वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 68
From जैनकोष
ये जाता रिपव: पूर्वं जन्मन्यस्मिन् विधेर्वशात्।
त एव ते वर्तंते बांधवा बद्धसौहृद:।।68।।
शत्रुता की व्यर्थ कल्पना― हे आत्मन् ! पूर्वजन्म में जो तेरा शत्रु था वह ही इस भव में तेरा अत्यंत स्नेही बनकर बंधु हो गया है अर्थात् तू इसको हितू और मित्र समझता है, किंतु पूर्व जन्म की दृष्टि से देखो तो वह तेरा शत्रु है। इसी तरह आज तुम जिन्हें शत्रु समझते हो वे पूर्व जन्म के कहो बंधुजन हों, मित्रजन हों। अनित्य भावना के इस प्रकरण में जहाँ इस पद्धति की अनित्यता दिखाई जा रही है कि देख जिन्हें तू आज अपना इष्ट समझता है कहो यह भी संभव है कि वे पूर्वजन्म के तेरे शत्रु हों, वहाँ यह भी फलित अर्थ निकला है कि जिन्हें तू शत्रु समझता है यह संभव है कि पूर्वजन्म के वे तेरे मित्र हों और कुछ भी हों, जो आज बंधुजन हैं, इष्ट मित्रजन हैं उनसे राग बढ़ा तो मरे, द्वेष बढ़ा तो मरे, तब शत्रुता का ही तो काम बना।
प्राप्त समागम में ज्ञानियों का विवेक― सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष ही ऐसे विवेकी होते हैं जो प्राप्त समागम में अंतरंग से न राग करते हैं, न विरोध करते हैं। सुकौशल स्वामी पर सिंहनी ने आक्रमण किया। लो सिंहनी के भव से तो बैर हुआ इससे पहिले वह सुकौशल की माता ही थी। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पूर्वजन्म में भी इष्ट मित्रजन थे और इस भव में भी इष्ट मित्रजन हैं और कहो कई भवों से वे बंधु बने चले आये हों। लेकिन नफा क्या मिला उनके संबंध से? नेमिनाथ स्वामी और राजकुल के जीव 9 भवों से वे परस्पर बंधु रहे, पारिवारिक संबंध रहा, लेकिन अंत में नेमिनाथ स्वामी का गुजारा तभी बना जब त्याग दिया, विरक्त बने, केवल अपने स्वरूप को सँभाला। बात यही सत्य है। किसी के साथ कब तक भी रहा आये पर पूरा तभी पड़ेगा जब त्याग होगा, मोह छूटेगा, जब केवल अपने स्वरूप की संभाल होगी।
समागम में हर्ष मानने की मूढ़ता― हे आत्मन् ! तू आज प्राप्त हुए बंधुजनों के समागम में हर्ष मत मान, अपनी सुध बुध मत खो दे। यह तो संसार का नाटक है। शत्रु मिल ही गए मित्र शत्रु हो गए। यह तो पूर्वजन्म की बात कही। यह तो एक जन्म की बात हुई। दो वर्ष पहिले जिससे अधिक विरोध था, कोई कारण ऐसा बना, प्रसंग ऐसा हुआ कि आज उनसे अत्यंत घनिष्ट संबंध है और दो वर्ष पूर्व जिससे अति घनिष्ट संबंध था, प्रसंग ऐसा हुआ कि आज वे एक दूसरे को देखना भी पसंद नहीं करते। इस ही भव में सब देख लो। जिन घरों में भाई-भाई में विरोध हो जाए तो वे भाई-भाई बचपन में कैसे मित्र थे? किसी को कोई पीट दे तो कितना पक्ष लिया जाता था। आज क्या स्थिति है? जिस घर में पुरुष और स्त्री में अनबन रहती हो, एक दूसरे को देखना नहीं चाहते, एक दूसरे से बोलना नहीं चाहते, अथवा जरा-जरासी बात पर विवाद कलह हो जाए। उस घर की पहिली बात देखो― जब प्रथम मिलन हुआ, विवाद हुआ, दो एक वर्ष कितनी घनिष्टता रक्खी गई थी?
मोह में दौड़― लोग यों कहते हैं कि एक शिष्य गुरु के पास एक दिन न आया, अनुपस्थित रहा, तब दूसरे दिन गुरु ने शिष्य से पूछा―तुम कल अनुपस्थित क्यों रहे? तो शिष्य बोला―महाराज ! कल हमारी सगाई हो रही थी। तो गुरु बोला कि तुम अब अपने गाँव से गये। सगाई होने के बाद उस पुरुष को अपना गाँव नहीं सुहाता। उसके लिये स्वसुराल ही सब कुछ हो जाती है। देखा भी न हो कभी स्वसुराल का घर तो भी कल्पना में चित्र सारा बन जाता है। ऐसा है वह घर। फिर कुछ माह बाद वह शिष्य तीन चार दिन अनुपस्थित रहा। बाद में जब गुरु के पास आया तो गुरु ने पूछा कि तुम तीन चार दिन अनुपस्थित क्यों रहे? तो शिष्य ने बताया महाराज ! हमारी शादी हो रही थी। तो गुरु बोला― अरे अब तुम घर से भी गये। शादी होने के बाद घर के आदमी हितू नहीं मन में जँचते। जो कुछ हितू है सो वह नई बहू है, उसके बाप भाई हैं।
लोक में इष्ट अनिष्ट की व्यर्थ कल्पना― जिसके साथ कुछ ही वर्ष पहिले बड़ी मित्रता थी वे ही आज परस्पर में बड़े विरोधी नजर आते हैं और जिनका कुछ ही वर्ष पहिले कट्टर विरोध था पर प्रसंग ऐसा हुआ कि वे बड़े सुहृद बन जाते हैं। तब फिर किसे इष्ट मानना और किसे अनिष्ट मानना? कुछ निर्णय तो बतावो। अंधाधुंध ही अज्ञान की प्रेरणा से जिस किसी को इष्ट मान लिया, जिस किसी को अनिष्ट मान लिया, इससे तो आत्मा का पूरा न पड़ेगा।