वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 117
From जैनकोष
किं बहुणा भणियेण हु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं।
पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ ।।117।।
अपराधों का प्रायश्चित्त सदाचरण- बहुत कहने से क्या फायदा? अनेक प्रकार के कर्मों के विनाश का कारण जितना जो कुछ भी ऋषिजनों का उत्तम तपश्चरण है वह सब प्रायश्चित्त ही जानो। प्रायश्चित्त मायने हैं अपराध का शोधन अथवा उत्कृष्ट ज्ञान का उपयोग। इसकी सिद्धि में जितने भी आचरण हैं, व्रत करना, तप करना, ये सब प्रायश्चित्त कहलाते हैं। जो परम तपस्या में लीन हैं, ऐसे परम जिनेंद्र योगीश्वरों का यह निश्चयप्रायश्चित है। जितने भी आचरण हैं उन सब आचरणों में परम आचरण यह प्रायश्चित्त ही है। जैसे किसी से बहुत अपराध हो गया हो तो उससे फिर आगे निर्मल होने के लिए कहा जाता है, अब वह गल्तियाँ न करे तो सब गल्तियाँ माफ हैं।
अपराध का प्रायश्चित्त निरपराधप्रवृत्ति- एक ज्ञानस्वरूप के उपयोग को छोड़कर शेष जितने भी विपरिणमन हैं वे सब अपराध हैं, संसरण की गलतियाँ हैं। जितनी भी गलतियाँ हुई हैं वे सब न होने की तरह कैसे हो जायें? अब उन्हें न किया जाय और अब मोहममता को मिटाकर एक निज ज्ञानस्वरूप की ओर झुके तो वे सब अपराध माफ हो जायेंगे, अर्थात् अब संसार में भ्रमण न होगा, जो बात गयी वह तो गयी ही है, अब आगे की रख ली जाय तो यही ज्ञानियों का परमविवेक है।
ज्ञानस्वभाव की सहजज्ञानकलागोचरता- निश्चय व्यवहारस्वरूप जो परम तपश्चरण है वह सब शुद्धनय प्रायश्चित्त है। जो परमयोगीश्वर हैं वे इस प्रायश्चित्त के बल से भव-भव के बांधे हुए समस्त कर्मों का विनाश कर लेते हैं, यों द्रव्यकर्म और भावकर्म के रूप से जो दो प्रकार के कर्म बतायें गए हैं ये जीव के साथ अनादिकाल से बँधे हैं। बँधे हैं, फिर भी ये दोनों जीव के स्वरूप से अलग हैं। इस ही कारण इन कर्मों का विनाश किया जाना संभव है। यह अंतस्तत्त्व जो पदार्थ के सत्त्व के कारण पदार्थ में सहज ही अपने आप प्रकाशमान् रहता है, ऐसा यह आत्मा का अंतस्तत्त्व समस्त पापों के विनाश का कारण है। संसारी जीव भी शांति चाहते हैं, उस शांति के मिलने का कारण निष्पाप परिणति हैं। कोई पाप की परिणति करे और शांति की आशा रखे, यह बात संभव नहीं है। यह सहज अंतस्तत्त्व सहजज्ञान की कला से ही जाना जा सकता है। हम आत्मा के ज्ञानस्वभाव को अक्षरों को पढ़ करके अथवा उसके पद्यों को रट कर नहीं जान सकते हैं, किंतु परपदार्थ के विकल्पों से रहित होकर अब हम शुद्ध विश्राम करें तो उस विश्राम की स्थिति में यह तत्त्व सहज ही प्रकट हो सकता है, यह सहज ज्ञान की कला से ही प्रकट हुआ करता है।
निश्चय संयम में प्रायश्चित्त की पूर्णता- भैया ! जो इस चैतन्यस्वरूप को जानने वाले हैं उन्हें जो अपूर्व शांति मिलती है वह शांति तीन लोक का समस्त पुद्गलों का ढेर भी इकट्ठा हो जाय तो भी नहीं मिल सकती है। पापी लोग पाप करके भी पापों का पछतावा नहीं करते हैं, जब से पापों के प्रायश्चित्त का परिणाम होने लगे तब से उन्नति का प्रारंभ जानना चाहिए। यह प्रायश्चित्त प्रारंभ में पछतावा का रूप रखता है। पछतावा में कुछ साहस बढ़ता है, अपराध न करने का संकल्प ठानता है और फिर अपराधरहित आत्मतत्त्व का निर्णय करके उन अपराधों को नहीं करता है। इस तरह जितनी भी इस जीव की उन्नति है वह सब प्रायश्चित्त के आधार पर है। आत्मा का ज्ञान ही वास्तविक प्रायश्चित्त है। सम्यग्ज्ञान से संयमी जीवों को आत्मा की उपलब्धि होती है, बाह्य पदार्थों में मोह करके, ममता करके उपयोग को भटकना होता है और भटकता हुआ उपयोग कभी आनंदमय शुद्धज्ञानस्वरूप की झलक पा नहीं सकता है। सम्यग्ज्ञान से ही संयमी पुरुष को आत्मा की प्राप्ति होती है, फिर वे क्रम से इंद्रिय का विजय करके, इंद्रिय विषयों से उपयोग को हटाकर संसार की ज्वालावों से बचते हैं।
विषयाशाज्वालावों का शमन- इस जीव में अज्ञान से विषयों की लिप्सा बढ़ रही है। कोई स्पर्शन इंद्रिय के विषय को सुखदायी मानकर उसमें ही आसक्त है, कोई रसना इंद्रिय के लोभ मेंस्वादिष्ट सुंदर व्यन्जनों को खा करकेमौजमानते हैं,कोई तेल,फुलेले, इत्रों के सूंघने मेंअपनी बड़ी चतुराई मानते हैं,कोईथियेटर, सिनेमा, सुंदररूप इनके देखने का बड़ा लोभी है, कोई संगीत, सुहावने गाने सुनने का बड़ा शौक लगाये हैं, यों विषयों की ज्वाला इस संसारी प्राणी को जला रही है। इस ज्वाला को शांत करने में समर्थ सम्यग्ज्ञान की शीतल धारावों का समूह ही है। सम्यग्ज्ञान जल से विषयों की ज्वाला बुझायें और निर्विकल्प होकर अपने सहज कारणसमयसार की आराधना में लगें। अपने को ज्ञानमात्र हूं ऐसा अनुभव करें तो इस ज्ञान की शीतल धारा से आत्मा की ये समस्त ज्वालाएँ शांत हो सकती हैं।
भोगविषहारी मंत्र तत्त्वज्ञान- यह ज्ञान संयम से प्रकट होता है। इस मन के आधीन होकर मनमाना स्वच्छंदता न बर्तना चाहिए और इंद्रियविषयों पर विजय पाकर अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप की उपासना में रहना चाहिए। गुजारे के लिए भले ही कुछ इंद्रियविषय का उपयोग करना पड़े, परंतु इन भोगों में हितबुद्धि नहीं करनी चाहिये। ये भोग बुरे रोग हैं सर्प का डसा तो एक ही भव में मरण करता है, पर भोगों का डसा यह जीव भव-भव में जन्म-मरण करता है, उसका संसार बढ़ता रहता है। यह संयम रत्नमाला जो ज्वालावों से विषयबाधावों को जलाने में समर्थ है, अध्यात्म शास्त्र की उपासना से उठता है, निकलता है, यह अध्यात्म शास्त्र उस अमृत-तत्त्व का उत्पादन करता है जिसकी उपासना से नियम से शांति और संतोष प्राप्त होता है। ऐसे संयमी जीवों को आत्मज्ञान से आत्मा की प्राप्ति होती है और आत्मप्राप्ति से ज्ञानज्योति के द्वारा इंद्रियसमूह का जो घोर अंधकार छाया है वह नष्ट हो जाता है।
अज्ञानांधकारविनाशक प्रकाश- संसार के ये प्राणी अंधेरे में हैं। इन पर अँधेरा अज्ञान का छाया है। जो बात जैसी नहीं है उस बात को वैसी मानना यह अँधेरा है। इस अंधेरे में शांति का सही रास्ता नहीं सूझता है। जहाँ भी मुँह उठ गया वही इसको रास्ता मालूम होता है। जिसको जिस विषय का शौक लग गया वह उस विषय के भोगों में ही अपनी चतुराई मानता है। उस समस्त अंधेरे का विनाश शुद्धनय प्रायश्चित्त से होता है। यह प्रायश्चित्त आत्मद्रव्य के चिंतन में प्रकट होता है। यह प्रायश्चित्त क्या है? ज्ञानरूपी तेज है, किसी भी अपराध को ठहरने नहीं देता। अपराध है रागद्वेष मोह। इस अपराध से इस जीव का कुछ भला नहीं है किंतु बरबादी ही होती जा रही है। कैसी मूढ़ता है कि संसार के इन अनंत जीवों में से घर में बसे हुए दो-चार प्राणियों को अपना मान लेते हैं और उन्हें अपना मानकर उनके लिए ही अपना तन, मन, धन, वचन, सब कुछ न्यौछावर किए जा रहे हैं। आत्मा के शुद्ध स्वरूप से चिगकर किन्हीं भी परजीवों में आकर्षण करना, मोह करना यह घोर अंधकार है। इस घोर अंधकार को, इस अपराध को दूर करने में समर्थ यह उत्कृष्ट ज्ञानरूपी प्रायश्चित्त है।
अध्यात्मरत्नमाला- देखो भैया ! ऋषि-संतों ने इस अध्यात्मज्ञान समुद्र से आत्मसंयम की, आत्मअनुभव की रत्नमाला निकाली है। लोक में यह प्रसिद्ध है कि समुद्र में से ये मालारत्न भी प्रकट हुआ है। वह माला ज्ञान की है और उस अध्यात्म शास्त्ररूपी समुद्र से निकली है ज्ञानमाला। जो तत्त्वज्ञानी पुरुष अपने उपयोगरूपी कंठ में इसे धारण करते हैं वे पुरुष मुक्ति के वरण के पात्र होते हैं। शुद्धनय प्रायश्चित्त अधिकार में इस परमपारिणामिक भाव पर दृष्टि पहुंचायी है, जिस ध्रुव स्वभाव के अवलंबन से ये विपरीत वृत्तियां दूर होती हैं और शुद्ध वृत्तियां प्रकट होने लगती हैं।
मिथ्यात्व महासंकट- मिथ्यात्व सबसे महति विपदा है। इस मिथ्यात्व की वर्तना कितने ही रूपों में प्रकट होती है। जिस शरीर को आपा माना ‘यह मैं हूं’ यह मिथ्यात्व का व्यक्तरूप है। अज्ञानी पुरुष यह ही जानते हैं कि यह शरीर है किंतु यह समझते हैं कि यह ही मैं हूं। लोक-व्यवहार के नाते कदाचित् शरीर शब्द को बोल दें तो भी यह शरीर है, मैं जीव हूं, शरीर से न्यारा हूं, ऐसा भाव रखकर नहीं बोलते हैं, किंतु लोकपद्धति में बोल लेते हैं और कभी ये जीव आगे बढ़ने की कोशिश करे और विवेकियों के उपदेश के अनुसार यह अज्ञानी भी यों बोलने लगे कि यह शरीर न्यारा है, जीव न्यारा है, इतना बोलकर भी शरीर से न्यारा जीव जो ज्ञानस्वरूप है, उसका इसे अनुभव नहीं हो पाता है। तो इस बोलने और सुनने में ही अपनी चतुराई की प्रतीति करके जो आत्मा में विकल्प और कल्पना की कला प्रकट होती है उस विकल्पकला को ही यह आत्मा सर्वस्व मानता है। अहो ! भेदविज्ञान की वार्ता भी विकल्पों को अपनाने के लिए की जा रही है, पर विकल्पों से हटकर सकल परभावों से भिन्न ज्ञानपुंज जो आत्मा का सहजस्वरूप है उसके अनुभव का ध्यान नहीं है।
संकटहारी शरण- अब मैं अपने आपमें शाश्वत प्रकाशमान् इस परमात्मतत्त्व की शरण पहुंचता हूं जिसकी शरण पाने से फिर संसार के संकट नहीं रहते हैं। संसार के संकट क्या हैं? अपनी मूढ़ता है। अपना जैसा सहजस्वरूप है उस स्वरूप के अनुभवरूपी अमृत का पान नहीं करना चाहता है और व्यर्थ ही बाह्य पदार्थों में ऐसा विश्वास लगाकर यह जीव संकट सहता रहता है। बड़े-बड़े चक्रवर्ती तीर्थंकर जैसे महापुरुष भी बड़ी-बड़ी विभूतियों को त्यागकर निर्ग्रंथ दिगंबर शरीरमात्र ही रहकर अपने चित्त में इस ही परमब्रह्म कारणसमयसार को बसाते रहे हैं। यदि संसार संकटों से सदा के लिए छूटना है तो इस आनंद का अनुभव करें। जिसने संसार-वृक्ष के मूल का नाश किया है, ऐसे इस परमात्मतत्त्व को मैं नित्य नमन करता हूं।