमारी प्रतिष्ठा गिर गयी ना, तो उससे उत्पन्न होने वाली शल्य बड़ी कठिनता से दूर की जा सकती है अथवा उसके असत्य प्रलाप से दूसरों के चित्त को कोई क्लेश पहुँचा है तो उसके क्लेश को दूर करना हमारे लिए दुर्गम हो जायेगा । हम अपने आपके क्लेश को किसी विचारधारा से दूर कर सकते हैं, पर हम दूसरों के क्लेश को अथवा दूसरों के व्यवहार से उत्पन्न हुए शल्य को हम दूर करने में बहुत असमर्थ हो जायेंगे । अतएव वचन बहुत संभाल कर सत्य हों, हितरूप हों ऐसे बोलना चाहिए, और ऐसे वचन तभी बोले जा सकते हैं जब अधिकाधिक मौनरूप अपनी प्रवृत्ति रहे, नियम करके ही क्या बिना नियम के ऐसी प्रकृति बन जाय कि न बोलें । जब कभी आवश्यक हो तब ही बोलें ।
विशुद्धवचन से हितपना ― ऐसी प्रकृति बने तो तुम्हारा विचार विशुद्ध हो जायगा और किसी चीज के निर्णय करने की ऐसी कुशलता प्राप्त हो जायेगी कि फिर जो वचन बोले जायेंगे वे प्रमाणिक होंगे, सत्य होंगे, प्रिय होंगे, दूसरों के हितरूप होंगे । जो वचन विशुद्ध नहीं हैं ऐसे वचनों का प्रयोग कभी न करना चाहिए । यह ग्रंथ आत्मध्यान का निरूपण करने वाला है । आत्मध्यान ही लोक में एक मात्र शरण है । हम आप सबको उस आत्मा का ध्यान कैसे बने, उसके उपाय में बताया जा रहा है कि पहिले तो आत्मा का सत्य श्रद्धान करें । यह मैं आत्मा समस्त परपदार्थों से देह से विकल्पों से न्यारा हूँ, केवल ज्ञानानंद स्वरूप अमूर्त हूँ, इसे कोई पकड़ नहीं सकता, छेद नहीं सकता, बाँध नहीं सकता, यह हवा से, अग्नि से, जल से, किसी से क्षत नहीं हो सकता ।
आत्मध्यानी बनने का उपाय ― यह मैं आत्मा ऐसा स्वतंत्र हूँ, अकेला हूँ, इसका किसी से बंधन नहीं है । मैं ही अपने अंदर में कल्पनाएँ जगाकर अपने आपसे बंध जाता हूँ और यह बंधन आत्मा का स्वभाव नहीं है । जब ज्ञान प्रकट होगा तो यह बंधन क्षण मात्र में मिट जायेगा । रागद्वेष मोह के ये बंधन तब तक रहते हैं जब तक हमें अपने आपके इस स्वतंत्र सहज आत्मस्वरूप का बोध नहीं हो । जब जान लिया कि मैं सबसे विविक्त केवल ज्ञानानंद स्वरूप हूँ, इस मुझको बाहर में करने को कुछ नहीं पड़ा है, बाहर के पदार्थ वे अपने उत्पाद व्यय ध्रौव्य से रहा करते हैं । मैं अपने आपमें अपना उत्पाद व्यय किया करता हूँ । जब यथार्थ बोध होता है तो ये बंधन सब समाप्त हो जाते हैं । यदि यथार्थ बोध हो, यथार्थ श्रद्धान हो और फिर उस ही के अनुकूल आचरण बने, अहिंसारूप आचरण, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य किसी का आचरण ऐसी अपनी चर्या बने तो आत्मध्यान की पात्रता जगती है, ऐसे उपदेश के प्रसंग में इस अध्याय में सत्यमहाव्रत का वर्णन चल रहा है ।