वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 5
From जैनकोष
श्रियं सकलकल्याणकुमुदाकर चंद्रमा:।
देव: श्री व मानाख्य: क्रियाद्भव्याभिनंदिताम्।।5।।
श्री वर्द्धमान प्रभु को नमस्कार―श्री वर्द्धमान नामक स्वामी अंतिम तीर्थंकरदेव जो भव्य पुरुषों के द्वारा वंदनीय हैं, प्रशंसित हैं, वे इष्ट लक्ष्मी को अभिनंदित, वर्द्धित करें। ये वर्द्धमान स्वामी सकलजनों के कल्याणरूपी कमलों के समूह के लिये चंद्रमा की तरह हैं। जैसे चंद्र कमल को प्रफुल्लित करने वाला है इसी प्रकार यह वर्द्धमान प्रभु भव्य जीवों के कल्याण को उत्पन्न करने वाले हैं। वर्द्धमान प्रभु चूँकि वर्द्धमान नाम हैं न, तो अपनी किसी वृद्धि के लिये वर्द्धमान का नाम विशेषतया लोग चुना करते हैं। वह नाम की समता है। तीर्थंकर तो सभी एक समान हैं। इस युग में इस वर्तमान समय में जिस धर्म तीर्थ को पाकर जिस तत्त्वज्ञान को पाकर हम आप संतुष्ट होते हैं, आकुलता दूर करते हैं, ज्ञान का आनंद लेते हैं, इस युग में उस धर्म तीर्थ के प्रणेता वर्द्धमान स्वामी हैं। पार्श्वनाथ और वर्द्धमान स्वामी के बीच के समय में धर्म की हीनता हो गयी थी और अब जो धर्म का प्रवाह चल रहा है यह वर्द्धमान स्वामी के समवशरण में प्रकट हुए धर्म परंपरा से चल रहा है। इस कारण प्रथम तीर्थंकर महावीर स्वामी कहलाते हैं।
सम्यग्दर्शन कर्णधार― प्रभु स्वयं कल्याण से परिपूर्ण हैं अतएव वे भव्य जीवों के कल्याण के भी कारण हैं। प्रभु स्वयं कर्मों का विनाश कर चुके हैं अतएव भव्यजीवों के विघ्नों के विनाश के कारण हैं। इनके वचन मोक्षमार्ग रूप निकले हैं। ऐसे वर्द्धमान स्वामी से वांछित लक्ष्मी की प्रार्थना करना युक्त है। जैसे नाव चलाने वाला खूब चलाता है पर नाव का कर्णधार जो नाव के पीछे खड़ा रहता है, एक सूप के आकार का करिया नामक काष्ठ का यंत्र लिए रहता है, वह जिस प्रकार से घुमा दे, नाव उस ओरचल देती है। इसमें तो कुछ शक नहीं है कि प्रत्येक जीव बड़ा जागरूक है और निरंतर कार्य करता रहता है। सिद्ध प्रभु हो तो, संसारी जीव हो तो सभी जागरूक हैं अपने काम में और निरंतर चेष्टा करते जा रहे हैं, पुरुषार्थ करते जा रहे हैं। बस जिनको वह सम्यग्ज्ञान का काष्ठयंत्र मिला सम्यग्दर्शन कर्णधार मिला तो वह अपनी चर्या को योग्यपद्धति में निभा ले जाते हैं और जिसको यह कर्णधार नहीं प्राप्त हुआ है उसकी नैया तो भवोदधि में यत्र तत्र डोलती रहेगी।
आशय की विशुद्धता का स्थान― आत्मा के उत्थान के लिये आशय की विशुद्धता हितपंथ का सुनिर्णय होना प्रथम आवश्यक है। यदि हितपंथ का निर्णय आशय की विशुद्धता प्रकट हुई है तो कीचड़ में पड़े हुये स्वर्ण की तरह ऊपर से मलिन भी रहे, गंदा रहे, व्याकुल रहे तो भी सम्यग्दृष्टि जीव अपने अंत:पुरुषार्थ को बराबर बनाये चला जाता है। यह निर्मल है। भींत पर छहों महीने चित्रकारी करने वाले पुरुष यदि भींत को बहुत स्वच्छ नहीं बनाते हैं तो उनका चित्र बनाने का परिश्रम व्यर्थ है। प्रथम तो उस भित्ति की विशुद्धि चाहिये। ऐसे ही हम धर्मकार्य में समय लगाते, श्रम करते, त्याग करते पर एक विशुद्ध आशय बन जाय और हितपंथ का निर्णय बन जाय तो हमारे सब काम सफल हैं। यह दृष्टि जगे कि मेरा तो कल्याण सर्व परद्रव्यों से अलग हटकर केवल ज्ञानानंदस्वरूप केवल सहजस्वरूप मात्र रहने से है। इतना भीतर में निर्णय होने पर यह धर्मपालन का अधिकारी है भला, अंत: निर्णय को कौन छुड़ायेगा? किसकी जबरदस्ती होगी जो कि अंत:निर्णय में कोई विघ्न डाले। कुछ भी करते हुये किसी भी परिस्थिति में और कितना भी उपयोग बाहर चला जाय तब भी भीतर की शुभावना भीतर ही भीतर इस आत्मा का कल्याण कर रही है।
लोक में जीव की असहायता―इस लोक में दूसरा कौन साथी है, कौन शरण है? कौन सा समागम अभिमान के योग्य है, कौनसी विभूति यहाँ की हितरूप है? ये समस्त मिले हुए समागम एक दिन क्लेश के कारण बनेंगे। यह वैभव संपदा कुछ भी सारभूत नहीं है। यह जग संपदा सारभूत होती तो बड़े-बड़े तीर्थंकर चक्रवर्ती इस संपदा को त्यागकर क्यों अपने में उस केवल निजस्वरूप का ध्यान करते? बहुत-बहुत धक्के खाने के बाद बुद्धि व्यवस्थित बनती है पर इस जीव पर मोह का ऐसा तीव्र नशा है कि बहुत आपत्ति और धक्के खा लेने के बाद भी इसकी बुद्धि में व्यवस्थितता नहीं आ पाती है। लो कुछ जरा ठीक ठिकाने से हुये थे एक भव में बूढ़ापे में या अंतिम समय में कुछ बुद्धि बनने का अवसर ठीक आया था कि तब भी न चेते तो मरण हुआ व दूसरे भव में गये, अब वहाँ वही अ आ इ ई फिर पढ़ना शुरू किया, वही मोह ममता फिर प्रारंभ हो गयी।
अज्ञान से उत्तरोत्तर विडंबना― भैया ! प्रथम तो यही बड़ा कठिन है कि बड़ी अवस्था में इतनी बुद्धि और विवेक व्यवस्थित बन जाय। प्राय: देखा जाता है कि वृद्ध अवस्था में तृष्णा, क्रोध, अभिमान बढ़ता है उनका आना है कि इसके कमजोरी आई। यह मन जो चाहे वह काम तो कर नहीं सकता, भोग नहीं सकता है और इसने अपनी उन वांछावों पर पहिले विजय नहीं की, ऐसी स्थिति में क्रोध का आना स्वभाविक सा है। जैसे प्राय: अधिक बीमार आदमी अधिक क्रुद्ध हो जाया करते हैं। जरा-जरासी बातों में उन्हें क्रोध आता है। उसका कारण क्या है? दूसरे को खाते, घूमते, फिरते, मौज से रहते देख रहा है और अपने को कहीं मक्खी बैठ जाय तो उसको भी उड़ासकने में असमर्थ देख रहा है, इस कारण वह दूसरों को रंगा चंगा देखकर क्रोध न करे तो और क्या हो? ऐसे ही बढ़ती हुई अवस्था में प्राय: कषायों की वृद्धि होती है। यह बात सब पर लागू नहीं होतीअन्यथा तपस्या करना व्यर्थ हो जायेगा। फिर तो यह सोचा जायेगा कि अरे तपस्या से क्या लाभ बूढ़े होने पर फिर विकल्प आ जायेंगे तो उस तपस्या से क्या लाभ?
ज्ञान से उत्तरोत्तर विकास― जिसने ज्ञान नहीं सीखा और वृद्धावस्था तक विषयभोगों में रत रहे उनकी स्थिति बूढ़ापे में ऐसी बनती है कि जैसे कहते हैं अर्द्धमृतक जैसी स्थिति होना। अब आत्मध्यान और धर्मपालन क्या करेंगे? धर्मपालन शरीर की स्थिति के आधीन नहीं है। जो अपने आपमें अपने ज्ञान का दर्शन, आलंबन, आश्रय करके इस ज्ञान को दृढ़ाता है, इस ज्ञानस्वभाव को विकसित करता है वह वृद्ध होने पर और भी अधिक चमकता है और भी अधिक प्रकाशमान होता है। इससे कर्तव्य एक ज्ञान प्राप्त करने का है।
ज्ञान की कमनीयता― ज्ञान भी वास्तव में वह है जो अपने आपमें शांति उत्पन्न करे। जो ज्ञान अशांति उत्पन्न करने का कारण बनता है वह ज्ञान ज्ञान नहीं है। किंतु बाह्य धन की तरह एक धन है। ज्ञान वही है जो ज्ञानी को संतोष उत्पन्न करे। यह बात उस ज्ञान में है जो ज्ञान अपने ज्ञान के स्वरूप का स्पर्श कराता है लोक में जीव अन्य जीवों से अपने आपको अधिक मान लेने पर मैं इन सबसे उच्च हूँ, बड़ा हूँ, इस प्रकार की बुद्धि बनने पर इस जीव को क्लेश होता है, क्षोभ होता है, मलिनता होती है, तब ऐसी सरलता और नम्रता की प्रकृति बने कि अपने आपमें उत्पन्न हुये ज्ञानादिक वैभवों में इतनी महत्ता न कूत लें कि अन्य जीव इसकी दृष्टि में तुच्छ जंचने लगें। ऐसी परिस्थिति में वह ज्ञान शांति का कारण नहीं होता। तो हमारा ही एक विशुद्ध ज्ञान अपने आपकी वांछित लक्ष्मी की प्राप्ति करा देता है और वह विशुद्ध ज्ञान जिन चरणों के प्रसाद से प्राप्त हुआ है उन चरणों की कृतज्ञता होनी ही चाहिये। सो यहाँ वर्द्धमानप्रभु का अभिनंदन अभीप्सित लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये किया गया है। अब इसके बाद भगवान महावीर स्वामी के मुख्य गणधर गौतम स्वामी को नमस्कार कर रहे हैं।