वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 887
From जैनकोष
दशदोषविर्निमुक्तां सूत्रोक्तां साधुसम्मताम्।
गदतोऽस्य मुनेर्भाषां स्याद्भाषासमिति: परा।।
साधुत्वसाधना से भाषासमिति का स्थान- इन दो श्लोकों में भाषासमिति का वर्णन किया है। मनुष्य की एक भाषा ही सर्वस्व मान्यतारूप धन है, यों भी कह लीजिये। लोग कैसे जानें कि यह मनुष्य वास्तव में धनिक है? धन से मतलब नहीं, किंतु आत्मा में गुणों का धन उसके पास है, तो लोगों के जानने का उपाय उसके वचन हैं। वचनों से ही यह ज्ञात होता है कि अमुक मनुष्य किस प्रकार का है, भला है, बुरा है, छली है, सरल है, सब कुछ बोध भाषा से होता है। जिसकी भाषा धूर्तता भरी है, मायाचारसहित है, जिसकी भाषा कामुकता से परिपूर्ण है, जो मांसभक्षी पुरुष है, चोर है, नास्तिक मति वाला है, उसकी अयोग्य भाषा है, तो ऐसे पुरुष को इन सारी भाषावों का परिहार करना चाहिए। धूर्तता के लक्षण अनेक होते हैं जिसमें मुख्य लक्षण यही है कि दूसरों को आपत्ति आये तो उसमें खुशी माने। तो वह पुरुष महाधूर्त है जो दूसरों की आपत्ति में खुशी मानता है, ऐसे धूर्त पुरुषों से व्यवहार की जाने वाली भाषा वचन ये स्वयं वक्ता को भी किसी आपत्ति में डाल सकते हैं। ऐसी भाषा का साधु संतजन कभी प्रयोग नहीं करते। माँसभक्षण करने वाले लोग उनसे व्यवहार में लायी हुई भाषा भी त्याज्य है।
साधु गुरुजनों को ऐसा क्या प्रयोजन पड़ा है जो मांसभक्षी मनुष्यों से अपना व्यवहार बनायें। यद्यपि उपदेश तो दिया जा सकता है और मुनि संतों ने दिया है। माँसभक्षी मनुष्यों को, पशुवों को हित की बात वे बताते हैं लेकिन एक ऐसा व्यवहार रखना मित्रता जैसा अथवा उनसे घनिष्टता रखता यह बात युक्त नहीं है। जिस मनुष्य के विषय में यह मालूम हो कि यह मांस खाता है तो उससे बात करने को विवेकी गृहस्थ भी नहीं चाहता। भले ही कोई मानसिक कठिनाई आ जाय, कोर्इ ऐसी बात फँस जाय जिससे बोलना ही पड़े। कोई अफसर है, जज है जो माँसभक्षी है उसके सामने जाना ही पड़े तो उससे बोलना पड़ता है पर वह विवेकी गृहस्थ भी उस माँसभक्षी पुरुष से बात करना भी पसंद नहीं करता। उस मांसभक्षी पुरुष के प्रति उस विवेकी पुरुष का भी भाव सद्भाव नहीं रहता है, उत्साह नहीं रहता बोलने का। साधु संतजन तो मांसभक्षियों से अपना वचन व्यवहार ही क्या करेंगे? जो पुरुष चोर हैं, दूसरे के धन को चुराते हैं ऐसी पुरुषों से किसकी मित्रता होती, किसका व्यवहार बढ़ेगा? जो स्वयं सदोष है, चोर है वही तो चोरों से अपना बर्ताव बढ़ायेगा। जो पुरुष नास्तिकमति हैं, चारुवाक आदिक जो न आत्मा को मानते, न परमात्मा को मानते किंतु जिनका एक सिद्धांत बना हुआ है कि जब तक जियो खूब सुख से जियो और चाहे कितना ही कर्ज बन जाय, क्या परवाह है, मगर घी दूध खूब पीते रहो, ऐसी जिनकी रीति है, नीति है, जो यह नहीं मानते कि जो हम करते हैं उसका फल हमें भोगना पड़ेगा, याने जो आत्मा का अस्तित्त्व ही नहीं मानते ऐसे नास्तिकमति पुरुषों से बहुत व्यवहार में की जाने वाली भाषा भी त्याज्य भाषा है। ऐसी भाषा जो संदेह उत्पन्न करे वह भाषा भी त्यागने योग्य है। इन भाषावों से दूर रहकर जो हितमित प्रिय वचन बोले जाते हैं उसे ही भाषासमिति कहते हैं। भाषासमिति में साधुपुरुषों को 10 प्रकार की दोष देने वाली भाषावों का निषेध किया है। वे 10 प्रकार की कौनसी भाषायें हैं जिन्हें साधु संतजन नहीं कहते?