वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 54
From जैनकोष
चिनु चित्ते भृशं भव्य भावना भावशुद्धये।
या: सिद्धांतमहातंत्रे देवदेवै: प्रतिष्ठिता:।।54।।
भावशुद्धि के लिये भावनाओं का उपदेश―शुद्ध भावों के लिये क्या उपाय करना चाहिये? इसका वर्णन इस श्लोक में किया है। हे भव्य ! तू अपने भावों की शुद्धि के लिये अपने चित्त में बारह भावनावों का चिंतन करो। जिन्हें देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान ने सिद्धांत महातंत्र में प्रतिष्ठित किया है। जब हम बारह भावनावों का चिंतन करते हैं तो आत्मा में रागद्वेष हटकर एक ममता प्रकट होती है। जिसे पंडित दौलतरामजी ने कहा है―‘इन चिंतन समसुख जागे, जिमि ज्वलन पवन के लागे।’इन भावनावों का चिंतन करने से समता का सुख जगता है। जैसे कि हवा के लगने से अग्निज्वलन जगती है। संतोष इन बारह भावनावों के फल में अवश्य मिलता है।
विपरीत भावना में शांति का अभाव― देखिये, जब हम अनित्य पदार्थ को नित्य मान रहे हैं तो इसमें अनेक आकुलताएँ होती है। इस अनित्य को अनित्य समझा जाय तो हमारी आकुलता में अंतर पड़जाता है। जो समागम मिला है घरबार परिजन समूह इन सबके भीतर में मोहियों के यह श्रद्धाबसी है कि ये मेरे हैं नष्ट न हों। भले ही प्रकरणवश इस प्रसंग में वह ऐसा कह दे कि सब अस्थिर है, सबका वियोग होगा लेकिन चित्त में ऐसी भीतर कोई गांठ पड़ी हुई है कि वहाँ यह बात नहीं समा पाती है कि जो कुछ हमें मिला है यह भी नष्ट होगा। जैसे मरघट में किसी को जलाने जाते हैं तो वहाँ बहुत कुछ खबर आती है कि इसी तरह हमें भी मरना है, बहुत-बहुत यह बात मन में भिदती है पर और भीतर जरा नहीं भिद पाती है। ये भावनाएँतो मरघट में ही आती हैं। जहाँ वहाँ से चलकर किसी तालाब में स्नान किया कि उन सारी भावनावों को पानी के साथ धो देते हैं।
मिथ्यात्व की गांठ― यह मोही जीव कभी धर्म की शेखी भी दिखाता है कि संसार असार है, वह भी केवल एक बीच के पर्दे की बात है, वह भी यथार्थतया श्रद्धा में बसी हुई नहीं है। जब दूसरे का वियोग देखकर मरण देखकर चित्त में यह ठोकर लग जाती हे कि कहीं मेरा ऐसा न हो जाये तो उस दु:ख के मारे वह संसार को असार कहता है सचमुच संसार असार है ऐसे स्वरूप को दृष्टि में लेकर नहीं कहा, किंतु अपने आपमें जो एक वेदना हुई, ठोकर लगी, शंका हुई, भय बन गया है उसके कारण मुख से कह देता है कि सारा संसार असार है। तो कितनी मोह की गांठ पड़ी हुई है, वह गांठ क्या है? मिथ्यात्व।
मिथ्या का शब्दार्थ―मिथ्या का अर्थ क्या है? मिथ् धातु से बना मिथ्या। मोह का नाम मिथ्यात्व है। दो या अनेक पदार्थों का जो मेल है, वह है झूठ। इसलिये मिथ्या का भी अर्थ लोग झूठ कहने लगे। मिथ्या का सही अर्थ झूठ नहीं है। मिथ्या का अर्थ है मेल मिलाप। मेल मिलाप है असत्य। मिथ्या शब्द मिथुन मिथ् धातु से बना है जिसका रूप भी बनता है। इसी रूप में मिथ्या शब्द बना है। तो मिथ्या का अर्थ है दो का या अनेक का संबंध। यह अवास्तविक है। जितनी वस्तुवों का मेल होकर बना है वह एक मेलरूप पिंड किसी एक वस्तु में नहीं पडा है इसलिये अवास्तविक है, झूठ है, यह व्यवहारदृष्टि से है, , स्वरूपदृष्टि से झूठ है। तो स्वरूपदृष्टि से मिथ्या अर्थात् मेल मिलाप सही नहीं उतरते। इस कारण मिथ्या का नाम लेकर मेलमिलाप प्रसिद्ध न होकर सीधा झूठ प्रसिद्ध हुआ है।
दान के तात्पर्य का उदाहरण―जैसे दान नाम त्याग का है। त्याग किया उसका नाम दान है, पर दान किया इसको ऐसा कहने के एवज में यदि यह कहने की रूढ़ि होती कि इसने त्याग किया तो कुछ बुद्धि संभली हुई रहती है, उस त्याग किए के एवज में इसने दान किया बोला तो उसका कुछ ऐसा रूपक बन गया कि दान करने वाले को उस दान में ममता हो गई, अथवा दान देकर यश, नाम आदिक किसी की ममता हो गई। त्याग शब्द का प्रयोग हो तो इतनी विडंबनाएँ न होंगी। लेकिन इस संबंध में सोचना यों व्यर्थ है कि दान किए की जगह त्याग किया ही प्रयोग में लाया जाता तो इस प्रयोग की भी वही दुर्दशा बना दी जाती जो दान शब्द बोलकर दुर्दशा बना रहे हैं। मोह का नशा भी अद्भुत है।
अनित्य में नित्य की कल्पना की वेदना―अनित्य पदार्थों को हम जब तक नित्यरूप से समझते हैं तब तक बहुत परेशानी हैं, अचानक वियोग होने पर बड़ी चोट लगती है। हाय यह हो गया, अनहोना हो गया। यदि अनित्य को नित्य समझते होते तो दु:खी न होते। लो हम इस अनित्य वस्तुवों को पहिले से ही जान रहे थे कि जो समागम मिले हैं वे किसी दिन विघट जायेंगे। ऐसा हम पहिले से ही निर्णय किये हुए थे। जब विघटन का समय आया तो पहिले ही यह आवाज निकली कि देखो हम तो पहिले से ही जान रहे थे कि यह नष्ट होगा। वहाँ वह विह्वलता नहीं आ सकती।
भावना का धर्मपालन में स्थान―इन बारह भावनावों का बड़ा प्रमुख स्थान है आत्म हित के लिये और एक सीधा उपाय है हित के लिये तो बारह भावनावों का।थोड़ा भी जानने वाला पुरुष इन बारह भावनावों के चिंतन के प्रसाद से अपने को कल्याण में ले जायेगा और कितना भी ज्ञान होने पर भी बारह भावनावों से रहित वृत्ति बने तो वह ज्ञान जड़ धन जैसा काम करता है। जैसे मकान आदिक जड़ पदार्थ मिले हैं तो उनके मेल से एक अहंकार भाव आया, एक सांसारिक मौज लेने का भाव बनाया करते हैं इसी प्रकार आत्म हितकारिणी इन भावनावों से रहित होकर यह ज्ञान वाला पुरुष भी इस ज्ञान के समागम से अहंकार भाव बनाने में जो सांसारिक मौज मिला है उससे खुश रहने का भाव―ये सब बातें बनने लगती हैं। इन भावनावों का कितना उपकार है? इस उपकार को वही पुरुष जानता है जो इन भावनावों को पाकर अपने में कुछ लाभ उठा लेता है। हे भव्य !तू अपने भावों की शुद्धि के लिये तू अपने चित्त में बारह भावनावों का चिंतन कर।
अनित्य व अशरण भावना के मर्म का उदाहरण― इन भावनाओं का स्वरूप इस ग्रंथ में आगे विस्तार से आयेगा, किंतु थोड़ा बहुत तो भावनाओं का मर्म अर्थ उनका नाम लेने से ही विदित हो जाता है। अनित्य भावना―अनित्य को अनित्य जानना, नित्य को नित्य जानना। यह ज्ञानपद्धति नित्य भावना को पुष्ट करती है। अशरण भावना― मेरा जगत् में कहीं कुछ शरण नहीं है। मेरा मात्र मैं ही शरण हूँ। ऐसी विधिमुखेन व निषेधमुखेन अशरण भावना भाने से कल्याण फल प्राप्त होता है। केवल यदि यही जानते रहें कि मेरा जगत् में कोर्इ शरण नहीं है तो यहबजाय संतोष के और ज्यादा विकल हो जायेगा और अधिक दु:खी हो जायेगा। कहीं इसे शरण ही नहीं मिल रहा, पर बाह्य वस्तु मेरे को शरण नहीं है, ऐसी भावना का फल उसे मिलता है जिसकी यह प्रतीति बनी है कि मेरे को मेरा आत्मस्वरूप शरण है। यह शरणभूत मैं स्वयं हूँ, ऐसी प्रतीति हो उसे ही तो बाह्य की अशरणता का परिचय मिलता है।
संसार एकत्व आदि भावना का निर्देशन― यह सारा संसार असार है, असार है ऐसा गा गाकर कुछ जगह-जगह डोले भटके, कहीं जायें कहीं सिर मारें, कहीं कुछ भी करते रहें पर जब तक यह विदित न होगा कि सारभूत मेरे में मेरा स्वरूप यही विराजमान् है, यह परमात्मतत्त्व, यह अंतस्तत्त्व ही एक सर्वोत्कृष्ट सारभूत है, इतनी बात का परिचय न हो तो सारे संसार को असार-असार गाकर भी कुछ संतोष नहीं पाया जा सकता है। यों ही एकत्व भावना में अपने को अकेला चिंतन करना। ऐसा अकेला नहीं कि लोगों ने मुझे न मानाकि मैं अकेला रह गया किंतु अपने आपमें जो सहजस्वरूप है उस एकत्व के चिंतन के साथ भावना हो, फिर व्यावहारिक एकत्व का चिंतन यथा समय हो। ऐसे ही अन्यत्व, अशुचि, आश्रव, संवर, निर्जरा, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वरूप चिंतन इन समग्र भावनाओं के निश्चय और व्यवहार की दृष्टि सहित हम चिंतन करें तो इससे भावों की शुद्धि होती है। सिद्धांत महातंत्र में आत्मशुद्धि के लिये इन भावनाओं की बड़ी प्रतिष्ठा की है।