वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 964
From जैनकोष
अनंतक्लेशसप्तार्चि: प्रदीप्तेयं भवाटवी।
तत्रोत्पन्नैर्न किं सह्यस्तदुत्थो व्यसनोत्कर:।।964।।
भवाटवी में समता से कष्टसहन में बुद्धिमानी― यह संसार तो एक जंगल है और इस जंगल में इस संसार में अनंत प्रकार की क्लेशरूप अग्नियाँ प्रज्वलित हो रही हैं, और इन क्लेशज्वालाओं में ये संसार में उत्पन्न हुए जीव दुखों को सह रहे हैं। क्या उन्हें सहना न होगा? जैसे वन में आग लगी हो और वहाँ जो कोई पशु-पक्षी, कीड़ा-मकौड़ा आदि जीव रह रहे हैं वे क्या अग्नि में जल न जायेंगे? जल ही जायेंगे, जलेंगे और कष्ट सहेंगे ही, इसी प्रकार इस संसार में जो जीव उत्पन्न हो रहे हैं, वे क्या क्लेश न सहेंगे? सहना ही होगा।
तो यह तो संसार है। इसमें जब तक उत्पन्न हुए हैं तो वहाँ क्लेश तो उठाना ही पड़ेगा। यहाँ कौनसा मनुष्य ऐसा है जो क्लेशों का सामना न करता हो? क्लेश इसके सामने न आते हों ! कोई कितना ही धनिक हो, राजा महाराजा हो। किसी भी मनुष्य को ले लो, सबको क्लेश भोगना पड़ता है। क्लेशों की जातियाँकुछ जुदी-जुदी सी हो रही हैं और जुदी-जुदी भी नहीं, मूल जाति तो एक हैं। राग हो रहा है, अज्ञान छाया है और इस कारण से सब दु:खी हो रहे हैं। जब संसार में हम उत्पन्न हुए हैं तो हमको क्लेश भोगना ही पड़ेगा। अब उपसर्गजनित अगर एक कुछ अल्प दु:ख आया है तो उसके सहने से मैं क्यों मुख मोडूँ। यदि मैं समतापूर्वक इस उपसर्ग के समय दु:खों को सह लूँ तो फिर संसार के अनंत दु:ख न होंगे। ऐसा ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है।
ज्ञानबल से कष्टसहन में समता का अभ्युदय―भैया ! कष्टसहिष्णु बनिये जिस किसी भी प्रकार के कष्ट आयें हों उनको सहने की शक्ति आना कोई कठिन चीज नहीं है। वह शक्ति आती हे ज्ञानबल से। यदि बाहरी धुन संपदा के विनाश का कष्ट आया तो यह ज्ञानी ज्ञान से सह लेगा, उपेक्षा कर देगा। क्या बिगाड़? धन हो तो, न हो तो। लोगों का संकोच क्या? लोग तो स्वयं दु:खी हैं, कर्म के प्रेरे हैं, जन्म-मरण के दु:खिया हैं। वे स्वयं अपनी बात तो सम्हालते नहीं हैं। उनका क्या संकोच कि ये लोग मुझे क्या कहेंगे? अरे मुझे तो अपना संकोच करना चाहिए, या अपने प्रभु का संकोच करना चाहिए। भगवान के ज्ञान में मेरी अशुद्धता न जँचे याने उनके ज्ञान में न आये। यहाँ के लोगों का क्या संकोच करना जिसके कारण से इसे तृष्णा में झुलसनापड़े। तो धन वैभव रहा तो, न रहा तो, कम रहा तो, अधिक रहा तो, उसमें क्लेश की बात क्या? यदि इस कुटुंब का वियोग हो गया तो उसमें भी मेरे आत्मा को क्लेश क्या? मैं आत्मा सबसे निराला अपने स्वरूपमात्र हूँ। मेरे में मैं ही हूँ। किसी दूसरे का प्रवेश नहीं है। फिर क्या कष्ट है? यदि मरण हो रहा, देह छूट रहा तो उसमें भी क्या कष्ट है? कुछ तो मरने वाला तब मानता है जबकि वह बाहरी चीजों से अपना कुछ परिचय बनाये रहता है। यह मेरा है। सब कुछ मेरा ही है, इनसे ही मेरा जीवन है। जब ऐसा पर से लगाव बना हुआ है तब मरण समय में कष्ट होता है। केवल एक ही अपना आत्माराम दिखे, यह हूँ मैं, तो उसका मरण क्या? यह मैं हूँ। अपने स्वरूप में हूँ, रह रहा हूँ, अपने में ही रह रहा हूँ। उसका विकल्प क्याहै? एक अपने आपमें ही रहते हुए क्षेत्र से क्षेत्रांतर हो रहा, यदि एक अपने आपके स्वरूप पर दृष्टि हो तो वहाँ मरण का क्या भय? और जब स्वरूपदृष्टि नहीं है, ज्ञान का संपर्क नहीं है तो अनेक क्लेश संसार में होते ही हैं। तो यहाँजो कुछ अल्प दु:ख आया है, किसी ने गाली दी, लाठी मारा, या शरीर को छीला, या कोई बड़ा से बड़ा उपसर्ग किया, जो कुछ भी हो रहा हो उस समय जो कुछ दु:ख हैवह तो अल्प दु:ख है मेरे लिए। अरे संसार में बड़े कठिन से कठिन दु:ख पड़े हुए हैं। यदि मैं इस अल्प दु:ख को समता से सह लूँतो फिर अनंत दु:ख दूर हो जायेंगे। संसार का जन्ममरण रूप अनंत संकट छूट जायगा। इससे बढ़कर भलाई और क्या होगी?