वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 123
From जैनकोष
संजमणियमतवेण हु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण।
जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ।।123।।
ध्यान द्वारा परमसमाधि- जो भव्य आत्मा संयम, नियम और तप के द्वारा तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान के द्वारा आत्मा को ध्याता है उस भव्यआत्मा के परमसमाधि होती है। इन वाक्य में समाधि का लक्षण भी आ गया, जहाँ अंत:स्वरूप में संयमन है और बाह्य में विषयकषायों का निरोध है वहाँ परमसमाधि होती है। जहाँ निज शुद्ध आत्मा की आराधना में लीनता है वहाँ परमनियम है। जहाँ निज चैतन्यस्वरूप में अपने उपयोग को तपाना है और बाहर के कितने भी उपद्रव आने पर रंच भी खेद न मानने का तप है वह सब परमसमाधि है। जहाँ पुरुषार्थ करके अपने शुद्ध ज्ञायकस्वरूप के प्रति उपयोग करके शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जाता है वह धर्मस्थान है, यह भी परमसमाधि का रूप है और जहाँ रागद्वेष का परिणाम नहीं है, शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रहा करना है, ऐसे शुद्ध परिणमन का नाम शुक्लध्यान है, यह भी परमसमाधि है।
परमसमाधि में संयम का अनिवार्य सहयोग- संयम का अर्थ है समस्त इंद्रिय के व्यापारों का त्याग कर देना। स्पर्शनइंद्रिय अपने विषय में न लग रही हो; प्राण, चक्षु, श्रोत्र ये सभी इंद्रियां अपने विषयों में प्रवृत्त न हो रही हों और यह मन भी किन्हीं बाह्य पदार्थों में न भटक रहा हो, अपना जो शुद्ध सहज ज्ञानस्वरूप है उस स्वरूप का ही ज्ञाता हो रहा हो, ऐसा जो भी विशुद्ध परिणमन है उसका नाम संयम है। समाधि कहते हैं जहाँ आधि व्याधि उपाधि समस्त शांत हो जायें, केवल निर्व्याकुल शुद्ध ज्ञानप्रकाश ही अनुभव में रहे। जिस जीव के मैं ज्ञानानंदस्वभावमात्र हूं, ऐसा ही अनुभव चलता है उसे ही वास्तविक संपदा मिली है। ये जगत के झूठे ठाठ कभी आयें, कभी न रहें जब आयें तब भी क्लेश को पैदा करने के ही कारण होते हैं। जहाँ रंच भी चैन नहीं, शांति नहीं, ऐसे इन बाह्यसंपदावों का संयोग यह भी महा विपदा है। जिनको तत्त्वज्ञान नहीं हुआ है, जिसने अपने इस शुद्ध स्वरूप को नहीं पहिचाना है उनको तो यह संसार का भटकना ही लगा हुआ है। ये सब संकट संयम के बल से दूर हो सकते हैं। लोग इंद्रिय के विषयव्यापार में अपनी चतुराई मानते हैं, मौज मानते हैं, पर मौज कहाँ? निरंतर क्षोभ बना रहता है। विषयों का भोग कोई क्षोभ बिना भी कर सकता है क्या? ऐसा यह महान् विपदास्वरूप इंद्रियविषय का उपभोग जहाँ रुक गया, उस संयमी के ही परमसमाधि प्रकट हो सकती है।
परमसमाधि के नियम का अनिवार्य सहयोग- नियम कहते हैं अपने आत्मा की आराधना में ही नियत हो जाना। नियम का अर्थ है भली प्रकार पूर्ण रीति से लग जाना। अपने आपके ज्ञानस्वरूप में जिनका उपयोग निरत हो गया है, जो अपने स्वभावभक्ति से चिगते नहीं हैं, जो किन्हीं भी बाह्य विषयों को रंच भी हितकारक नहीं मानते हैं, ऐसे योगीश्वरों को यह परमसमाधि प्रकट होती है। समाधि शांति के लिये है, शरीर के पोषण के लिए अथवा दुनिया में अपना चमत्कार फैलाने के लिए समाधि नहीं की जाती है। जैसे कि आजकल समाधि का यह रूप प्रचलित है कि जो संन्यासी बाबा अपना मुँह, नाक बंद करके जितनी देर तक श्वास रोके रहे, उसके उतनी बड़ी समाधि लोग कहा करते हैं कि अमुक 24 घंटों की समाधि लगाता है, यह सब शरीर की साधना है। उनका उपयोग शरीर की साधना में बना रहता है, शांति का उदय इस साधना में नहीं है। हाँ इतनी बात है कि जो प्राणायाम कर सकता है उसके चित्त के निरोध में बाह्य सहयोग मिल जाता है किंतु इस सुविधा का सदुपयोग करे तो सहयोग है और दुरुपयोग करे, लोक में मेरी ख्याति हो, मैं बहुत बड़ी समाधि लगा सकता हूं, लोक में मुझे इस समाधि के नाम पर अभीष्ट वस्तुवों की प्राप्ति हो ऐसा जो अपने आपमें उद्देश्य बनाकर समाधि प्राणायाम में प्रवृत्त होते हैं उन्हें शांति का अभ्युदय कैसे हो सकता है? आत्मस्वरूप में अपने चित्त को नियंत्रित करने का जिनके लक्ष्य ही नहीं है वे समाधि की दिशा को भी नहीं प्राप्त कर सकते हैं। इस नियम में ही परमसमाधि प्रकट होती है
परमसमाधि में परमार्थतप का अनिवार्य सहयोग- अध्यात्म तप जो परमसमाधि का मुख्य साधक है वह है आत्मा को आत्मा के द्वारा लगा देना। तप में बड़ी घबड़ाहट लोगों को होती है। मोही जीव को अथवा रागी पुरुष को इस अध्यात्मतप में बड़ी घबड़ाहट है और कोई कोई मनचले तो यह शंका करने लगते हैं कि सिद्ध भगवान दुनिया के अंत में अकेले रहते हैं। न परिवार है, न मित्रजन हैं, न किसी से बोलते-चालते हैं, कैसे उनका समय कटता होगा? अरे ! वे अध्यात्मतप से तपे हुए निज आत्मा में एकमेक अभेदरूप से आनंदमय परिणमन कर रहे हैं और वह परिणमन एक ही गति से निरंतर हो रहा है। वहाँ आकुलता का तो नाम ही नहीं है। जिन पुरुषों को राग की आकुलता पैदा हुई है वे अपनी आकुलता मिटाने के लिए कुटुंब से बातें करते हैं, मित्रों से संबंध रखते हैं। ये बातें तो रोग के इलाजरूप हैं, कर्तव्यरूप नहीं है। प्रभु के रागद्वेष, मोह का रोग ही नहीं उत्पन्न होता है, वे क्यों अपने आत्मतत्त्व से बाहर उपयोग लगायें? उनका यह अध्यात्मतप है कि अपने आत्मा को अपने आत्मा में ही लगाये रहते हैं।
विवेकियों द्वारा सुरक्षित धाम का अपरित्याग- जैसे बड़ी तेज बिजली जहाँ कड़क रही हो, गाज भी गिर रही हो, ओले भी पड़ रहे हों, ऐसे समय में किसी भी पुरुष को बहुत अच्छी कोठरी ठहरने को मिल जाय जहाँ पानी का प्रवेश भी नहीं हो सकता तो वह मनुष्य कोठरी छोड़कर क्या इन ओलों के तूफान में बाहर निकल भागेगा? अरे ! वह तो कोठरी में ही ठहरता है। इसी प्रकार जहाँ नाना आकुलताएँ, विषयों का रक्षण, संयोग-वियोग, हर्ष-विशाद, अनुकूल-प्रतिकूल परिणमन और यश कामनाएँ आदिक जहाँ अनेक उपद्रव बरस रहे हों ऐसी बाहरी दुनिया में संकट सहता हुआ यह जीव बड़े सुभवितव्य से उपद्रवरहित ज्ञायकस्वरूप का सुरक्षित निजगृह पा ले, जहाँ आकुलतावों का रंच भी प्रवेश नहीं है तो ऐसे आनंद का धाम पाकर फिर इन बाह्य विभूतियों में कोई लगेगा क्या? यह तो अपने आपमें ही परिणमेगा। यों अध्यात्मतप के प्रसाद से इस जीव के परमसमाधि प्रकट होती है।
अंत:क्रिया के आधारभूत परमपदार्थ के आश्रय में परमसमाधि- जो भव्य आत्मा अपनी अंतरंग क्रियावों का आधारभूत, ज्ञप्ति की क्रियावों के आधारभूत अपने आत्मा को ध्याता है उसके निश्चय धर्मध्यान होता है। उसका जो सहज धाम है, किसी परउपाधि की प्रेरणा से नहीं, न कुछ किसी बाह्य वस्तु का आश्रय करके, किंतु अपने सत्त्व के कारण अपने आपमें जो अंतरंग में क्रिया होती है, शुद्ध ज्ञानपरिणमन होता है, उस अर्थपरिणमन का आधारभूत जो निज आत्मतत्त्व है वह जहाँ ध्यान में आ रहा है ऐसी परिणति को निश्चय धर्मध्यान कहते हैं। इस आत्मा की अंत:क्रिया केवल शुद्ध जानन देखन की होती है। यह आत्मा आडंबर का कर्ता नहीं है, बाह्य तन, मन, वचन की क्रियावों का कर्ता नहीं है। धर्म आत्मा के ज्ञाताद्रष्टा रहने में है। रागद्वेष मोह न आए, केवल विश्व का जाननहार रह सके, ऐसी अपनी स्थिति बनाने में धर्म होता है, हाथ-पैर चलाने में धर्म के नाम पर ही सही किसी प्रकार की तन, मन, वचन की क्रियाएँ करने में धर्म नहीं है, कुछ उपयोग को धर्म की ओर लगाने में वे बाह्य वातावरणरूप हैं, पर निश्चय से तो आत्मा के भेदरूप जो शुद्ध क्रिया प्रकट होती है जाननदेखनरूप वही आत्मा की सच्ची यथार्थ करतूत है, अंतरंग क्रियावों का आधारभूत यह आत्मपदार्थ है ऐसे इस धर्म को जो ध्याता है उस पुरुष के निश्चय धर्मध्यान होता है।
धर्मध्यान में ध्येयभूत ब्रह्मत्व- यह धर्मी चैतन्यस्वरूप है, जो चैतन्यस्वरूप सीमारहित है, यह चैतन्यस्वरूप इस मुझ इतने में रहने वाला है, ऐसी प्रदेश की सीमा बाँधी जाय तो स्वरूप का भान फिर नहीं रहा। स्वरूप में सीमा नहीं है, यह शाश्वत अंत:प्रकाशमान् है, इसमें किसी भी प्रकार की उपाधि नहीं है। बाह्य पदार्थ का अथवा कर्म का या कर्मजन्य परभाव का प्रवेश नहीं है। शुद्ध चैतन्यस्वरूप को जो ध्याता है उसके ध्यान का ही अभ्यास बना है ऐसी विशुद्ध परिणति को निश्चय धर्मध्यान कहते हैं। यह धर्मध्यान अपने आत्मा के आश्रय से ही प्रकट होता है। ऐसा ध्यान बने तो वहाँ परमसमाधि प्रकट होती है।
निश्चय शुक्लध्यान में परमसमाधि- इस धर्मध्यान के फल में इससे भी विशुद्ध परिणति जागृत होती है। जहाँ फिर ध्यान, ध्याता, ध्येय का भी विकल्प नहीं रहता है। इस ध्यान के फल में वह अवस्था होती है कि यह भेद परक भी वहाँ चिंतन नहीं रहता, सो जब इन्हीं विकल्पों का जहां अभेद हो रहा है तो अन्य विकल्पों की तो कहानी ही क्या? यों अन्य सर्वविकल्पों से दूर होकर जो अपने ज्ञायकस्वरूप के अंतर्मुख होता है उस अंतर्मुख में होने वाली जो विशुद्ध परिणमनों की संतान है वह सब निश्चय शुक्लध्यान है। इस निश्चय शुक्लध्यान से परमतत्त्व में निश्चल स्थित रहना होता है।
निरन्जन ब्रह्म के ध्यान में परमसमाधि- वह मेरा आत्मस्वरूप परमतत्त्व है, परमशरण है, वह किन्हीं भी इंद्रियों के द्वारा जानन में नहीं आ सकता है। स्पर्शनइंद्रिय इस आत्मस्वरूप को जान नहीं सकती है। रसनाइंद्रिय की इस आत्मतत्त्व में गति नहीं है। ऐसे ही घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इंद्रिय का भी विषय आत्मा नहीं है। यह आत्मतत्त्व निरन्जन है, इसमें रागद्वेष तक का भी तो अंजन नहीं लगा है। यह तो केवल शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र है। ऐसे ज्ञानप्रकाशरूप परमतत्त्व में निश्चल स्थित हो जाना, इसको निश्चय शुक्लध्यान कहते हैं। इस उपाय से, इंद्रिय संयम, आत्मनियमन और चैतन्यप्रतपन तथा निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान से, अध्यात्मसाधन से जो परमसंयमी इस अखंड, अद्वैत, चैतन्यस्वरूपमात्र आत्मा का ध्यान करता है उसके परमसमाधि प्रकट होती है। समता ही इस जीव का भला कर सकने वाली है। रागद्वेष, मोह परिणाम और रागद्वेष मोह के साधनभूत ये धन-वैभव, विषयसाधन, ये इस जीव का उद्धार करने में समर्थ नहीं हैं। ये तो इस जीव को भ्रमाकर, बहकाकर, भुलाकर संसारगर्त में पटकने वाले हैं। जो भव्य आत्मा इन उपद्रवों से अलग होकर इस आत्मतत्त्व का ध्यान करता है उसके परमसमाधि प्रकट होती है।
विविक्त ज्ञानस्वरूप के आलंबन में परमसमाधि- भैया ! अपने आपके संबंध में चिंतन बनाना चाहिए। इस मुझ आत्मा का इस शरीर तक से भी संबंध नहीं है, यह शरीर भी छोड़कर मुझे जाना होगा, फिर अन्य वैभव, धन संपदा, घर मकान तो मेरे हो ही कैसे सकते हैं? सब कुछ यहीं छोड़कर जाना होगा। यह देह भी मेरा नहीं है, इसके भीतर जो रागद्वेष, क्रोध आदिक भाव होते हैं, अनेक कल्पनाएँ उठती हैं देखो तो प्राकृतिक बात कि ये कल्पनाएँ भी मुझ आत्मा के साथी नहीं हैं। ये भी होते हैं और अगले समय में नष्ट हो जाते हैं। इन पर भी हमारा कुछ अधिकार नहीं है। ये मुझमें बनते ही रहें, ऐसी इन पर मेरी शक्ति नहीं चलती है। ये भी नष्ट होने वाले हैं और जो ज्ञान हम आपने पाया है, इस छदमस्थ अवस्था में जितना यह ज्ञान प्रकट हुआ है यह ज्ञान भी हमारा साथी नहीं है, यह भी मिट जाता है, विस्मृत हो जाता है, इसका भी ख्याल नहीं रहता है। मैं इन सबसे पृथक् एक चैतन्यस्वरूप हूं, जो मेरा स्वरूप है वह कभी मेरे से अलग नहीं हो सकता है। जो मेरा स्वरूप नहीं है वह त्रिकाल भी मेरे में नहीं आ सकता है। ऐसा यह मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानस्वरूप हूं। इस ज्ञानस्वरूप के आलंबन में परमसमाधि होती है। इस ज्ञानस्वरूप का आलंबन ही मेरा ज्ञान है।
समाधि का आधारभूत धर्मी ब्रह्म- भैया ! जो पुरुष शुद्ध चैतन्यस्वरूप में अथवा निर्विकल्प समाधि में जहां विकल्पों की तरंग नहीं उठ रही है ऐसी उत्कृष्ट स्थिति में ठहरते हैं वे साधुजन ही सर्वप्रकार के विकल्पों से दूर हैं। मैं उनको वंदन करता हूं समाधि का स्वरूप समाधिवान् के आधार से ही हो तो है। जैसे धर्म धमात्मावों के आधार में है, धर्म कहीं चलता फिरता नहीं नजर आता। कहां रखा है धर्म कि उस धर्म को उठा लिया जाय? जो धर्म के पालनहार निजस्वरूप के जाननहार संत पुरुष हैं वे धर्मात्मा ही तो साक्षात् धर्म हैं। धर्म को और कहां देखना? जैसा धर्म, धर्म के आधारभूत धर्मात्मा में ही रहता है ऐसा धर्मात्मा ही मानो धर्म है। जहां धर्म का आदर किया गया वहां धर्मात्मा का भी आदर किया जाता है, ऐसे ही यह रागद्वेषरहित परमसमाधि समाधिवान् के ही आधार में तो है। वह पुरुष जो इस समाधि में ठहरता है वह ज्ञानपुन्जरूप सहज आनंद से भरा हुआ है। इसके निकट इसके स्वरूप के ध्यान में आनंद का मार्ग दिखता है। अन्य जगह तो सर्वत्र विपदा ही मिलेगी, किंतु साधु के सत्संग में, साधु के निकट बसने में, इस विशुद्ध परिणमन में आत्मा को कल्याण प्राप्त होता है।
कल्याणार्थ आत्मसंकल्प और कर्तव्य- भैया ! अपना यह संकल्प होना चाहिये कि हमारा जीवन आत्मा की प्राप्ति के लिये है। ये बाह्य समागम छिद जावो, कहीं जावो, किसी अवस्था को प्राप्त हो, पर इनका आदर संसार में भटकाने वाला ही है- ऐसा जानकर इनके लिए ही मेरा जीवन नहीं है, ऐसा निर्णय करें। ज्ञानार्जन से, अध्ययन से, ज्ञानीजनों के सत्संग से धर्म की अपनी उन्नति करें और इस ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा का दर्शन करके इसका उपाय बनाकर इस ही में स्थिर होकर ऐसा आनंद पायें जिस आनंद में यह सामर्थ्य है कि अनंत भवों के सर्वदुष्कर्मों का परिहार करके निरुपम, आलौकिक, विशुद्धआनंद प्रकट कर देता है। जो सिद्ध भगवंत हुए हैं ऐसा यह आनंदस्वरूप आदर के योग्य है, विषयों का आनंद आदर के योग्य नहीं है। खाया जाता है जीने के लिए, जिया जाता है शरीर को धर्मक्रियावों में लगाने के लिये, शरीर को धर्मक्रियावों में लगाया जाता है आत्मा का विशुद्ध ध्यान बनाने के लिए, आत्मा का निर्मल ध्यान बनाया जाता है एक इस सहज स्वभाव के शुद्धविकास के लिए। आत्मा के सहज स्वरूप का विकास हो, इसके लिए ही पाये हुए समस्त तन, मन, धन, वचन आदिक हैं, ऐसा निर्णय करके इस ज्ञानविकास के लिए ही अपना जीवन लगाना चाहिये।