वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 60
From जैनकोष
सव्वेसिं गंथाणं तागो णिरवेक्खभावणापुव्बं।
पंचमवदमिदि भणियं चारित्तभरं वहंतस्स।।60।।
परिग्रहत्याग की निरपेक्षतापूर्वकता―निरपेक्षभावना पूर्वक समस्त परिग्रहों का त्याग करना, इसका नाम है परिग्रहत्याग महाव्रत। जब तक निरपेक्ष वृत्ति न जगेगी, तब तक परिग्रहत्याग सच्चे मायने में नहीं हो सकता। कोई पुरुष इस उद्देश्य से कि साधु संतों का आदर होता है, इसलिए घर को छोड़कर परिग्रह का त्याग करके साधु बन जाना चाहिए तो क्या वह परिग्रह त्यागी है? भले ही घरद्वार छोड़ दे, धन वैभव छोड़ दे, किंतु लोक में मेरा सम्मान भी हो और बड़े आराम से जीवन भी चले, यह जहां लक्ष्य होता है वह तो महापरिग्रह पाप है।
अंतरंगपरिग्रहत्याग में वास्तविक निष्परिग्रहता―इस पौद्गलिक परिग्रह ने क्या कसूर किया है? वह तो रूपी पदार्थ हैं, कुछ आपसे बोलते चालते भी नहीं हैं। इन जड़ पदार्थों के त्याग से परिग्रहत्याग नहीं कहलाता, किंतु चित्त में किसी भी परतत्त्व की वांछा न करने से परिग्रहत्याग कहलाता है। इसी कारण परिग्रह के 24 भेद बताये हैं। 10 तो बाह्य परिग्रह है और 14 अंतरंग परिग्रह हैं। बाह्यपरिग्रहों का त्याग आभ्यंतर परिग्रह से निवृत्त होने के लिए है, और आभ्यंतर परिग्रह का त्याग ही वास्तविक परिग्रहत्याग है। यों तो कोई कहे कि हमारी थाली में जो भोजन न परसा जाय उसका मेरे बिल्कुल त्याग है, अरे अंतर की कल्पना का त्याग है तो त्यागी है। चित्त में तो बना है कि अमुक चीज कितनी अच्छी बनी है और चौके में भी रक्खी है, ये लोग परोसते क्यों नहीं हैं? अरे अंतरंग में तो कल्पना की उड़ाने चलें तो वहाँ कैसे त्यागी कहला सकेगा?
त्याग का प्रयोजन―भैया ! त्याग किया जाता है अपने आपके ज्ञान सुधारस को छककर पीने के लिए, आनंदमय होने के लिए। त्याग का प्रयोजन कष्ट नहीं है, त्याग का प्रयोजन शुद्ध आनंद का अनुभव करना है। यों समझिये कि मामूली चीज रखने से यदि बड़ी चीज का अलाभ होता है और मामूली चीज के छोड़ने से बड़ी चीज का लाभ होता है तो विवेकी पुरुष इस मामूली चीज को छोड़ने में जरा भी न हिचकेंगे। ज्ञानी संत की ऐसी ही वृत्ति है। ये जगत् के विषय सुख अत्यंत असार और पतन के कारण है। परिग्रह की ममता में जकड़ना, किसी स्त्री एवं पुरुष के स्नेह में बंध जाना, ये सारी बातें बरबादी की ही हैं। लाभ कुछ नहीं होता।
ज्ञानियों का अंतर्बल―ज्ञानी पुरुषों में अंतरंग में अपूर्वबल होता है। जैसे कि ज्ञानी पुरुष देवांगनावों के रूप को निरखकर अपनी वृत्ति से शुद्ध भावों से चलित नहीं होता है ऐसे ही ज्ञानीपुरुष दूसरे के करोड़ों और अरबों के वैभव को देखकर चलित भी नहीं होते, आश्चर्यचकित भी नहीं होते, क्योंकि वे जानते हैं कि इन्होंने इतनी धूल लपेट रक्खी है। रत्न जवाहिरात अमूल्य चीजें इनके पास हैं―इस दृष्टि से वे ज्ञानी नहीं निरखते हैं। क्या होगा उन अमूल्य जवाहरातों से? प्रयोजन तो जीवन में दो रोटियों का है। इतना सारा नटखट परिग्रह ये सब किसलिए रख रहे हैं धनी पुरुष? वे तो इस जगत् देवता को प्रसन्न करने के लिए धन वैभव बढ़ा रहे हैं। ये मायामय लोग हाड़ मांस नाक कान वाले लोग मेरी बढ़ाई कर दें , इतनी तुच्छता के लिए इस जीवन में धनसंचय करने का बेजोड़ परिश्रम किया जा रहा है। रहेगा अंत में कुछ नहीं।
निरपेक्षता में ही कल्याण―निरपेक्ष वृत्ति ही परम अमृत है। परपदार्थों से निरपेक्षता का भाव जगे तो परिग्रह का त्याग बन सकता है अन्यथा नहीं। बड़े लोग निरपेक्ष वृत्ति तो रखते नहीं और अपनी इज्जत बढ़ाने के लिए अथवा जीवन में अच्छे भोजन का लाभ लेने के लिए परिग्रह का त्याग कर देते हैं उन्हें आजीवन शांति नहीं मिल पाती, क्योंकि जैसा उद्देश्य बनाकर काम किया जाय उसके अनुसार अंतर्भावना बना करती है। और, निरपेक्ष वृत्ति वाले पुरुष तो यह चाहते हैं कि लोगों का जमघट मेरे पास न रहे, लोगों के द्वारा की जाने वाली बढ़ाई मेरे सुनने में मत आये। वे तो अपने आपमें अत्यधिक एकांत चाहते हैं। परिग्रह केवल पैसे का ही नहीं है किंतु आत्मस्वभाव के रमण के अतिरिक्त अन्य कुछ चाह करना वह सब परिग्रह के अंतर्गत हैं। मूर्छा परिग्रह है, बेहोशी का नाम परिग्रह है, ममता परिणाम के न होने को, निरपेक्षता के होने को निष्परिग्रहभाव कहा गया है।
निरपेक्षता का यत्न सम्यक् अवबोधन―भैया ! जैसे निरपेक्षता जगे उस कार्य के यत्न में अधिक लगना चाहिए। निरपेक्षता का प्रतिपक्षी है सापेक्षता अर्थात् परपदार्थों की अपेक्षा बनाए रखना, परपदार्थों की अपेक्षा तब बनायी जाती है जब यह ख्याल हो कि मेरा बड़प्पन, मेरा जीवन, मेरा सुख, मेरा सब कुछ भला होने की बात परपदार्थों के आधीन है, ऐसा मन में ख्याल हो तो परपदार्थों की अपेक्षा रक्खी जाती है। यदि निरपेक्षता चाहते हो अर्थात् परपदार्थों की अपेक्षा न रहे, ऐसी स्थिति चाहते हो तो सम्यग्ज्ञान बनाना आवश्यक है।
अवबोध्य यथार्थस्वरूप―प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से सत् है अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से ही वह है, किसी अन्य के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है। जगत् में अनंतानंत तो जीव हैं। जैसे हम आप एक-एक मनुष्य हैं, पशु-पक्षी एक-एक जीव हैं, कीड़ा, मकोड़ा, वनस्पतियां ये भी अनंतानंत हैं। अनंतानंत तो जीव हैं और जीवों से अनंतानंत गुणे पुद्गल हैं, परमाणु हैं, क्योंकि सिद्धों से अनंतगुणे तो ये संसारी जीव हैं, और एक-एक संसारी जीव के साथ अनंतानंत कर्म परमाणु बंधे हैं और अनंतानंत ऐसे कार्माण परमाणु भी लगे हुए हैं जो अभी कर्म रूप तो नहीं हुए किंतु कर्मरूप हो सकेंगे और फिर शरीर में अनंत परमाणु हैं। एक जीव के साथ अनंत परमाणु हैं। तब समझ लीजिए कि जीवों से अनंतानंतगुणे पुद्गल हुए या नहीं? एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य। ये समस्त प्रत्येक द्रव्य अपने ही स्वरूप में हैं, अपने स्वरूप से ही परिणमते हैं, फिर मेरा अन्य वस्तु पर क्या अधिकार? किसी अन्य वस्तु का मेरे पर क्या अधिकार? सर्व स्वतंत्र हैं।
किसी पदार्थ के द्वारा परपदार्थ के कर्तृव्य का अभाव―भैया ! किसी भी पदार्थ का काम किसी अन्य पदार्थ के द्वारा नहीं चलता। मेरा भी कार्य किसी अन्य पदार्थ के द्वारा नहीं चलता। कुछ मान भी लीजिए कि निमित्तनैमित्तिक भावों की दृष्टि से वो कोई परपदार्थ मेरे किसी कार्य में निमित्त होता है तो वह विभाव के कार्य में निमित्त होता हैं, मेरे हित में निमित्त नहीं होता है। तब किसकी अपेक्षा करना? ऐसी निरपेक्ष वृत्ति का आत्मा जिसका हो उस ज्ञानी संत के ही त्याग कहा जाता है।
निरपेक्षवृत्ति का एक प्रसिद्ध पौराणिक उदाहरण―निरपेक्ष वृत्ति का पुराण में एक उदाहरण है। यद्यपि भरत चक्रवर्ती के परिग्रह का त्याग न था तो भी सम्यग्दर्शन के प्रकाश के कारण उनके अंतर में बहुत ऊंची निरपेक्ष वृत्ति थी। एक बार किसी जिज्ञासु ने मंत्री से प्रश्न किया कि लोग यह कहा करते हैं कि भरत जी घर में भी विरागी हैं, यह कैसे हो सकता है? तो उनको इसका प्रमाण कराने के लिए उपाय किया। भरत चक्रवर्ती के मंत्री बोले कि तुमको यह तेल से भरा कटोरा दिया जाता है, इसे हथेली में रक्खे हुए चक्रवर्ती के सारे वैभव को देख आवो और झूठमूठ पहिले से सीखा दिया था, सो पहरेदारों से कहा―देखो तुम चार पहरेदार इस जिज्ञासु मनुष्य के चारों ओर चलकर इसे चक्रवर्ती के सारे वैभव को दिखा लाना, और देखो एक भी बूंद तेल अगर कटोरे से गिरे तो इनका सिर उड़ा देना। गये वे तेल का कटोरा लिए हुए, चक्रवर्ती का सारा वैभव देख आये और वापिस आ गये। मंत्री ने पूछा―बोलो भाई तुम घुड़शाला में गये थे? हाँ गये थे। कितने घोड़े हैं और कैसे घोड़े हैं? बोला यह कुछ हमें पता नहीं है। हमें तो इतना ज्ञान है कि अश्वशाला में गये और तुम अंत:पुर में भी गये थे, रानी के महलों के मुहल्ले में? हाँ वहाँ भी गये। बतलावो कैसे महल हैं, कैसी रानियां थी? बोला―यह मुझे कुछ पता नहीं। इतना सामान्य ज्ञान है कि हम रानियों के महल में भी गये थे। क्यों जी तुम्हें सारी बातें विशेष क्यों नहीं मालूम? जिज्ञासु बोला कि मेरा सारा ध्यान इस तेल के कटोरे पर था कहीं बूंद न गिर जाय, नहीं तो मेरी जान चली जायेगी। तो मंत्री ने समझाया कि भरत चक्रवर्ती का ध्यान केवल एक आत्महित में लगा रहता है, संसार की असारता और निज आत्मस्वरूप की सर्वस्वसारता इनके ध्यान में बसा करती है। उदय है पुण्य का, 6 खंड की विभूति है, सो उसमें पड़े हुए हैं, किंतु ध्यान इनका हित की ओर है और ऐसा होता है। तभी तो कोई-कोई बड़े-बड़े राजा महाराजाधिराज चक्री सारे वैभव को एक बार में ही सर्वथा छोड़कर एक इस निर्ग्रंथव्रत में उपयोगी हुए हैं।
आनंद का स्रोत निज के अंतर में―भैया ! जो आनंद अपने आपकी उपासना में हैं, वह कहीं बाहर है क्या? धन वैभव को जोड़ने की मन में चिंता कल्पना बनाना यह तो बिल्कुल उचित नहीं है। गृहस्थों का क्या कर्तव्य हैं? कर्तव्य को जानकर समय पर उस कर्तव्य को कर लें। क्या होगा? जो होगा सब ठीक होगा। जो समागम होगा, उसमें ही गुजारा होगा। पर मैं इतना वैभव संचित कर डालूं तो ऐसी कल्पना मन में मत लाओ, कर्तव्य करो। कल्पना बना लेने से धन नहीं बढ़ जाता है। वह तो आपके थोड़े श्रम से भी साध्य है, यदि सब कुछ अनुकूल वातावरण है तो। सबसे अधिक भावना होनी चाहिये इसकी कि मैं अपने उस सहजज्ञानस्वरूप को ज्ञान में रक्खूं और समस्त परतत्त्वों और परभावों का विकल्प छोड़ दूं―ऐसी स्थिति बने, ऐसे अनुभव के लिये ध्यान रहना चाहिये। मुख्य बात तो इस जीवन में यह है। यह उसी ज्ञानी संत के बात बन सकती है, जो निरपेक्ष वृत्ति का आदर किये हुए हो।
अकिंचन की छाया में समृद्धि―एक जगह धनंजय सेठ ने स्तवन करते हुए कहा कि हे भगवन् ! तुम अकिंचन हो, तुम्हारे पास कुछ नहीं है, न घर है, न स्त्री है, न कुटुंब है, न पैसा है, तुम अकिंचन हो, लेकिन अकिंचन होने पर भी आपसे जो लाभ हो सकता है, वह बड़े-बड़े समृद्धिशाली पुरुषों से भी नहीं हो सकता है। वह कैसे? इसका एक उदाहरण दिया कि ये पर्वत ऊपर से देखो तो इन पर जल की एक बूंद नहीं है; बिल्कुल तपते हैं, पैर जलते हैं उन पर चलने से। ये पर्वत जल की ओर से शून्य हैं, अकिंचन हैं, कुछ भी इन पर नहीं है, लेकिन नदियां निकलती हैं तो पर्वतों से ही निकलती हैं। समुद्र जल से लबालब भरा हुआ है, किंतु उसमें से एक भी नदी नहीं निकलती। यों ही हे नाथ ! आप अकिंचन हो, किंतु आपसे जो लाभ हो सकता है, वह लोक में समृद्धिशाली पुरुषों से भी नहीं हो सकता है।
आकिंचन्य का अवलोकन और प्रयोग―जरा और भी अंतरंग में प्रवेश करके देखो कि हम और आप सबका भी आत्मा अकिंचन है, इसमें न घर लिपटा है, न कुटुंब चिपका है, न देह चिपटा है, यह तो ज्ञानस्वरूप एक चैतन्यतत्त्व है, अकिंचन है। इस अकिंचन ज्ञानमात्र आत्मा की उपासना से जो आनंदलाभ हो सकता है वह आनंद क्या किसी भी धनवैभव या अन्य किन्हीं लोगों के स्नेह से हो सकता है? नहीं हो सकता है अनुभव करके देख लो। जब आखिर सब कुछ छोड़कर ही जाना है तो जीवन में इतनी सद्भावना क्यों न बना ली जाय कि जिसे हम छोड़कर जायेंगे वे सभी चीजें तो अभी भी छूटी हुई हैं, मेरे से चिपटी नहीं हैं। ऐसे शुद्ध दृष्टि रहे तो समझियेगा कि उससे मैंने लाभ पाया।
निरपेक्षता व परिग्रहत्याग का प्रयोजन आनंद―निरपेक्ष भावना पूर्वक समस्त परिग्रह का त्याग हो तो वह चारित्रधारी साधु का पंचम महाव्रत कहलाता है। यह व्रत होता है उन ज्ञानीसंत पुरुषों के, जो निज कारण परमात्मस्वरूप में ठहर गए हैं, उनके परिग्रहत्याग होता है। यहाँ भी त्याग की बात मुख्य नहीं है, मुख्य बात है आनंद पाने की। आचार्यदेव आपसे कुछ त्याग करवाना नहीं चाहते। वहाँ उपदेश है कि तुम अनंत आनंद प्राप्त कर लो जिस विधि से बने। अनंत आनंद का अभ्यास यह स्वयं आत्मस्वरूप है, सो आत्मस्वरूप में आपकी प्रखर दृष्टि हो जाय तो आपका कल्याण ही गया जानिये। अब आत्मस्वरूप की प्रखर दृष्टि में पैसा चिपक सके तो चिपकाये रहो। त्याग कराने की बात की मंशा नहीं है। मंशा है आत्मीय परम शुद्ध आनंद की प्राप्ति कराने की। चाहिए क्या? जैसे कहते हैं कि आम खाना कि पेड़ गिनना। अरे तुम्हें आनंद चाहिए है कि श्रम चाहिए है? आनंद चाहिए तो आनंद के पथ को देखो, शुद्धज्ञान स्वरूप को निहारो।
निष्परिग्रह स्वभाव का आलंबन―भैया !स्वयं ही आनंदस्वरूप है इस आत्मदेव को बाह्य में कहां खोज रहे हो? जब तक चित्त में ऐसा साहस न होगा कि मेरा तो एकाकी शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है, यदि बाहर की चीजें छूटती हैं तो छूटने दो। बड़े-बड़े पुरुषों ने जान-जानकर परिग्रह को छोड़ा और हमारा किसी कारण से छूट जाता है तो वह तो मेरे लिए भली बात है। जितना बोझा कम हो उतना ही भला है, इस कारणसमयसारतत्त्व की दृष्टि के विधान में समस्त परिग्रहों का त्याग तो स्वयं ही बना हुआ है। यों स्वरूप में अवस्थित रहने वाले योगी संतों के यह परिग्रहत्याग महाव्रत होता है जिसके फल में अनंत सुख प्राप्त होता है।
परिग्रहत्याग में मुक्ति की परंपरया कारणता―जो संयमी पुरुष निश्चयव्यवहारात्मक विशुद्ध चारित्र के धारण करने वाले हैं उनके बाह्य और आभ्यंतर 24 प्रकार के परिग्रहों का त्याग है। वह परिग्रहत्याग महाव्रत परंपरा से मोक्ष का कारण है। मोक्ष का साक्षात् कारण 14 वें गुणस्थान का परिणाम है। जिस समय के बाद जो सिद्ध हुई है उस सिद्धि से प्रथम क्षण में जो स्थिति होती है वह उसका कारण कहलाता है और फिर नीचे का 13 वां 12 वां गुणस्थान कारण है, क्षपकश्रेणी कारण है, जिस पर चढ़ने का नियम हो जाता है कि यह अवश्य मोक्ष जायेगा। क्षपकश्रेणी के 8 वें गुणस्थान का परिणाम उपशम श्रेणी के 8 वें गुणस्थान से अधिक विशुद्ध बताया गया है। क्षपकश्रेणी भी मुक्ति का कारण है। उसके पहिले गुणस्थानों का ऐसा नियम नहीं है कि इस गुणस्थान के पाने के बाद इस ही भव से नियम से मोक्ष होगा। कहो 7 वें गुणस्थान तक आ जाने पर भी गिरे और पहिले गुणस्थान में पहुंच जाय गिरते-गिरते और वहाँ कितने ही सागरों पर्यंत, कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक यह जीव वहाँ रुक सकता है। इस कारण परिग्रहमहाव्रत को कहा गया है कि यह परंपरा से कारण है।
परिग्रह का लक्षण―परिग्रह शब्द का अर्थ है ‘परि समंतात् गृह्लाति इति परिग्रह:’ जो इस जीव को चारों ओर से जकड़ ले, उसको परिग्रह कहा है। सो देख लो परिग्रह का यह काम है। एक किम्वदंती में कहते हैं कि गुड़ भगवान् के पास गया, विनती की कि महाराज हम बड़े दु:खी हैं। क्या दु:ख है? हम जब खेत में खड़े थे गन्ने के रूप में खड़े थे तब लोगों ने हमें उखाड़-उखाड़कर खूब खाया, वहाँ से बचे तो कोल्हू में पेलकर रस निकालकर खाया। वहाँ से बचे तो कड़ाही में पकाकर राब बनाकर हमें खाया, गुड़ बनाकर खाया, और गुड़ से भी बचे मुझे किसी ने न खा पाया, मैं सड़ भी गया तो भी लोगों ने तंबाकू में मिला-मिलाकर खाया तो महाराज मेरे कष्ट दूर करो। तो ऐसे ही किम्वदंती के भगवान् होंगे। सो भगवान् बोले कि तू सामने से इसी समय हट जा, यही तेरा न्याय है। क्यों महाराज ये कैसा न्याय है? बोले कि तेरी बातें सुनकर तो मेरे मुख में पानी आ गया। यहाँ भी तेरी कुशल नहीं है।
परिग्रह की जकड़―परिग्रह इस जीव को ऐसी कठिनता से जकड़े हुए है कि यह जीव हिल डुल नहीं सकता। बाह्यपदार्थ इस जीव को नहीं जकड़े है? आभ्यंतर परिग्रह से जकड़े है कषायों द्वारा। घर कहां जकड़ हैं? घर तो आपसे 1, 2 फर्लांग दूर है या आसपास है, परिवार कहां जकड़े हैं, परिवार-परिवार की जगह है, आप यहाँ बैठे हैं। जकड़ा है तो कषायभाव से जकड़ा है , दूसरा कोई नहीं जकड़े हैं। किसी गृहस्थ ने राजा जनक से निवेदन किया कि महाराज मुझे घर ने जकड़ रक्खा है, बाँध रक्खा है, कोई उपाय तो बतावो कि बंधन से छूटें। तो जनक ने उत्तर कुछ न दिया। सामने नीम का पेड़ था सो उस पेड़ को अपनी जेट में भर लिया और कहा―अरे रे रे मैं मरा, मुझे नीम ने जकड़ लिया है, मैं छूट ही नहीं सकता। यह पेड़ मुझे छोड़े तो मैं तुम्हें उत्तर दूं। तो गृहस्थ बोलता है कि मैं तो आपको बुद्धिमान् जानकर पूछने को आया था, किंतु तुम तो बेवकूफ मालूम पड़ते हो। अरे पेड़ ने तुम्हें जकड़ रक्खा है कि तुमने पेड़ को जकड़ रक्खा है? जनक बोले कि यही तो मेरा उत्तर है। अरे घर ने तुझे जकड़ रक्खा कि तूने घर को जकड़ लिया है।
परिग्रह के जकड़ा से छुटकारा पाने का उपाय सम्यक् अवबोध―भीतर में जो जीव के प्रदेशों में विकारपरिणमन चल रहा है, उस विकारपरिणमन का जकड़ाव इतना कठिन है कि इसके दूर करने का उपाय सिवाय ज्ञान के और कुछ नहीं है। आनंद पाने के लिए सैकड़ों उपाय कर डालो। यह रोजगार करो। वह रोजगार करो, अमुक है, स्त्री है, पुत्र है, अनेक काम कर डालो, पर शांति न मिलेगी। जो आज बड़े नेता है, मिनिस्टर है, अधिकारी है, धनी हैं―शांति किसे कहते हैं―क्या यह शांति उनके पास है? शांति तो अपने आपके ज्ञान में ही है। शांति अन्य उपायों से त्रिकाल नहीं मिल सकती। इस उपाय को बनाने के लिए चाहे कितनी ही देर लगा लो, किंतु जब भी शांति मिलेगी तो आत्मज्ञान के उपाय से ही मिलेगी।
किसी भी पदार्थ का पर से असंबंध―भैया ! अपने आपको अनुभव करो कि मैं देह तक से भी न्यारा शुद्धज्ञानमात्र अमूर्त भावात्मक सत् पदार्थ हूं मेरा किसी अन्य पदार्थ से संबंध ही नहीं है। किसी पदार्थ के साथ संबंध मानना यह दोष है और पर के साथ संबंध मानने वाले दूसरे मोही अनुदार पुरुषों को निरखकर खेद करे यह भी दोष है। क्यों खेद करते हो? करुणा करना तक भी एक मधुर दोष है। आखिर वहाँ भी तो राग परिणाम है, परिग्रह का अंश है। बाह्यपदार्थों के परिग्रह की चर्चा तो दूर रहो―अंतरंग में किसी मनुष्य के भला करने का अनुराग उठना यह भी राग का सूक्ष्मदृष्टि से परिग्रह है। जो तुम्हें जकड़े वही है परिग्रह। द्वेष ने तुम्हें जकड़ा ना? हाँ। परिग्रह हो गया। मोह ने जकड़ा ना? तो मोह तो परिग्रह हो गया। राग ने जकड़ा परिग्रह हो गया। और दयाभाव ने जकड़ा, परिग्रह हो गया।
साधु की परम करुणा―परिग्रहरहित दशा में, आकिंचन्य अवस्था में, निर्विकल्प समतापरिणाम का उदय होता है, वह है निष्परिग्रहता। साधु पुरुषों का उपदेश है कि साधुवों के इस तरह का रागभाव तो जग सकेगा कि ये संसार के प्राणी अज्ञान विपदा से दु:खी हैं इनकी यह विपदा दूर हो, किंतु ऐसा राग न जगेगा कि यह भूखा है, इसे रोटी बनाकर खिला दें। जैसा जो पद है उस पद के अनुसार करुणा का भाव होता है। लेकिन अंदर में तो शुद्धता हो नहीं और साधु भेष रखकर चूंकि मैं साधु हूं, तो साधु को अधिकार नहीं है कि किसको खिलाये पिलाए। पानी पिलाने तक का भी आरंभ का परिणाम साधु के नहीं होता। सुनने में जरा कठिन लग रहा होगा, किंतु उसके ज्ञान और वैराग्य की उत्कृष्ट अवस्था पर दृष्टि दें तो ध्यान में आयेगा कि उसका परिणम कितना निर्मल है कि जिसमें यह राग भी नहीं आता। लेकिन भीतर से तो साधुता का परिणाम नहीं है और कोई सोचे कि साधु को तो आरंभ का निषेध है तो प्यासा मरता है तो मरने दो तो ऐसा पुरुष, मैं तो जानता हूं कि अंतरंग में पापभाव ही कर रहा है।
ज्ञानियों की होड़ अज्ञानियों द्वारा अशक्य―ज्ञानियों के परिणाम की होड़, प्रवृत्ति की होड़ अज्ञानी करे तो कैसे निभ सकती है? जिसकी जैसी वृत्ति अंतरंग में है उसके अनुसार वृत्ति होगी। एक किताब है गधे की कहानी पहिले उपन्यासों में चलती थी। उसमें एक जगह घटना आयी है कि एक धोबी के गधा भी था और एक कुतिया भी थी। कुतिया के तीन चार बच्चे हुए। सो वह धोबी उन पिल्लों को खिला रहा था। कुछ उचकाये और कुछ मुख में लगाकर चूमें। वे पिल्ले कभी मालिक के पंजे मारें, कभी सिर पर चढ़े। वह धोबी खुश होकर उन पिल्लों से बड़ा प्यार करे। तो वह गधा सोचता है कि मैं मालिक का इतना तो बोझा ढोता हूं और मैं ही घर का खर्च चलाता हूं, पर मेरा मालिक मुझसे प्यार नहीं करता और ये पिल्ले जो कुछ नहीं करते, उनसे बड़ा प्यार करता। कुछ गधे के दिमाग में आया कि ये पिल्ले मालिक को पैरों से मार रहे हैं इसलिये मालिक उनसे बड़ा प्यार करता है। सो वह भी धीरे से मालिक के पास गया और अपने पैरों से दो लत्ती मारने लगा। मालिक ने क्या किया कि 5, 7 डंडे गधे के जमाये। अरे क्यों गधे ! गधे का गधे ही जैसा काम है और उन पिल्लों का उनका जैसा काम है, तू उनकी होड़ कर रहा है। अज्ञानीजन ज्ञानियों की प्रवृत्ति को देखकर होड़ करें और अपने आपकी दुनिया में पूज्यता जनावे और अंतरंग पूज्यता की कल्पना करें तो उनका कैसे मेल हो सकता है? कुछ वहाँ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि के अंतरंग में अंतर नहीं आ सकता।
ज्ञानी का सद्भाव―ज्ञानी की भावना होती है कि मेरा तो मात्र मैं ही हूं, देह तक भी मेरा नहीं है, यह बिछुड़ेगा, और जो रागद्वेष के परिणाम होते है वह मैं नहीं हूं मैं तो विशुद्ध ज्ञानानंदभाव मात्र हूं। ये बाह्यपदार्थ मेरे नहीं हैं। जो जिसका होता है वह उनमें तन्मय होता है। मेरा यह ज्ञान तो ज्ञान में ही तन्मय है। यदि ये बाह्य अजीव परिग्रह मेरे हो जायें तो मैं उन अजीवों में तन्मय हो जाऊंगा, तो अजीव बन जाऊंगा। लेकिन मैं तो ज्ञाता ही हूं, अजीव नहीं हूं। इस कारण कोई भी परपदार्थ मेरा परिग्रह नहीं है। ये बाह्यपदार्थ छिद जावो, भिद जावो, अथवा कहीं भी प्रलय को प्राप्त हो जावो, जहां चाहे वहाँ जावो तो भी मेरे परिग्रह नहीं हैं। कोई 10-5 हजार की चोरी हो जाय या कोई धोखा देकर छीन ले जाय तो यह जीव खेद करता है और क्यों जी 10-5 हजार की बात जाने दो, यदि यह हजारों लाखों का वैभव तुम्हारे पास पहिले से ही न होता, आप एक गरीब परिस्थिति के पहिले से ही होते तो क्या ऐसा हो नहीं सकता था। अरे मुफ्त में ही आया और मुफ्त ही चला गया। उदयवश आया और उदयवश चला गया। इसका क्या खेद करना ज्ञानी जीव के अंतरंग में बड़ा साहस होता है। ये बाह्य परिग्रह किसी भी अवस्था को प्राप्त हों, फिर भी ये मेरे कुछ नहीं हैं।
संबोधन―हे मुमुक्षु पुरुषों ! इस समस्त संसार भ्रमण का स्वरूप देख लो, कहीं यदि सार नजर आता हो तो रम जावो। कहीं भी तो यहाँ सार नहीं दिखता, फिर क्यों इतनी चिंताएं करके इस परिग्रह का विस्तार कर रहे हो? देखो सहज साधारण श्रम से जितना आता हो आने दो, पर चिंता करके आकुलता करके और इतना ही धन होना चाहिए, ऐसा संकल्प बनाकर उद्यम करना यह केवल क्लेश का ही कारण है। खूब देख लो, सोच लो, इस दुनिया को यदि अपना बड़प्पन बताने के लिए धन संचय किया जा रहा है तो यह सारी दुनिया मायास्वरूप है, नष्ट होने वाली है, अपरिचित है, इसमें लाभ क्या पावोगे और मान लो दो चार सौ मील के एरिया में रहने वाले पुरुष भला भी कह दें तो यह सारा लोक तो 343 घनराजू के प्रमाण विस्तार वाला है, इसके आगे यह परिचित क्षेत्र समुद्र में बूंद बराबर भी हिस्सा नहीं पाता है। सो थोड़े से क्षेत्र के लोगों ने यदि आपका यश गा लिया तो उससे क्या लाभ होगा? और मरकर किसी ऐसे क्षेत्र में पैदा हो गए जहां कोई पूछ नहीं है तो फिर उस यश से क्या लाभ है?
अपने स्वार्थ की चेष्टा―भैया ! अनेक लोग पिता के मरने पर श्राद्ध किया करते हैं। किसी को भोजन करा दिया तो सोचते हैं कि वह भोजन बाप के पास पहुंच जायेगा। पंडों को पलंग, अनाज, वस्त्र आदि दान देते हैं, सोचते हैं कि ये सब पिता के पास पहुंच जायेंगे। हृदय की बात पूछो तो यह है कि श्राद्ध करने वाला अपने यश के लोभ से या कल्पित पुण्य की चाह से श्राद्ध करता है। देखो प्राय: जो जिंदा में नहीं सुहाया वह मरने पर क्या सुहा गया? कवि कोई वहाँ अलंकार में कहता है कि वह मर चुका बाप मानो यह प्रार्थना कर रहा है कि हे प्रभु ! ये मेरे लड़के अब इतना खर्च कर रहे हैं, यदि ये जिंदा अवस्था में प्रेमपूर्वक वचन बोलकर पानी भी देते रहते तो यह भला था। तो जगत की ऐसी ही रीति है। संसार में देखो सर्वत्र दु:ख छाये हैं।
निजगुप्तगृह में निज की गुप्ति―इस परिग्रह का विस्तार छोड़ो और आत्मीय आनंद की प्राप्ति के हेतु अपने आपके इस शुद्ध ज्ञानस्वरूप में ज्ञानद्वारा प्रवेश करो। यहाँ पर किसी भी परिग्रह की याद में मत दौड़ो। अपने आत्मस्वरूप को ग्रहण करो। जो आत्मा में है वह त्रिकाल छूट नहीं सकता और जो आत्मा में नहीं है वह त्रिकाल आत्मा में आ नहीं सकता। यह मैं आत्मा स्वरसत: सुरक्षित हूं। सुरक्षित होता हुआ भी कल्पनाएं करके दु:खी हो रहा हूं। कोई खरगोश शिकारी कुत्तों के आक्रमण के भय से डरकर भाग जाता है, और किसी झाड़ी में छुप जाता है, जहाँ किसी की दृष्टि ही न जा सके। उस झाड़ी के आसपास देखकर वे कुत्ते लौट जाते हैं। वह खरगोश अपने कानों से नेत्र बंद करके छिपा हुआ बैठा रहता है। थोड़ी देर में वह खरगोश निकलकर देखता है कि वे कुत्ते गये या नहीं। कुत्ते पुन: उसको देखकर पीछा करते हैं। यों ही यह हित पंथ का अभ्यासी पुरुष परिग्रह की आपदावों से परेशान होकर अपने आपके सुगम सुंदर गुणों की झाड़ियों में गुप्त होकर बैठ गया और इंद्रियों को संयत कर चुका, बड़े आनंद का स्थान पा गया, लेकिन थोड़ी ही देर बाद फिर इन इंद्रियों को उघाड़कर फिर इन परिग्रहों को देखता है, राग और द्वेषवश इनमें दृष्टि जमाता है। लो अब फिर दु:ख हो गए।
आकिंचन्य की अभ्यर्थना और समर्थना―भैया !अरे एक अंतर्मुर्हूत तो, कुछ भी तो अविचल होकर इस आत्मस्वरूप में स्थिर होओ और देखो कि यह आत्मा स्वयं आनंद का भंडार है। अपने आत्मा में अविचल स्थिर होने का जो एक महान् कार्य है यह ज्ञानी संत पुरुष करता ही है। ज्ञानियों को इस पर आश्चर्य नहीं। जैसे कृपण को दूसरों को दान देते हुए आश्चर्य होता है और ऐसा भी सोचने लगता होगा कि इनका दिमाग ठीक है या नहीं। कुछ दिमाग क्रैक तो नहीं है जो ऐसा धन लुटाये जा रहे हैं। ऐसे ही अज्ञानी पुरुषों को ज्ञानी पुरुषों की चेष्टा पर आश्चर्य होता है, ओह कैसे छोड़ दिया उस सुकौशल ने घर, कैसे त्याग दिया उस सुकुमाल ने अपना सारा वैभव? कहीं दिमाग क्रैक तो नहीं हो गया था? और दया भी आ जाती है हाय क्यों ऐसा परिणाम हुआ? ये खेद व आश्चर्य के भाव अज्ञानियों की चेष्टाएं हैं, पर ज्ञानी संत जानते हैं कि सर्वस्व आनंद त्याग में ही है, निष्परिग्रहता में है, आकिंचन्य की उपासना में है। सबसे विविक्त ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व में उपयोग रमें उससे बढ़कर जगत् में और कुछ है ही नहीं।
संसार की वोट से हित का अनिर्णय―यह संसार का राज्य सब मोही प्रजा से भरा हुआ है। यहाँ लोगों की वोट पर सच्चाई का निर्णय नहीं हो सकता कि देखो अधिक से अधिक मनुष्य जो काम करते हों वही हित का मार्ग है। कोई देश बेवकूफों से ही भरा हुआ हो तो वहाँ जैसे वोटों पर राज्य नहीं चल सकता, ऐसे ही मोहियों से भरे हुए संसार में संसारी जीवों को निरखकर अपना निर्णय मत बनावो कि ये धनसंग्रह में इतना बढ़ रहे हैं तो यह मुझे भी करना चाहिए, ये परिवार के मोह में सने जा रहे हैं तो यह मेरा भी कर्तव्य होगा, ऐसा ध्यान मत करो। इस परिग्रह पिशाच से हटकर अपने आपके स्वरूप में अविचल स्थिर होने का प्रयत्न करो।
निष्परिग्रह आत्मस्वभाव में रमण―इस परिग्रह त्यागमहाव्रत के प्रकरण में यह बताया गया है कि निष्परिग्रह ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व में रुचिपूर्वक रमण करने का यत्न करना, बाह्य आभ्यंतर 24 प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना सो परिग्रहत्याग महाव्रत है। यहाँ तक व्यवहारचारित्र के प्रकरण में पंचमहाव्रतों का स्वरूप दिखाया गया है और व्यवहार में पालने के लिए ये पंचमहाव्रत मुख्य बताये गये हैं। अब इसके बाद पंचसमितियों का वर्णन चलेगा।